tag:blogger.com,1999:blog-53342694021194223562024-03-13T03:01:11.170-07:00निंदक नियरे राखियेयदि साहित्य जीवन की व्याख्या है तो आलोचना उस व्याख्या की व्याख्या- डॉ. श्यामसुन्दर दासनिंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.comBlogger35125tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-63120511708117234092023-12-22T23:24:00.000-08:002023-12-22T23:32:23.840-08:00हिन्दी भावधारा की अनूठी ग़ज़लों का संग्रह: पतवार तुम्हारी यादें<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg622JoKvkgQyBj-6fg_5gsbDq15GuiN6Mt11URAsIvP9IeSgOTrgQeAYWX5cAS2iTjjpJa5wFMIzOSZE0c5Ke1xbo4OUiiPJc5qH5-Lle7-pHfUPs457bHe610j3huFP6j_tq-6LYy_fla-sZBTLvncEaEO8z7U13ivsq8IoSN2FYVxon4qxs-kVXEL68/s1600/WhatsApp%20Image%202023-12-23%20at%2012.50.07%20PM.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1067" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg622JoKvkgQyBj-6fg_5gsbDq15GuiN6Mt11URAsIvP9IeSgOTrgQeAYWX5cAS2iTjjpJa5wFMIzOSZE0c5Ke1xbo4OUiiPJc5qH5-Lle7-pHfUPs457bHe610j3huFP6j_tq-6LYy_fla-sZBTLvncEaEO8z7U13ivsq8IoSN2FYVxon4qxs-kVXEL68/w133-h200/WhatsApp%20Image%202023-12-23%20at%2012.50.07%20PM.jpeg" width="133" /></a></div><br /><p><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;">हिन्दी ग़ज़लों में इस समय अच्छे रचनात्मक माहौल के साथ-साथ प्रयोगात्मकता भी बराबर देखी जा रही है। जहाँ कुछ ग़ज़लकार हिन्दी छन्दों में ग़ज़ल कहने का अभ्यास कर रहे हैं, वहीं कुछ तत्समनिष्ठ शब्दावली में ग़ज़ल वाली बात लाने के लिए प्रयासरत हैं। हालाँकि हिन्दी ग़ज़ल की भाषा हमारे देश और समय के आम आदमी की बोलचाल की भाषा सर्वमान्य है और छन्द भी फ़ारसी की बहरें लेकिन शिल्प, कथ्य और डिक्शन को लेकर प्रयोग लगातार होते रहने चाहिए। प्रयोग किसी भी विधा अथवा साहित्य के लिए कुछ न कुछ नवाचार की गुंजाइश पैदा करते हैं।</span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">जोधपुर (राज०) के छन्द शास्त्री और एक मधुर ग़ज़लकार भाई </span><b style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">महावीर सिंह 'दिवाकर'</b><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";"> अपनी ग़ज़लों में लगातार प्रयोग करते दिखते हैं। जोधपुर में निवास करते समय सालभर में इन्हें जानने का सुअवसर मुझे मिला है। उसी दरमियान ग़ज़ल के लिए इनकी दीवानगी और समर्पण ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। लगभग उसी समय से इनकी बहुत सादे अंदाज़ में कही गयी ग्रामीण परिवेश की ग़ज़लें मुझे इनका सबल पक्ष लगती रही हैं। लेकिन महावीर जी ने अपनी ग़ज़लों में लगातार सफल प्रयोग किये और हिन्दी ग़ज़ल के लिए बहुत सारी संभावनाएँ निर्मित कीं, जिन पर विस्तार से बात की जा सकती है।<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">फ़िलहाल हम उनके दूसरे प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह </span><b style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">पतवार तुम्हारी यादें </b><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">की चर्चा करेंगे। यह पुस्तक हिन्दी शिक्षण संस्थान, जोधपुर से वर्ष 2023 में आयी है। इसे राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा आंशिक सहयोग भी प्रदान किया गया है। संग्रह की एक ख़ास बात यह भी है कि अपने पहले संग्रह की तरह महावीर जी ने इसमें भी केवल फ़ेलुन के रुक्नों की बहरों यानी बह्रे-मीर पर आधारित ग़ज़लों को ही सम्मिलित किया है। इस तरह की बहरों में इन्हें आरम्भ से ही विशेष रूचि रही है। इस संग्रह में अनेक ऐसी ख़ासियतें हैं, जो ध्यान खींचती हैं। हम एक-एक कर कुछ बिंदुओं पर बात करते हैं।</span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">मुझे इनकी ग़ज़लों में कहन की सादगी सबसे बड़ी विशेषता हमेशा से नज़र आती रही है। ये बड़ी-बड़ी गूढ़ बातें बहुत सहजता के साथ सरसता बनाए रखते हुए कह जाते हैं। यह शायद इसलिए संभव हो कि इनका स्वभाव भी बहुत सरल और सादा है। घुमाव-फिराव या बनावट इनके व्यक्तित्व से बहुत दूर है। एक सामान्य नौकरीपेशा आदमी हैं, जिनके यहाँ साधारण भारतीय परिवार की झलक देखी जा सकती है। 'सादा जीवन, उच्च विचार' का सटीक उदाहरण है इनका परिवार। कुछ इसी कारण इनके शेर सरल और सहज होते हैं।</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">एक परेवा नभ पर है<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">जाग अहेरी अवसर है</span><br /></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #20124d;">******************</span></span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">नस्ल न देखो, रंग न देखो, जात न देखो यारी में<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">दिल को देखो, ओछी कोई बात न देखो यारी में</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">गर तेरा गुणगान न करता, गीत अपावन रह जाता<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">प्रेम न होता तुझसे तो सब वंदन-पूजन रह जाता<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">तेरी मीठी यादें मेरे जीवनभर की पूँजी हैं<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">मन-गुल्लक में इनको न भरता मैं तो निर्धन रह जाता</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">इनकी ग़ज़लों में भारतीय परिवेश उभरकर आता है। खैराड़ अंचल की उपज महावीर सिंह गाँव और ग्रामीण परिवेश से बहुत गहराई से जुड़े रहे हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नाते, उत्सव-त्योहार, संस्कार-सत्कार आदि इनकी ग़ज़लों में बहुत स्वाभाविकता के साथ बने रहते हैं। प्रकृति इनके यहाँ सहचर की भांति उपस्थित मिलती है। मंदिर, पूजन, पेड़-पंछी, रीति-रिवाज़, घर-आँगन ये सब इनकी ग़ज़लों में एक ऐसा परिवेश रचते हैं कि पढ़ते समय हमें अपने सदियों के परम्परागत जीवन की झलक साफ़-साफ़ दिखती है।</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">उजला-श्याम हमारे भीतर<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">रावण-राम हमारे भीतर<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">काशी-मथुरा, काबा-मक्का<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">चारों धाम हमारे भीतर</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">संभव है इस सच से ठेस लगे श्रद्धा को<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">बीत गया है राशन ही उपवास नहीं है</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">टूटा छप्पर, सर पर कर्ज़ा, तिस पर बड़की का गौना<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">है अम्बार समस्याओं का तू हल बनकर आना रामा</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">व्रत उपवास हुए दादी के साथ विदा|<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">त्योहारों पर रौनक छाई रहती थी</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">इनकी ग़ज़लों का शब्दकोश भी पाठक को बहुत अपनेपन का आभास कराता है। बहुत सामान्य शब्दावली में हमारे रोज़मर्रा के जीवन में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के साथ-साथ ठेठ ग्रामीण जीवन के शब्द तथा तद्भव-देशज शब्द इनकी ग़ज़लों में एक अलग ही मिठास पैदा करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसा ये बिलकुल भी जानबूझकर नहीं करते। स्वाभाविकता के साथ उपस्थित इस शब्दावली की नैसर्गिकता ही प्रभावित करती है। इनके ग़ज़ल सृजन की यह ख़ासियत इन्हें लोक सम्पृक्ता के पास लेकर जाती है।</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">मन में दबकर रह जाती हैं मन की बातें कितनी ही<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">तोरण-द्वारे से लौट आती हैं बारातें कितनी ही<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">पथराये नैनों में इक दिन जोत जगेगी दर्शन की<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">धूनी रमकर जाग रही हैं जोगन रातें कितनी ही</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">पीड़ा के परिणय में गीत-ग़ज़ल-कविता आये<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">पीहर की टोली भरने भावों का भात चली </span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"> </span><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">डोरा-टोना जंतर-तंतर कर दे कोई<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">पागल प्रेमी की गत बेह्तर कर दे कोई</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">जैसा मैंने ऊपर कहा कि प्रयोग हमेशा नवाचार की गुंजाइश पैदा करते हैं। महावीर जी के शिल्पगत से लेकर भाषागत प्रयोग इनकी ग़ज़लों में नव्यता की कई गुंजाइशें पैदा कराते हैं। ऊपर के एक शेर में आपने 'भावों का भात भरा जाना' पढ़ा। इन शेरों में 'आस पुराना', 'सोने के हथफूल और लाख का कंगन', 'मन से मन की छत का लगना' और 'ताक-धिना-धिन' पर ध्यान दीजिए। मुहावरे, प्रतीक, बिम्ब और तुक हर स्तर पर नवीनता दृष्टिगत होती है।</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">आस पुराओ मेरे अनुरागी मन की<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">इन नैनों को देकर दर्शन आ जाओ</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">नेह निवेदन ठुकरा देना<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">तुम मेरा मन ठुकरा देना<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">सोने के हथफूल मिले तो<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">लाख का कंगन ठुकरा देना</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">जोगन जैसी गत लागी<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">मुझको पी की लत लागी<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">एक हुए आँगन तन के<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">मन से मन की छत लागी</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">इस जीवन की ताक-धिना-धिन आधी<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">मैं तुझ बिन आधा तू मुझ बिन आधी</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">महावीर सिंह 'दिवाकर' जी के यहाँ अपना समय और उसका संगत-विसंगत पूरी धूमधाम के साथ पाया जाता है। अगर यह कहा जाए कि इनकी ग़ज़लगोई कल्पनाशीलता की बजाय यथार्थ में विचरती है तो ग़लत न होगा। जीवन का यथार्थ इनके यहाँ लगातार उपस्थित रहता है और कल्पना उतनी, जितना आटे में नमक। ये अपने समय के वर्तमान पर बारीक नज़र रखते हैं और उसे अपनी ग़ज़ल के शेरों में भी बड़ी समझदारी व ईमानदारी से दर्ज करते हैं।<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">नीचे के कुछ शेर देखिए, जो दुनिया, राजनीति तथा धर्म के अगुवाओं की सच्चाई सामने रखते हैं। फिर अंत के दो शेर आपसी सामंजस्य को बनाए रखने का आह्वान करते हैं। यहाँ इन शेरों में कटाक्ष भी है, जीवन दर्शन भी और जीवन का सच भी।</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">सच को सूली पर टांगा है इस दुनिया ने<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">राम के हिस्से किस युग में वनवास नहीं है<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">अधरों पर बंशी, उँगली में चक्र सुदर्शन<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">इक रण भी है जीवन केवल रास नहीं है</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">ख़्वाब उजाले का आधा ही रक्खा उसने<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">दीपक लाया साथ धुँआ भी लेकर आया</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">कर में माला घूम रही है<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">उर में माला घूम रही है</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">प्यार मिटा तो केवल हिंसा रह जाएगी<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">चीख़ रहा है पन्ना-पन्ना अख़बारों का</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">शर्बत जैसा मीठा होगा जीवन का हर पल<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">इक-दूजे में घुलकर हमको समरस होना है</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">इनके यहाँ प्रेम और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भी आपको भरपूर मिलेगा। पूर्ण समर्पण के बाद ही प्रेम का असली रूप खिलता है और पूर्ण प्रेम के बाद ही समर्पण उपजता है। कभी-कभी ईष्ट प्रेम में समाविष्ट हो जाता है। कुछ-कुछ ऐसा होता यहाँ दिखता है। यहाँ प्रेम अपने बहुत गाढ़े रूप में मौजूद है। गाढ़ा और परिपक्व प्रेम, जो केवल मौज के लिए नहीं बल्कि गुज़र-बसर के लिए ज़रूरी है। इनकी एक पूरी की पूरी ग़ज़ल 'रिमझिम तेरी मम्मी से' तो हमारे गृहस्थ जीवन की अद्भुत झाँकी बन पड़ी है। इस ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए पहले और फिर कुछ और शेर-</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">झगड़ा-गुस्सा और अदावत रिमझिम तेरी मम्मी से<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">करता हूँ मैं फिर भी मुहब्बत रिमझिम तेरी मम्मी से<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">तू भी ख़र्चीली, मैं भी ख़र्चीला उस पर वेतन कम<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">फिर भी अपने घर में बरकत रिमझिम तेरी मम्मी से<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">सुख का स्वाद बढ़ा देती है संगत तेरी मम्मी की<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">दुख में मिलती दिल को राहत रिमझिम तेरी मम्मी से</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">तूने छूकर चमकाया है<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">कंकर होकर इतराता हूँ</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">इक तेरे होने से पत्थर का परकोटा<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">एक मकान नहीं रहता घर हो जाता है</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">तेरे पथ की धूल मिले तो जीवन चमके<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">क्या करना है मुझको नभ के इन तारों का</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">इनके लेखन की एक विशेषता और मुझे प्रभावित करती है कि ये अपनी ग़ज़लों के मक़ते में तख़ल्लुस का बहुत अच्छा प्रयोग करते हैं। दिवाकर तख़ल्लुस अमूमन एक उम्मीद होता है और अनेक जगहों पर कटाक्ष लेकर आता है। कई जगहों पर ये श्लेष अलंकार की भी छटा बिखेरता दिखता है। इनके ऐसे ही कुछ मक़ते देखिए-</span></p><p><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">भिड़ जाता है अँधियारे से, आँधी से भी<br /></span></span><span style="font-family: "Yatra One";"><span style="color: #990000;">रातों में हर दीप, दिवाकर हो जाता है</span><br /></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">एक दिवाकर अम्बर पर है इक दीपक है धरती पर<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">दोनों जलते हैं फिर भी अँधियारे की है मात कहाँ<br /></span></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">यार दिवाकर ऐसा क्यों<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">जीत गयी शब, हारा दिन<br /></span></span><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">******************</span></p><p><span style="color: #990000;"><span style="font-family: "Yatra One";">दुष्ट दिवाकर खल कामी है इस जीवन में तो राघव<br /></span><span style="font-family: "Yatra One";">पिछले जन्मों के सत्कर्मों का फल बनकर आ रामा</span></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";">ग़ज़ल संग्रह <b>पतवार तुम्हारी यादें </b> हिन्दी भावधारा की बहुत अच्छी ग़ज़लों का संकलन बन पड़ा है। इसकी ग़ज़लों में बहुत-सी ऐसी विशेषताएँ हैं जो इसे एक संग्रहणीय संग्रह बनाती है तथा ग़ज़ल के अध्ययनकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर खींचती है। आशा है इस संग्रह को हिन्दी ग़ज़ल जगत और पाठक ज़रूर सराहेंगे।</span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /></span></p><p><span style="color: #20124d; font-family: "Yatra One";"><br /></span></p><p><span style="color: #990000; font-family: Laila;">समीक्ष्य पुस्तक- पतवार तुम्हारी यादें<br />विधा- ग़ज़ल<br />रचनाकार- महावीर सिंह 'दिवाकर'<br />प्रकाशन- हिन्दी शिक्षण संस्थान, जोधपुर<br />संस्करण- प्रथम, 2023<br />मूल्य- 250 रुपये (सज़िल्द)<br />पृष्ठ- 112</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-16144530026527871002023-11-03T00:15:00.004-07:002023-11-03T00:20:07.621-07:00बोलती-बतियाती ग़ज़लें: रौशनी है आपसे<p><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd8_am-Cz_V4IgXecUEepBWwJ4f17B5tHqYUjJJ93eoPM_6f6BCK30ohxb9t2viSilYYJK5o1x00U6VtTlm_AcU3HA8HLrSmmLVTtdWQVRxpGc4giEyUicML1lfrDUnXMGJqqGgf_VU8-5K3FHlc6gCGBJbXrne9iDlYTkRXwg1RuWVZU1ftYfqnBt1m0/s1600/WhatsApp%20Image%202023-11-03%20at%2012.39.05%20PM.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="995" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd8_am-Cz_V4IgXecUEepBWwJ4f17B5tHqYUjJJ93eoPM_6f6BCK30ohxb9t2viSilYYJK5o1x00U6VtTlm_AcU3HA8HLrSmmLVTtdWQVRxpGc4giEyUicML1lfrDUnXMGJqqGgf_VU8-5K3FHlc6gCGBJbXrne9iDlYTkRXwg1RuWVZU1ftYfqnBt1m0/w198-h320/WhatsApp%20Image%202023-11-03%20at%2012.39.05%20PM.jpeg" width="198" /></a></b></div><b><br /><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One; font-size: medium;">विज्ञान व्रत</span></b><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One; font-size: medium;"> हमारे समय की ग़ज़ल का एक सुपरिचित नाम हैं। पिछले कुछ दशकों में ये ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल को जिस तरह समृद्ध करते आये हैं, वह उल्लेखनीय है। ये एक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने अन्य ग़ज़लकारों की तरह एक लीक पर चलना न स्वीकार कर, अपनी ही एक अलग राह तलाश की और उस राह पर लगातार चलते रहने के कारण अपनी एक पहचान स्थापित की। आज विज्ञान व्रत को यदि छोटी बह्र की ग़ज़लगोई का दूसरा नाम कह दिया जाए तो यह कहीं ग़लत नहीं होगा। विभिन्न रुक्नों (मात्रा खण्डों) की अलग-अलग छोटी बह्रों को जिस तरह आपने साधा है, वह रोचक तो है ही, अद्भुत भी है।<br /><br /><b>श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली</b> से हाल ही में विज्ञान व्रत जी का नवीनतम ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है, <b>रौशनी है आपसे</b>। यह इनका तेरहवाँ ग़ज़ल संग्रह है। कुल 85 ग़ज़लों से सुशोभित इस संग्रह में वही विज्ञान व्रत वाली छाप हर जगह मौजूद है। पुस्तक में संकलित सभी ग़ज़लें छोटी बह्रों ही में हैं। ग़ज़लों के अलावा पुस्तक में इनके बनाए रेखाचित्र भी शामिल हैं। जैसा कि ग़ज़ल से परिचित अधिकतर लोग जानते ही हैं कि विज्ञान व्रत जी अपनी ग़ज़लों के साथ-साथ अपनी चित्रकारी से भी देश-विदेश में अपनी पहचान रखते हैं।<br /><br />इस संग्रह की ग़ज़लों की बात करें तो सबसे पहली जिज्ञासा यही उठती है कि छोटी बह्र में आख़िर किस तरह कोई लगातार ग़ज़लें कह सकता है! और केवल ग़ज़लें कहता ही नहीं बल्कि पूरी ग़ज़लियत के साथ बेह्तरीन ग़ज़लगोई करता है लेकिन इस बेहद मुश्किल काम को अंजाम देकर ही तो विज्ञान व्रत जी, 'विज्ञान व्रत' होते हैं। आज जहाँ अनेक ग़ज़लकार छोटी और छोटी से छोटी बह्रों में ग़ज़लें कहते हुए बस भर्ती की ग़ज़लें या शेर कहते दिखते हैं, वहीं विज्ञान व्रत जी ने अपने लेखन को इस तरह साधा है कि पाठक उन्हें दशकों से चाव के साथ पढ़ते आ रहे हैं। छोटी से छोटी बह्र में ग़ज़लियत को किस तरह बरक़रार रखा जाता है, यह सीखने के लिए इनसे बेह्तर शायद ही कोई ग़ज़लकार मिले। भरपूर ग़ज़लियत के इनके कुछ शेर देखिए-</span><span style="font-size: medium;"><br /><br /><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">लोग थे जिस रास्ते<br />क्या वही था रास्ता</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">आप नहीं कह पाएँगे<br />सबकुछ सच ही कहना है<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;">****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">घर का अर्थ बताएगा<br />वो जो अब तक बेघर है<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;">****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">ज़िंदगी भर मैं चला<br />तब कहीं रस्ता बना</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />इस संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए ऐसे अनेक शेर अपनी ओर ध्यान खींचते हैं, जिनमें रहस्यवाद की भावना समाहित दिखती है। प्रतीकात्मकता के साथ बात कहना तो हालाँकि ग़ज़ल का मुख्य आकर्षण रहा ही है लेकिन इनके पास जो रहस्यवाद मिलता है, वह काफ़ी कुछ सूफ़ीवाद से प्रभावित नज़र आता है। प्रेम और उस प्रेम के प्रति इतना समर्पण कि वह ईश्वर तक एकाकार हो उठे, यहाँ भरपूर मिलता है। यहाँ लौकिक प्रेम भी है लेकिन बहुत कम, अलौकिक प्रेम की प्रचुरता है। और इस सबमें जो समर्पण की भावना है, वह ग़ज़ब की है।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">तुमसे क्या पहचान हुई<br />दुनिया ही अनजान हुई<br />तुमने मेरा हाथ गहा<br />राह तभी आसान हुई</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">आप मिले तो समझा मैं<br />आया एक ख़ज़ाने तक<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;">****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">देखता हूँ अब जिधर<br />है अजब तुम हो वहाँ<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;">****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">जो नहीं सबको मयस्सर<br />बस वही अह्सास हो तुम<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />इस समर्पित प्रेम और रहस्यवादिता में एक अलग ही तरह का विरोधाभास देखने को मिलता है, जो रचनाकार तथा उसके इष्ट को विशेष बनाता है। दोनों मिस्रों में एक-दूसरे से बिलकुल उलट भाव लिए शेर के जो अर्थ खुलते हैं, वे उलटबासियों तक पहुँचते दिखते हैं। यहाँ विरोधाभास अलंकार की छटा देखने योग्य है। कुछ शेर देखें-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">ठहरे हो तुम क़तरे में<br />लेकिन सागर दिखते हो</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">चित्र जो तेरा रहा<br />क्यूँ उसी में तू न था</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">हर जगह मुझको मिले तुम<br />क्यूँ नहीं फिर भी दिखे तुम</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /> <br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">पास मेरे जब रहे तुम<br />दूर क्यूँ सबको दिखे तुम</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">जो पता सब जानते थे<br />मैं वहाँ रहता नहीं था</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">यह ग़ज़ब कैसे हुआ<br />सुन सका मैं अनकहा</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">जब-जब मैं ख़ामोश हुआ<br />दुनिया भर में शोर मचा</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />दुनिया और उसकी हक़ीक़त की तहें भी आपको इस संग्रह की ग़ज़लों में खुलती दिखेंगी। विज्ञान व्रत जी अनुभव-संपन्न तो हैं ही, बारीकी से देखने-मेह्ससूने वाले रचनाकार भी हैं इसलिए अपने इर्द-गिर्द संसार के भीतर-बाहर वे वह सबकुछ देख आते हैं, जो एक सामान्य इंसान नहीं देख पाता। फिर चाहे खून-ख़राबे के मंज़र हों या इंसान का दूसरे इंसान से उपजा डर। थोथी-शान और दिखावा हो या संसार के भीतर छिपे अनेक संसार हों, वे हर जगह की थाह रखते हैं और बड़ी ख़ूबसूरती से उसे अपने शेर में पिरोकर उद्घाटित भी कर देते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">बाहर तो डर ही डर है<br />ख़ुद में रहना बेह्तर है</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">खून-ख़राबे का मंज़र है<br />किसकी ज़द में दुनिया भर है<br />डर लगता है सबको सबसे<br />सबका अपना-अपना डर है</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">मिलना एक बहाना था<br />उसको शान दिखाना था<br />ऐसे वैसे से भी<br />उसको नाम कमाना था<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;">****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">सोचना कुछ भी नहीं क्या<br />जो सुना बस कह दिया वो</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">मैंने दुनिया देखी है<br />इसमें है संसार कई</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />इस संग्रह की ग़ज़लों में हैरानी भरे अनेक प्रश्न भी मिलते हैं। ये प्रश्न अपने आसपास की घटनाओं की उपज भी हैं तथा अपने ही भीतर हुई किसी हलचल का नतीजा भी। प्रश्न या हैरानी तब जन्मती है, जब हमारे आसपास वैसा न हो, जैसा होना हो बल्कि कुछ ऐसा हो, जिसकी उम्मीद न की गयी हो। आज का दौर ऐसी घटनाओं अथवा हलचलों से भरा पड़ा है। आज हम भीतर-बाहर हर जगह ही तो ऐसा बहुत कुछ देख रहे हैं। ऐसे में रचनाकार के ये प्रश्न/ हैरानी हम तक बहुत सहजता से पहुँचती है और हमारे भीतर के प्रश्नों तथा हैरानियों से एकाकार हो उठती है।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">दुश्मनी ही दुश्मनी<br />दोस्ती का क्या हुआ</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">गर ख़ुशी मह्सूस की<br />क्यूँ न चेहरे पर दिखी</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">देखकर उस मसखरे को<br />आपका दिल रो पड़े तो</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">इस बस्ती के सब लोगों में<br />उसका चेहरा क्यूँ दिखता है</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />विज्ञान व्रत जी की ग़ज़लें बहुत सादगी और सरलता लिए हुए होती हैं लेकिन उतने ही गहरे व गंभीर भाव अपने भीतर लिए रहती हैं। यही विशेषता इस संग्रह की ग़ज़लों की भी है। ये सभी ग़ज़लें हमसे बोलती-बतियाती हैं। भाषा इनकी सरल-सहज आम बोलचाल की ही है, जिसमें न उर्दू का गाढ़ापन देखने को मिलता है, न हिन्दी की संस्कृतनिष्ठता। वर्तमान समय का एक साधारण इंसान जिस भाषा का इस्तेमाल करता है, वही इन ग़ज़लों की भी भाषा है। निश्चित रूप से यह एक पठनीय संग्रह है।<br /><br /><br /><br /><span>समीक्ष्य पुस्तक- रौशनी है आपसे<br />विधा- ग़ज़ल (हिन्दी)<br />रचनाकार- विज्ञान व्रत<br />प्रकाशन- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली<br />संस्करण- प्रथम, 2023<br />पृष्ठ- 128<br />मूल्य- 200/- (सज़िल्द)</span></span></span><p></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-65728700569568991692023-10-29T23:07:00.002-07:002023-10-29T23:08:12.000-07:00यथार्थ की ज़मीन पर संवेदनाओं की फ़सल उगाने वाले ग़ज़लकार हैं ज्ञानेंद्र मोहन 'ज्ञान'<div><p></p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWu7-nDD133AnrfN7rClJuZWwYiPqrvThZwzbuX3nrxQe_qJVQcMFSviCWdbOHYVVj-5wMvAVFXHBenIPkZUH_vgDvasf1PascWUhxOr_iX7miQbYYSP_NJFB4xyros810T-GrX_r3NOq_17v7uq49eW6_Czr79LDTVetn7OOMP5wsC3NxKLIngDYwqMc/s960/aakhir_kaise_hal_niklega.jpeg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="605" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWu7-nDD133AnrfN7rClJuZWwYiPqrvThZwzbuX3nrxQe_qJVQcMFSviCWdbOHYVVj-5wMvAVFXHBenIPkZUH_vgDvasf1PascWUhxOr_iX7miQbYYSP_NJFB4xyros810T-GrX_r3NOq_17v7uq49eW6_Czr79LDTVetn7OOMP5wsC3NxKLIngDYwqMc/w126-h200/aakhir_kaise_hal_niklega.jpeg" width="126" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"></td></tr></tbody></table></div><p></p><p><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">वर्तमान ग़ज़ल अपने आप में विषयों का एक संसार समेटे है। अब ग़ज़ल के कथ्य में समाज की चिंताएँ, उसकी विसंगतियाँ, उत्सव, अवसर और आम जीवन से जुड़ी तमाम बारीक़ संवेदनाओं की बुनावट देखने को मिलती है। ग़ज़ल जितना आम इंसान के क़रीब आती जा रही है, उतना ही उसका फ़लक विस्तृत होता जा रहा है। आज देशभर में अनगिनत ग़ज़लकार ग़ज़ल विधा की साज-सँवार में लगे हैं। एक ग़ज़लकार जब ग़ज़ल की बुनावट को समझ लेता है तब उसकी ग़ज़लों का रूप निखर आ जाता है।</span></p><p><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान' की ये इक्यावन ग़ज़लें ग़ज़ल की बनावट और बुनावट को समझने की एक कोशिश है। इन ग़ज़लों में ज्ञानेन्द्र जी के ग़ज़लकार का एक स्वरूप निकलकर आ रहा है कि वे ग़ज़ल के ज़रिये यथार्थ की ज़मीन पर संवेदनाओं की फ़सल उगाने वाले ग़ज़लकार हैं। इनके पास दुनिया और समाज को देखने-जीने का विशिष्ट दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण अनुभवजनित है। निर्मित किया गया है। जिसके लिए खाद का काम करता है इनका चिंतन। इस दृष्टिकोण के बूते वे अनेक शेर कहते हैं, जो केवल शेर नहीं, मार्गदर्शक की भूमिका में भी दिखते हैं। ये नसीहत के शेर हैं।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">होकर उतावले न कोई फैसला करें<br />हर बात ख़ूब सोच-समझकर कहा करें<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">ये समझ ले जूझना तुझको पड़ेगा रात-दिन<br />रास्ता अपना अगर आसान करना है तुझे<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">अगर मसअला भाइयों में फँसा हो<br />लहू को कभी भी उबलने न देना<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />इनकी रचनाओं में आज के परिवेश की संवेदनाएँ गुँथी हुई मिलती हैं। इनके पास सरोकार हैं, जो एक रचनाकार को समाज के प्रति ज़िम्मेदार बनाते हैं। समाज और उसकी चिंताएँ ज्ञानेन्द्र मोहन जी की रचनाओं में रचे बसे हैं। यथार्थ इनकी रचनाओं का केन्द्र है और यह यथार्थ अनुभव की आँच में तपकर खरे-खरे शेरों की निर्मिती करता है।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">नज़र है जिस्म पर दिल से मुहब्बत कौन करता है<br />बताओ तो हमें सच्ची इबादत कौन करता है</span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">'निकालो काम अपना और फेंको' का चलन है अब<br />बिगड़ जाने पे चीज़ों की मरम्मत कौन करता है<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">हम सबके बीच रहती थी इंसानियत कभी<br />आख़िर गयी कहाँ है चलो कुछ पता करें<br /><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">****************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">ज़ेह्न से जो आदमी बीमार है<br />कुछ भी समझाना उसे बेकार है<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />इनकी ग़ज़लों में सियासत की समझ है। वे अपनी इस समझ के ज़रिये ऐसे अनेक शेर कहते हैं, जो पाठकों के ज़ेहन पर जमी गर्द हटाने का काम करते हैं। इनके यहाँ सौहार्द की भावना और आपसी सद्भाव का समर्थन मिलता है। यानी ज्ञानेन्द्र मोहन जी का ग़ज़लकार समाज की ज़िम्मेदारियों के प्रति सजग है। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने पाठकों को हर उस पहलू से अवगत करवाना चाहता है, जिसकी उनके जीवन में ख़ास अहमियत है।<br /><br />इक्यावन ग़ज़लों का इनका यह संग्रह 'आख़िर कैसे हल निकलेगा' इनकी ग़ज़ल यात्रा का दूसरा संकलन है। इससे पूर्व 2018 में हिंदी भाषा साहित्य परिषद खगड़िया द्वारा प्रकाशित इनकी 100 ग़ज़लों का संग्रह 'और कब तक' भी पाठकों द्वारा सराहा गया। इनकी सजग दृष्टि देखते हुए इनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में ये ग़ज़ल और ख़ासकर हिन्दी ग़ज़ल के लाडले ग़ज़लकारों में शुमार हो सकते हैं। इनके पास प्रतिभा है, उस प्रतिभा की समझ है, ज़िम्मेदारी है। आशा है ये सही दिशा में ईमानदारी, मेहनत और लगन से उत्तरोत्तर आगे बढ़ते रहेंगे और अपनी जगह बनायेंगे।<br /><br />- के. पी. अनमोल</span></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisZVcb2K_JCsrkQ4UF7bI6G-xulXKQ-tSd0ZpfsXaHakVKib9_BWv393Be3WFMWLhG-ZmmCMLfbwY3gzuKDGGy2W9_uLaOEmzXXIzmXhG6ZO8hYIvXPihsDn-wBb9X6M3RyCtRs7cSoiiDi57CWrGtuS8sRpW6ym570Lhmeesa6dopZOb1I-Vwk72rv2Y/s960/aakhir_kaise_bhumika.jpeg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="569" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisZVcb2K_JCsrkQ4UF7bI6G-xulXKQ-tSd0ZpfsXaHakVKib9_BWv393Be3WFMWLhG-ZmmCMLfbwY3gzuKDGGy2W9_uLaOEmzXXIzmXhG6ZO8hYIvXPihsDn-wBb9X6M3RyCtRs7cSoiiDi57CWrGtuS8sRpW6ym570Lhmeesa6dopZOb1I-Vwk72rv2Y/w190-h320/aakhir_kaise_bhumika.jpeg" width="190" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8ivBSR4Uk4Yn5ZRZ2ODV6eB62SmyZasXsB2PWTmh0sBJrs5WMXpT2X8ltG0oZREZ6DuXOdOJNeSw4VlyChMpOuAtcEjQXfkMaddEbY4mA1gfSDa_MVV_7xxz5I0z6kK74lIZVeiMMwfMjXjZgmisl6s1o1X_YxG2TVq61N3h_aK41UbbFZlFsowB0DzY/s960/aakhir_kaise_bhumika2.jpeg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="573" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8ivBSR4Uk4Yn5ZRZ2ODV6eB62SmyZasXsB2PWTmh0sBJrs5WMXpT2X8ltG0oZREZ6DuXOdOJNeSw4VlyChMpOuAtcEjQXfkMaddEbY4mA1gfSDa_MVV_7xxz5I0z6kK74lIZVeiMMwfMjXjZgmisl6s1o1X_YxG2TVq61N3h_aK41UbbFZlFsowB0DzY/w190-h320/aakhir_kaise_bhumika2.jpeg" width="190" /></a></p><p></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-40035884225565932612023-10-02T21:07:00.004-07:002023-10-02T21:07:45.312-07:00अपने समय में रहते हुए कविता रचते हैं मनोज 'अह्सास'<p><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1DnXGKVFPvtP_vA5cDOyo8A7lBFfGHHlF8IJw1iQ-4N5-d7KA04E-3HSyi0Lp66CqbkZ4iFEpDPPc9xRV7JyUwWdONQotbnV0eQqfygBw0zenePc9jCxaIPaUx7PIHO57VOh3X2Opx-Qt5m-mStL-nn2yNQILPp69g8N8P_y4sclJR_n8BTW4y9P4Jiw/s719/rachna%20ka%20ahsaas_manoj%20ahsaas.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="520" data-original-width="719" height="144" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1DnXGKVFPvtP_vA5cDOyo8A7lBFfGHHlF8IJw1iQ-4N5-d7KA04E-3HSyi0Lp66CqbkZ4iFEpDPPc9xRV7JyUwWdONQotbnV0eQqfygBw0zenePc9jCxaIPaUx7PIHO57VOh3X2Opx-Qt5m-mStL-nn2yNQILPp69g8N8P_y4sclJR_n8BTW4y9P4Jiw/w200-h144/rachna%20ka%20ahsaas_manoj%20ahsaas.jpeg" width="200" /></a></b></div><b><br /> </b><p></p><p><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><b>मनोज 'अह्सास'</b> संभावनाशील रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में ग़मों से बेकल आह है तो ख़ुशियों में मस्त वाह भी। स्व से जुड़ी अनुभूतियों का गान है तो समाज की पीड़ा का स्वर भी। ये अपने समय में रहते हुए कविता रचते हैं, जो विभिन्न सरोकारों से लैस है। कहन में भी कहीं-कहीं वे अलहदा होते नज़र आते हैं। आसपास के परिवेश के विभिन्न कथ्यों को अपनी शैली में अभिव्यक्त करने का गुण, एक रचनाकार को औरों से अलग खड़ा करता है और यह सामर्थ्य मनोज 'अह्सास' के पास है। जब वे आँखें तरेर कर अपने हक़ की बात करते हैं तो बदलाव की एक सम्भावना झलकती है-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">मेरी भूखी निगाहों में शराफ़त ढूँढने वाले<br />तेरी सोने की थाली में मेरे हक़ के निवाले हैं</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />वे जब समाज में व्याप्त असमानता का ज़िक्र करते हैं तो तंज़ केवल हमारे सामाजिक ढर्रे तक सीमित नहीं रहता बल्कि उस सर्वशक्तिमान सत्ता तक जाता है, जो समग्र सृष्टि को संचालित करता है-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">किसी के हाथ में चुभती है चाँदी<br />किसी के हाथ में चिमटा नहीं है</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />इस शेर में तुलना नहीं है, टीस है। यही टीस इस शेर की मज़बूती है।<br /><br />इन्हें अपने पैरों के नीचे की ज़मीन का अह्सास है। ये बा-ख़ूबी जानते हैं कि वे जिस छत की छाँव तले महफूज़ हैं, उसका आधार क्या है। उस छत के एवज़ में किसने अपनी उम्र धूप के नाम कर दी है-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">कैसे आया है मेरे सर पे ये छप्पर देखो<br />मेरे पापा की हथेली को भी पढ़कर देखो</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />वे अपनी ग़ज़लों में शब्दों का तिलिस्म नहीं रचते। इनकी ग़ज़लों का कथ्य हमारे आसपास ही बिखरा है, जो ज़मीनी सच लिए हुए है। कोई भी रचनाकार कल्पनाओं के कितने ही वैभवशाली गुम्बद रच ले, लेकिन इमारत की नींव यथार्थ का पत्थर ही होता है और यथार्थ के बिना उस इमारत यानी रचना का कोई वजूद नहीं। यथार्थ के साथ कल्पना का समिश्रण लिए सार्थक सन्देश देती रचना ही देर तक और दूर तक असर करती है।<br /><br />मनोज एह्सास ग़ज़ल को साधते हुए आम आदमी के दर्द की बात करते हैं। उसकी ज़रूरतों की, उसकी चाह की बात करते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">उस आदमी से पूछिए जीने का फ़लसफ़ा<br />जिसको सुलगते दर्द में गाने का शौक़ है</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />'सुलगते दर्द में गाने का शौक़' ही ज़िन्दगी की वास्तविक परिभाषा गढ़ सकता है। जिसने दर्द को नहीं गाया, वह भला ज़िन्दगी की क्या व्याख्या कर पायेगा। जीने और ज़िन्दा रहने के बीच के फ़र्क को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">ख़ुद के जैसा रह न पाये और ज़िन्दा भी रहे<br />इससे ज़्यादा चोट क्या है आदमी की ज़ात को</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br /><br />वे अपने लेखन में हौसलों, जज़्बों और ज़िद की बातें करते हैं। बातें क्या करते हैं, इस बहाने वे हारे हुए बाजुओं में जान फूँकते हैं। एक रचनाकार का काम ही निराश मन को आस देना होता है। लाख मुश्किलें हों, अँधेरे हों लेकिन आस बची रहनी चाहिए। यह वह नाव है, जो भयंकर तूफ़ान के बीच दरिया पार करने का दम-ख़म रखती है। इस बाबत देखिए इनके अशआर क्या कहते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">मैं दसरथ माँझी का किस्सा भी इस मिसरे में कहता हूँ<br />किसी की ज़िद के आगे नूर का रस्ता निकल आया</span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />**************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;">ख़ुदा की दुनिया में क्या-क्या नहीं है<br />हमारी आस को ख़तरा नहीं है<br /></span><span style="color: #20124d; font-family: Yatra One;"><br />ग़ज़लों के साथ-साथ नज़्म और कविताओं में भी मनोज 'अह्सास' सरोकारों से लैस रहते हैं। वे अपनी कविताओं में स्त्री, पिता, बेटी आदि के अह्सास उकेरते दिखते हैं। समय के साथ रिश्तों में किस प्रकार स्वार्थ का घालमेल हुआ है, दोस्ती के माध्यम से एक कविता में समझाते हैं। इनकी कविताओं में प्रेम की मधुर स्मृतियों का गान है, जो मुग्ध करता है। एक कविता में वे कविता के कथ्य को गूढ़ बना दिए जाने पर अपने विचार रखते हुए समझाते हैं कि काव्य में केवल विद्वता का प्रदर्शन कविता को आम आदमी से दूर ले जाता है। यानी वे कविता के कथ्य को लेकर पूरी तरह सचेत हैं। यह चेतना हर एक रचनाकार की रचनाधर्मिता के लिए ज़रूरी है।<br /><br />28 ग़ज़लों, 19 नज़्मों एवं कविताओं के साथ प्रस्तुत पुस्तक में ग़ज़ल के व्याकरण पर एक आधारभूत लेख भी शामिल है, जो ग़ज़ल सीखने के लिए उत्सुक युवा रचनाकारों के लिए उपयोगी होगा। मनोज जी इसमें मात्रा गणना, तक्तीअ, बह्र निर्माण के साथ अच्छी ग़ज़ल के लिए कुछ ज़रूरी बातों का उल्लेख करते हैं। साथ ही ग़ज़ल लेखन के लिए उपयोगी व्याकरण की पुस्तकों की जानकारी भी साझा करते हैं।<br /><br />अपनी पहली पुस्तक के ज़रिये पाठकों तक पहुँचते मनोज 'अह्सास', साहित्यिक हृदयों में अपनी उपस्थिति का अह्सास करवाएँगे, ऐसा विश्वास है। इन्हें शुभकामनाएँ।</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-48031615330030629542023-10-02T20:47:00.001-07:002023-10-02T20:47:39.752-07:00कहन में पैनी धार लिए हैं चित्रांश खरे की ग़ज़लें<p></p><p></p><p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvJoMIEQJxf1enI8rVEBPBh6hdHhPkbO04QshlzOERJ4iMLexBrd_JremIogv7UuC5JcHWHDYpx6b3Hy1ZmtH4be5LImoxhJFfTRnTlPDUg2O8tB2785D8QTRAlF_BYKNncoHVoHjy9D2AvtWVQ5GnX0zLoGfrXYqcyGnVssal2E3c15sgVyy3etgdVIg/s720/aawaz%20ki%20taasir_chitransh%20khare.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="542" data-original-width="720" height="151" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvJoMIEQJxf1enI8rVEBPBh6hdHhPkbO04QshlzOERJ4iMLexBrd_JremIogv7UuC5JcHWHDYpx6b3Hy1ZmtH4be5LImoxhJFfTRnTlPDUg2O8tB2785D8QTRAlF_BYKNncoHVoHjy9D2AvtWVQ5GnX0zLoGfrXYqcyGnVssal2E3c15sgVyy3etgdVIg/w200-h151/aawaz%20ki%20taasir_chitransh%20khare.jpeg" width="200" /></a></div><br /><span style="font-family: Yatra One;"><br /><span style="color: #20124d;">चित्रांश खरे पारम्परिक शायरी का एक नया नाम हैं। इनकी शायरी इश्क़ और इश्किया अहसासों की दुनिया के इर्द-गिर्द अपना आशियाना बनाती है। रिवायती और नज़ाकत भरे लहजे की इनकी शायरी में इनका कहन धारदार मालूम पड़ता है। यानी यह आभास होता है कि शुरुआती दौर से आगे निकलने के बाद जब यह शायर अपने आसपास और जीवन की जद्दोजहद देखना शुरू करेगा तो इसकी शायरी का रंग निखर कर आएगा। कुछ अलग करने, एक अलग मक़ाम तलाशने की छटपटाहट इनके पास देखी जा सकती है। यही छटपटाहट ही इनकी शायरी को एक अलग मेआर पर लेकर जाएगी।<br /><br />चित्रांश की मौजूदा शायरी में इश्क़ का गाढ़ा रंग देखने को मिलता है। यह रंग वस्ल (मिलन) और हिज़्र (बिछड़न) दोनों पहलुओं का रंग है। इनकी शायरी में अपने मेहबूब को पाने की तड़प है तो उसे हासिल न कर पाने का मलाल भी है। उस पर बेइन्तिहा यकीन भी है और मजबूरियों का ख़याल भी है। उसकी ख़ातिर दुनिया से टकरा जाने का हौसला भी है तो ज़माने भर की उलझनों का अहसास भी है। यानी इनकी शायरी कशमकश की शायरी है।<br /><br /></span><span style="color: #990000;">अपना क़िस्सा भी दिवानों को सुनाया जाता<br />तुम अगर इश्क़ निभाते तो मज़ा आ जाता<br /></span><span style="color: #20124d;">***************<br /><br /></span><span style="color: #990000;">ये तसव्वुर ही मुहब्बत में कहाँ था मुझको<br />वो चला जाएगा धड़कन की रवानी लेकर</span><span style="color: #20124d;"><br />***************<br /><br /></span><span style="color: #990000;">तुम्हारे हाथ पर मेहँदी से मेरा नाम लिक्खा है<br />मुहब्बत का पता देने का ये अंदाज़ अच्छा है</span><span style="color: #20124d;"><br /><br />इनकी ग़ज़लों में कहीं-कहीं इनका बात रखने का तरीक़ा बहुत प्रभावी हो उठता है। शब्दों को बरतने का हुनर इनके पास दिखाई देता है। यही हुनर इनकी कहन की धार को पैनी करता है। ये जानते हैं कि कहीं-कहीं लफ़्ज़ों से तलवार का काम भी निकाला जा सकता है-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">लफ़्ज़ जब फूल से तलवार हो गये होंगे<br />और पहले से असरदार हो गये होंगे</span><span style="color: #20124d;"><br /><br />इसी तरह धारदार कहन का एक यह शेर भी, जो व्यंग्यात्मक शैली में बात करता है-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">मैं बयानों की हक़ीक़त से बहुत वाक़िफ़ हूँ<br />मुझको जुगनू के उजालों पे हँसी आती है</span><span style="color: #20124d;"><br /><br />समाज और सामाजिकता से बहुत अधिक समय तक न इंसान अलग रह सकता है, न कविता। जैसे-जैसे रचनाकार दुनिया में अपने हिस्से के अनुभव बटोरता जाता है, वैसे-वैसे वह दार्शनिकता और यथार्थ से दो-चार होता जाता है। इसी का नतीजा होता है काव्य में समाज की उपस्थिति। चित्रांश की ग़ज़लों में जहाँ कहीं सामाजिक सरोकार देखे गये, वहाँ ये बहुत प्रभाव छोड़ते नज़र आये। यहाँ ये अपने पारम्परिक लहजे से बहुत अलग नज़र आते हैं।<br /><br /></span><span style="color: #990000;">हालत हमारे गाँव की अब तक ख़राब है<br />पढ़-लिख गये जो लोग तो शहरों में आ गये</span><span style="color: #20124d;"><br />***************<br /><br /></span><span style="color: #990000;">अब गुनाहगार को बरसों सज़ा नहीं मिलती<br />बेगुनाहों को अदालत बहुत सताती है</span><span style="color: #20124d;"><br />***************<br /><br /></span><span style="color: #990000;">ज़रा-सी फ़िक्र को तब्दील हम भी कर लेते<br />तो आज मुल्क की किस्मत संवर गयी होती</span><span style="color: #20124d;"><br /><br />यह महत्त्वपूर्ण है कि इनकी ग़ज़लें ग़ज़लियत और ग़ज़ल की सॉफ्टनेस को बरक़रार रखे हुए हैं। सधे हुए अंदाज़ में ये प्रभावी सम्प्रेषण के साथ अपने शेर कहते हैं। कविता में सम्प्रेषण का विशेष महत्त्व होता है। इनकी ग़ज़लों की भाषा की बात करें तो हम पाते हैं कि उर्दू-हिन्दी मिश्रित शब्दावली होने के बावजूद ये न उर्दू के बहुत मुश्किल अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं, न हिन्दी के बहुत भारी शब्द। यानी ये जानते हैं कि शायरी आम जनमानस की आम बातचीत की भाषा में ही अपना असर छोडती है। शायद इसीलिए इनकी शायरी असर छोड़ती भी है।</span></span><p></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-19024985653326492862023-09-15T21:49:00.001-07:002023-09-15T21:49:27.392-07:00सहज-सरल कहन में अच्छी ग़ज़लें लिए है 'शरद की धूप'<p><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnthnwlKAfILqYt6-DZQpAGhGYk-PxszCKasbd1Y_UjAyRn_Nrq81-sYftg8SSzvWsHLRs6MEko2mLrcLfKQgSbCSnMktxar4zdqkxos-uCJfp6E7GiMppMfCdv0eBVN6gpWhNTSaK0VGt9B0KWLNCzHaSEVzHV-OwooejeufNEPi6KAsV5PF7XvoLUYA/s720/sharad%20ki%20dhoop.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="392" data-original-width="720" height="174" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnthnwlKAfILqYt6-DZQpAGhGYk-PxszCKasbd1Y_UjAyRn_Nrq81-sYftg8SSzvWsHLRs6MEko2mLrcLfKQgSbCSnMktxar4zdqkxos-uCJfp6E7GiMppMfCdv0eBVN6gpWhNTSaK0VGt9B0KWLNCzHaSEVzHV-OwooejeufNEPi6KAsV5PF7XvoLUYA/s320/sharad%20ki%20dhoop.jpeg" width="320" /></a></div><br /><b> </b><p></p><p><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><b> </b></span></p><p><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><b>शरद की धूप</b> युवा ग़ज़लकार <b>प्रवीण पारीक 'अंशु'</b> का पहला प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। आप हरियाणा के सिरसा ज़िले के ऐलनाबाद क़स्बे के निवासी हैं। प्रवीण पारीक जी काफ़ी समय से ग़ज़ल लेखन में सक्रीय हैं। यह संग्रह हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित हुआ है।<br />प्रवीण पारीक का ग़ज़ल लेखन अभी आरंभिक स्थिति में है लेकिन यह आरम्भ अच्छा और सधा हुआ है। इनके ग़ज़ल लेखन में सहजता और सरलता है। विषयों की व्यापकता है। स्व भी है और सर्व भी। भाषा एवं परिवेश के आधार पर यह संग्रह हिंदी की ग़ज़लधर्मिता के बहुत नज़दीक है।<br /><br />रचनाकार प्रवीण पारीक जी की ग़ज़लों में आशावादिता प्रभावित करती है। एक रचनाकार अपने समय और समाज को तमाम नकारात्मकताओं के बीच सकारात्मक ऊर्जा देता रहे, यह बहुत ज़रूरी है। इधर आज का आम आदमी राजनीति से लेकर अपने आसपास हर तरफ ऐसी अनेकानेक बातों से घिरा हुआ है कि हताशा से वो लगातार दो-चार होता रहता है। ऐसे में ज़रूरी है कि कोई उसकी आँखों के आगे छाती हुई निराशा की धुंध को हटाता रहे, उसे हौसला देता रहे, उसे कुछ कर गुज़रने के लिए बराबर प्रोत्साहित करता रहे। ग़ज़लकार प्रवीण पारीक अपने शेरों के ज़रिए यह काम करते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">तुझे आगे बढ़ने से जो रोकता है<br />वो डर तेरा अपना बनाया हुआ है<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">उसके सपने कब पूरे हो पाते हैं<br />जिसने अपने जीवन में आराम लिखा</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">मुकद्दर का सहारा तो यहाँ नादान लेते हैं<br />वही कुछ कर गुज़रते हैं जो मन में ठान लेते हैं</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />प्रवीण पारीक कल्पना लोक में विचरने वाले रचनाकार न होकर अपने समय में मौजूद रहने वाले क़लमकार हैं। पाठकों को इनकी ग़ज़लों में वर्तमान जीवन का यथार्थ हमेशा दिखाई देता है। सत्ता की निरंकुशता, राजनीतिक छल-छद्म, नैतिक रूप से समाज का पतन, मूल्यों का ह्रास, मज़दूरवर्ग की विवशता जैसे महत्त्वपूर्ण विषय इनकी रचनाओं में आकर हमें लगातार सजग करते हैं। इनकी ग़ज़लों की यह एक बड़ी विशेषता है कि उनमें हमेशा एक सामान्य आदमी केंद्र में रहता है। दिए गये शेरों में अंतिम तीन शेर एक ग़ज़ल से हैं, जो पूरी ही ग़ज़ल एक मज़दूर के जीवन पर केंद्रित है। इस ग़ज़ल में हमें हमारे देश के एक साधारण आदमी के जीवन का अधिकतर संघर्ष दिखाई दे जाता है। इनकी रचनात्मकता का यह ज़मीनी जुड़ाव इन्हें प्रभावी रचनाकार बनाता है-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">सरकारी फ़रमान निकलने वाला है<br />साँसों पर जी०एस०टी० लगने वाला है</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">बड़े बाबू ने झट से पास कर दी 'लोन' की फ़ाइल<br />लगा था क्या, फ़क़त थोड़ी मिठाई, चाय की प्याली<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">सच्चाई की जब भी गवाही देनी थी<br />जाने क्यूँ तब सबके मुँह पर ताले थे<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">कहने को तो सब कहते हैं, नेकी कर दरिया में डाल<br />इतना भी अब कौन भला है, कहने भर की बातें हैं</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">मुश्किल से दिखता हूँ इतना छोटा हूँ<br />महलों में जोड़े पत्थर का टुकड़ा हूँ<br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">बोझा ढो कर कंधे टूटे हैं फिर भी<br />अपने अम्मा-बाबूजी का कंधा हूँ<br /><br />पत्थर-चूना ढो कर क़िस्मत जोड़ी है<br />अपने बच्चों की रोटी का टुकड़ा हूँ</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />एक बहुत ज़रूरी विषय इनकी ग़ज़लों में अलग से उभर कर दिखाई देता है- सामाजिक सौहार्द की भावना। आज के साम्प्रदायिकता से घुटन की हद तक भरे हुए माहौल में एक रचनाकार के जितना सजग होने की ज़रूरत है, प्रवीण पारीक उतने ही सजग दिखते हैं। इनके यहाँ इंसान को इंसान से अलगाते तत्वों के प्रति चिंता और रोष दोनों है तो दूसरी तरफ़ आपस में उलझे हुए आम आदमी के अमानवीय व्यवहार के प्रति हैरानी भी है। ये अपनी ग़ज़लों में निरंतर हमें आगाह करते हैं कि इस आपसी तनाव के परिणाम कभी अच्छे नहीं हो सकते। इनकी चाह है कि समाज का हर तबका एक-दूसरे के लिए भाईचारे और सद्भाव की भावना से भरा हो, सुखी हो। देश और समाज एक हो, संपन्न हो।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">ज़रूरत है तो बस इतनी चलो इंसान हो जाएँ<br />ज़माने ने बहुत कह-सुन लिए भगवान के किस्से</span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><b><br /></b><br />************<br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">चौखटें, दीवार, छत को छोड़ दें<br />तो कहो कितने बचे हैं घर यहाँ<br /><br />पत्थरों ने शक्ल ली इंसान की<br />और इंसां हो गये पत्थर यहाँ<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Laila;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">************<br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">काम जिसका है नफ़रतें बोना<br />राम क्या है, उसे ख़ुदा क्या है<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />************<br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">तू है नूरे-ख़ुदा, राम का अंश मैं<br />बेसबब फिर झगड़ने से क्या फ़ायदा</span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br /><br />************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">कुछ नेकी, कुछ दीन-धरम-ईमान ज़रूरी है<br />जीवन की राहों में ये सामान ज़रूरी है<br /><br />एह्सासों का शोख़ उजाला भीतर आने दो<br />दिल की दीवारों में रोशनदान ज़रूरी है</span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br /><br />प्रवीण पारीक जी के पास अपने वर्तमान की यथार्थपरक अभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रेम एवं दर्शन जैसे विषय भी मिलते हैं। इनके पास व्यंग्य की तेज़ धार भी है और अनुभवप्रद संदेश भी। कुल मिलाकर इनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल वाली नरमी भी है और कविता वाली सरोकार संपन्नता भी।<br /><br />जैसे अपनी बात की शुरुआत में ही मैंने कहा कि इनका ग़ज़ल लेखन अभी आरंभिक स्थिति में है तो ज़ाहिर है कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं, जिन पर अभी इन्हें काम करने की दरकार है। यह सच भी है कि कोई भी कितना भी बड़ा रचनाकार एक ही दिन में उस क़द तक नहीं पहुँचता। संपूर्णता की ओर हमेशा एक यात्रा जारी रहती है। इसी यात्रा के दौरान ही हमें अपना अवलोकन भी करना होता है और परिष्कार भी। प्रवीण जी को जिन बिंदुओं पर अभी काम की ज़रूरत है, उन्हें हम कुछ उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">जाने क्या-क्या मेरे अंदर<br />जज़्बातों का एक समुंदर</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />उपरोक्त मत्ले को देखें तो यहाँ क़ाफ़िया ख़राब हो रहा है। अंदर में तुकांत 'अंदर' तथा समुंदर में 'उंदर' है, जिसे ग़ज़ल में हमक़ाफ़िया स्वीकार नहीं किया गया। इस दोष से बचने के लिए 'अंदर' की जगह 'भीतर' शब्द इस्तेमाल किया जा सकता था।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">तारों के बीच चंदा, यूँ गुनगुना रहा है<br />कलियों को जैसे भँवरा, नग़में सुना रहा है<br /><br />ये पहाड़ी वादियों में कलकल-से बहते झरने<br />संतूर मीठी धुन में कोई बजा रहा है<br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />इन शेरों में मत्ले को ग़ज़ल की लय पकड़ने के लिए दिया गया है। मत्ला पढ़ने के बाद अगले शेर के पहले मिस्रे में बिलकुल आरम्भ में लय ख़राब होती हुई मालूम होती है। यहाँ बह्र के हिसाब से 221 यानी मफ़ऊल रुक्न होना चाहिए जबकि 'ये पहाड़ी' 2122 यानी फ़ाइलातुन है। लय बनाए रखने के लिए इसे 'ये पहड़ी वादियों में' पढ़ना पड़ रहा है, जो संभव नहीं है।<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">अचानक आज ये कैसी नमी है इन हवाओं में<br />बता भी दे तुम्हारी आँख से आँसू बहा है क्या</span><span style="color: #990000; font-family: Laila;"><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;">*************<br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">गर न बुलाया तो मत जाना आगे तेरी मर्ज़ी है<br />मेरा फ़र्ज़ तुम्हें समझाना, आगे तेरी मर्ज़ी है<br /></span><span style="color: #660000; font-family: Laila;"><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">वो चंचल मदमस्त निगाहें लाख बुलाएँ तुमको मगर<br />मेरी माने तो मत जाना, आगे तेरी मर्ज़ी है</span><span style="color: #990000; font-family: Yatra One;"><br /></span><span style="color: #351c75; font-family: Yatra One;"><br />ये कुछ ऐसे शेर हैं, जिनमें वचन संबंधी दोष आ गये हैं। 'तेरी' के साथ 'तुम्हें' का आना और 'तुम' के साथ 'माने' का आना यहाँ दोष पैदा कर रहे हैं। एक जगह 'या' तथा 'कि' दोनों आसपास आकर कहन ख़राब कर रहे हैं। मिस्रा यूँ है- 'कि या फिर आँख में तेरी कोई तिनका गिरा है क्या'।<br /><br />हालाँकि अच्छी बात यह है कि पुस्तक की कुल 106 ग़ज़लों में इस तरह के दोष गिनती की कुछ जगहों पर ही है। फिर भी छांदस विधाओं में जितना एह्तियात बरता जाए उतना अच्छा। आशा है 'शरद की धूप' के रचनाकार प्रवीण पारीक 'अंशु' जी भविष्य में और बेह्तर ग़ज़लों के साथ ग़ज़ल परिदृश्य में बने रहेंगे। पुस्तक की छपाई और प्रूफ़ रीडिंग का काम भी अच्छा हुआ है।<br /><br /><br /><br /><br /></span><span style="color: #990000; font-family: Laila;">समीक्ष्य पुस्तक- शरद की धूप<br />विधा- ग़ज़ल<br />रचनाकार- प्रवीण पारीक 'अंशु'<br />प्रकाशन- मोनिका प्रकाशन, दिल्ली<br />पृष्ठ- 120<br />मूल्य- 400/- (सज़िल्द)</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-59665524082942535122023-05-17T22:37:00.001-07:002023-05-17T22:37:37.540-07:00अपने समय के विसंगत पर हल्ला बोलती हैं तज कर चुप्पी हल्ला बोल की ग़ज़लें<p><span style="font-size: medium;"><span style="color: #660000;"><b></b></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFXJF0vgrF4IanIvgNcyj0p8VdaJ_pMC-DBKUatrxik2DoSc6LefTrSyuFwa-2Ewqpr6ZYJVaTm7boLAecktGS9-bvzHWLRL6WQaWnIDhbftv0J5Al1_8Y2Fg2bDiSDuHKNO8IBpzsmwymDMbFwDO-eejeclaXtvOUDwr6p-aiowyGBLSsAlOZeu_2/s720/WhatsApp%20Image%202023-05-18%20at%2011.06.14%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFXJF0vgrF4IanIvgNcyj0p8VdaJ_pMC-DBKUatrxik2DoSc6LefTrSyuFwa-2Ewqpr6ZYJVaTm7boLAecktGS9-bvzHWLRL6WQaWnIDhbftv0J5Al1_8Y2Fg2bDiSDuHKNO8IBpzsmwymDMbFwDO-eejeclaXtvOUDwr6p-aiowyGBLSsAlOZeu_2/s320/WhatsApp%20Image%202023-05-18%20at%2011.06.14%20AM.jpeg" width="320" /></a></b></span></div><span style="font-size: medium;"><b><br /> </b></span><p></p><p><span style="font-size: medium;"><span style="color: #660000;"><b>रवि खण्डेलवाल</b> जी हिन्दी के काव्य जगत में बरसों से सक्रिय हैं। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में इनकी रचनाएँ बराबर छपती रही हैं। रेडियो पर भी आप गीत एवं नाटकों के माध्यम से लगातार प्रसारित होते रहे हैं। गीत, ग़ज़ल तथा छन्द मुक्त जैसी कविता की विभिन्न विधाओं पर आपका अधिकार रहा है। एक लम्बे अरसे तक लेखन करने और प्रकाशित-प्रसारित होते रहने के बाद आपके निजी संग्रह अब आने शुरू हुए हैं। कविता संग्रह 'उजास की एक किरण' के बाद इनका दूसरा संग्रह <b>तज कर चुप्पी हल्ला बोल</b> श्वेतवर्णा प्रकाशन से आया है। यह ग़ज़ल विधा का इनका पहला संग्रह है।<br /><br />संग्रह से गुज़रने पर इनके लेखन के तीन तत्त्वों ने मुझे प्रभावित किया। वे हैं, वर्तमान यथार्थ की बेबाक अभिव्यक्ति, आशावाद तथा अलग तरह की कहन। इनकी ग़ज़लें अपने समकालीन समय के विसंगत को बहुत मज़बूती से अभिव्यक्त करती हैं। ऐसा करते हुए उनमें प्रतिरोध का स्वर बराबर बना रहता है। उल्लेखनीय बात यह है कि अपने समय की कड़वी सच्चाइयों से टकराता इनका रचनाकार ऐसा करते हुए कहीं भी कुण्ठित अथवा हताश नहीं होता। बल्कि वह जनमानस में लगातार आशावाद का संचार करता रहता है, उसे प्रेरित करता रहता है। शीर्षक का संग्रह भी काफ़ी हद तक मेरी इस बात का समर्थन करता है।<br /><br />अपने समय के परिदृध्य पर ये लगातार नज़र बनाए रखते हैं और इस धुँधले परिदृध्य से निराश दिखाई देते हैं। इनकी निराशा वर्तमान व्यवस्था के छल-छद्म से भी है और आम आदमी की ऊटपटांग हरकतों से भी। रवि खण्डेलवाल जी के रचनाकार के पास भी अन्य संवेदनशील व्यक्ति की भांति वही संवेदनाएँ हैं, जो अपने देश-समाज में सुकून व संपन्नता देखना चाहती हैं। ये भी उन तमाम तत्त्वों से दुखी हैं, जो हमारी आपसी समरसता की भावना को ठेस पहुँचा रहे हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि ये निराशा, ये दुख इनकी ग़ज़लों में लगातार प्रश्न और प्रतिरोध बनकर शेरों में उतरता है-<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">बोलिए इन रहनुमाओं से तो इतना बोलिए<br />आदमी के दिल-दिमागों में ज़हर मत घोलिए<br /></span><br /><span style="color: #20124d;">ये जो हिंसक वारदातें हो रही हैं हर तरफ<br />क्या वजह है, बात क्या है, राज़ क्या है, खोलिए<br /></span><br />*******************<br /><span style="color: #20124d;">प्यार, मुहब्बत, नफ़रत के पैमाने बदले हैं<br />दुश्मन संग-संग यारों के भी माने बदले हैं<br /></span><br />*******************<br /><span style="color: #20124d;">दहशत का ऐसा आलम, कोई भी कुछ न बोले<br />पूरी की पूरी बस्ती, लगता है बेज़ुबां है<br /></span><br />*******************<br /><span style="color: #20124d;">धर्म के यदि जात के परचम न होते<br />आदमी को आदमी से प्यार होता<br /></span><br />*******************<br /><span style="color: #20124d;">क्या नहीं जानते रोग से मुक्ति को<br />आप विष पी रहे हैं, दवाई नहीं<br /></span><br />*******************<br /><span style="color: #20124d;">सरहद के बाहर की हों या अंदर की घातें<br />रह-रह कर झकझोर रही भारत की बुनियादें<br /></span><br /><span style="color: #660000;">आशा और उम्मीद हर एक दौर में आदमी का एक बड़ा हथियार रहे हैं। हमने पत्थरों के बीच भी अंकुरण होते देखा है। हिन्दी के महान कवि रहीम ने भी समय आने पर काम होने की बात कह उम्मीद और धैर्य के साथ बने रहने की सलाह दी है। सच भी है कि जिसने धैर्य धारण कर लिया, उसने ख़ुद को पर्वत कर लिया यानी अब उसे मुश्किलों के कितने ही चक्रवात नहीं हिला पाएँगे। आशा, धैर्य और उम्मीद की सलाह हमें हमारे परिवेश में हर समय मिली है और शायद इसीलिए मिली है कि हम यह याद रखें कि हर अँधेरी रात के बाद सवेरा होता ही है। रवि खण्डेलवाल जी अपने समय के विसंगत से दुखी और निराश तो होते हैं लेकिन इसी उम्मीद के सहारे ख़ुद को और आम जनमानस को मायूस होने से बचाए रखते हैं। इसके साथ ही ये समस्याओं का हल बताते हुए उन पर हल्ला बोलने का एक ज़रूरी सुझाव भी देते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">ये जो गूँगे दिख रहे हैं गुनगुनाएँगे ज़रूर<br />पंछियों को डाल पर स्वच्छन्द हो गाने तो दो<br /></span><br />********************<br /><span style="color: #20124d;">मौन धारण कर नहीं कुछ भी तुझे मिल पाएगा<br />है अगरचे चाहिए हक़ रार कर, तकरार कर<br /></span><br />********************<br /><span style="color: #20124d;">आप बढ़कर छीन लें मिल जाएँगे<br />बैठकर अधिकार पाना है कठिन<br /></span><br />********************<br /><span style="color: #20124d;">सर झुकाकर ज़ुल्म को सहना नहीं है ज़िंदगी<br />ज़िंदगी के तौर बदलो और हल्ला बोल दो<br /></span><br /><span style="color: #660000;">कविता में अपनी बात रखने का अंदाज़ बहुत महत्त्वपूर्ण अंग होता है। ग़ज़ल में इसका और ज़्यादा महत्त्व है। हज़ारों-लाखों सृजकों के बीच अपनी बात कहने का ढंग ही एक रचनाकार को ख़ास बनाता है। रवि खण्डेलवाल जी के पास कहीं-कहीं अपनी विशिष्ट शैली के दर्शन होते हैं। इनके पास परंपरागत कहन के इतर अपना एक विशिष्ट अंदाज़ मिलता है। ये किसी भी संवेदना को शेर करते समय बात को घुमाने की बजाय सीधा और साफ़-साफ़ कहना पसंद करते हैं। लेकिन ऐसा ये अपने अंदाज़ में करते हैं और ऐसा करते हुए ये अन्य रचनाकारों से अलग खड़े होते हैं।<br /></span><br /><span style="color: #20124d;">आइए ख़ुशियाँ मनाएँ<br />आँख ने आँसू जना है<br /></span><br />********************<br /><span style="color: #20124d;">एक सूरज क्या ढल गया यारो<br />दिन का हुलिया बदल गया यारो<br /></span><br />********************<br /><span style="color: #20124d;">तुम जिसे दुर्गंध का पर्याय कहते हो<br />हो रहे पैदा नगीने उस पसीने से<br /></span><br />********************<br /><span style="color: #20124d;">सत्य को रस्ता दिखाया द्वार का दुत्कार कर<br />और सीने से लगाया झूठ को मनुहार कर<br /></span><br /><span style="color: #660000;">अपने दौर की विसंगतियों से टकराना, उनके कारणों की पहचान कर सवाल खड़े करना तथा समाज को उनसे सचेत करना रवि खण्डेलवाल जी की ग़ज़लों का हासिल है। इसके साथ ही अपने समकालीन जीवन पर नज़र बनाए रखना भी इनकी ग़ज़लों का सकारात्मक पक्ष है। ये ग़ज़ल में हिंदी भाषा की शब्दावली का भी अच्छा समावेश करने का प्रयास करते हैं। इनकी भाषा बोलचाल की ही भाषा है लेकिन उर्दूपन से मुक्त होती हुई। साथ ही ग़ज़ल के शिल्प विधान का भी ये अच्छी तरह ख़याल रखते हैं, उसे निभाते हैं।<br /><br /></span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="color: #4c1130;">समीक्ष्य पुस्तक- तज कर चुप्पी हल्ला बोल<br />रचनाकार- रवि खण्डेलवाल<br />विधा- ग़ज़ल<br />प्रकाशन- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली<br />संस्करण- प्रथम, 2023<br />मूल्य- 160 रुपये (पेपरबैक)</span></span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-59495208947240109542023-03-08T23:04:00.001-08:002023-03-08T23:04:22.497-08:00 हिन्दी परिवेश और आम जनजीवन की सहज अभिव्यक्ति: मेरी माँ में बसी है<p><span style="color: #351c75;"> </span></p><p><span style="color: #351c75;"> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYUW_MK3eEvCqLyL-WUHTSO0HR6g_BuYoRHO19LDJEWVxDl1vrrXVSguJt6DVPhHsa2PrCI43ZJ_z1s4MPCiia_e8fSKkR0dXDGivV09lU2hxZHdSDDC8uTeh3X-cu-d9M4IgjOT72JRhuDnXko8toKqxdm0qaDaQxu11mbxvG4gwnKojLwvLV_QPf/s1280/meri%20maa%20me_dr%20bhawna.jpg" imageanchor="1" style="color: #351c75; margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="608" data-original-width="1280" height="152" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYUW_MK3eEvCqLyL-WUHTSO0HR6g_BuYoRHO19LDJEWVxDl1vrrXVSguJt6DVPhHsa2PrCI43ZJ_z1s4MPCiia_e8fSKkR0dXDGivV09lU2hxZHdSDDC8uTeh3X-cu-d9M4IgjOT72JRhuDnXko8toKqxdm0qaDaQxu11mbxvG4gwnKojLwvLV_QPf/s320/meri%20maa%20me_dr%20bhawna.jpg" width="320" /></a></div><span style="color: #351c75;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #990000;"><b>मेरी माँ में बसी है</b> हिन्दी की महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकार <b>डॉ० भावना</b> का चौथा प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। ग़ज़ल लेखन के अब तक के सफ़र में डॉ० भावना ने अपने आपको समकालीन ग़ज़ल के एक ज़रूरी नाम के रूप में स्थापित कर लिया है। अपने समसामयिक और मज़बूत कथ्य के कारण इनकी ग़ज़लें, अपने समय के अन्य ग़ज़लकारों से बहुत अलग दिखाई पड़ती हैं।<br /><br />प्रस्तुत संग्रह में इनकी कुल 79 नयी ग़ज़लें संग्रहीत हैं। ये सभी ग़ज़लें डॉ० भावना के ग़ज़ल लेखन का अगला पड़ाव जान पड़ती हैं। संग्रह की समस्त ग़ज़लें हिन्दी परिवेश और आम जनजीवन की सहज अभिव्यक्ति हैं। इन ग़ज़लों में 'छत पर पानी पीने को अधीर चिड़िया', 'खेतों में गेंहू की कटाई', 'दफ़्तर के काम का बोझ', 'एल्बम में नानी की तस्वीर', 'दादा की खड़ाऊ, लाठी व छाता' जैसे हमारे सामान्य जीवन के दृश्य बिखरे पड़े हैं।<br /><br />जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट हो जाता है कि इसमें माँ और उनकी स्मृतियों से जुड़ा कुछ ख़ास ज़रूर होगा, बहुत कुछ है भी लेकिन यह जुड़ाव केवल माँ तक नहीं, यहाँ स्मृतियाँ; स्मृतियों के विराट द्वीप की तरह उपस्थित हैं। स्मृतियाँ ही जीवन डायरी के वे भरे हुए पन्ने हैं, जिन्हें हम लौट-लौट कर पढ़ते हैं और चाहते हुए भी उनमें किसी तरह का न बदलाव कर सकते हैं, न कुछ जोड़-घटा सकते हैं।<br /><br /><b>बैठी हूँ जबसे इस बस में<br />आँखें यादों का गुच्छा हैं</b><br />____________<br /><br /><b>कबड्डी खेल आऊँ मैं भी जाकर<br />वही बचपन की टोली चाहिए थी<br /></b><br />माँ के प्रति डॉ० भावना का प्रेम अब लगभग जग जाहिर है। पिछले कुछ समय में इनके जीवन में भी माँ और माँ से जुड़ी बहुत-सी चीज़ें जीवन की अन्य लगभग सभी चीज़ों से अधिक मौजूद रही हैं। पुस्तक में माँ के अह्सासों से जुड़ा यह एक शेर ही इतना ख़ास नज़र आता है कि मानस पटल पर अंकित हो उठता है-<br /><br /><b>मुसीबत में भी तनती जा रही हूँ<br />मैं अपनी माँ-सी बनती जा रही हूँ<br /></b><br />यह शेर केवल डॉ० भावना का शेर नहीं है, हर उस बेटी की अभिव्यक्ति है, जो उम्र के एक विशेष पड़ाव पर आकर ख़ुद में अपनी माँ का अक्स देखने लगती है।<br /><br />प्रस्तुत संग्रह की एक और विशिष्टता हमारा ध्यान खींचती है, वह है प्रेम की परिपक्व अभिव्यक्ति। हिन्दी कविता में प्रेम के केवल मांसलता या दैहिकता के नहीं बल्कि पौढ़ता के साथ अभिव्यक्त होने की समृद्ध परम्परा रही है। प्रेम की यही प्रौढ़ता हिन्दी की ग़ज़ल में भी उसी प्रभावशीलता के साथ उपस्थित होती है। यहाँ इस संग्रह में भी प्रेम का एक परिपक्व रूप शेरों में आकर पाठक का मन हरता है-<br /><br /><b>एक दुपहरी लंच की ख़ातिर<br />घर आओगे मन कहता है</b><br />____________<br /><br /><b>तुम्हें हरियालियों से प्रेम है तो<br />लो, अपना रंग धानी कर रही हूँ</b><br />____________<br /><br /><b>जीत जाऊँगी हारती बाज़ी<br />शर्त इतनी है सामने रहना<br /></b><br />पुस्तक की समस्त ग़ज़लों में जन सरोकार भी जगह-जगह बिखरे पड़े हैं। यहाँ रचनाकार कभी वंचितों के पक्ष में खड़ा मिलता है तो कहीं विसंगतियों पर प्रहार करता नज़र आता है। अपनी जनपक्षधरता के कारण डॉ० भावना अपने समय की अन्य महिला ग़ज़लकारों से बहुत-बहुत आगे खड़ी मिलती हैं-<br /><br /><b>कभी सूखे हुए फूलों से उनका दर्द तो पूछो<br />हमेशा बात करते हो महकती रातरानी की<br /></b>____________<br /><br /><b>खटालों को था मतलब दूध से ही<br />मगर गैया को बछिया चाहिए थी<br /></b>____________<br /><br /><b>नज़र बैलेट पे जाकर ही टिकी है<br />बहस के केन्द्र में बस झोंपड़ी है</b><br /><br />प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह की भाषा भारतीय आमजन में प्रचलित बोलचाल की भाषा है, जिसमें मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी हैं और हमारे आसपास के बिम्ब-रूपक भी। गूगल, रेप, चैनल, फोन, अन्तर्जाल, लव जिहाद, बैलेट जैसे नए और लोक प्रचलित शब्द भी हैं तथा सुरसा, बजरंगी, खड़ाऊं, बबुआ, खटाले, रधिया, चौपाइयाँ, बटखड़ा जैसी हिन्दी की पारम्परिक शब्दावली भी। कहा जा सकता है कि यह संग्रह अपने समय के लेखन, अपने समय की ग़ज़लों का संग्रह है।<br /><br /><br /><br /><br />समीक्ष्य कृति- मेरी माँ में बसी है<br />विधा- ग़ज़ल<br />रचनाकार- डॉ० भावना<br />प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली<br />संस्करण- प्रथम, 2022</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-4028738402686652382022-12-19T22:26:00.000-08:002022-12-19T22:26:09.768-08:00हिन्दी कविता और उर्दू ग़ज़ल के बीच का संतुलित सृजन: बिखरे हुए पर<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiQeNvv6FyfpKhRHMMoEEr4rufr9UkBT2HCFMFyoS2Gu3_v_JAAWQB7n1VDkXO8zs2Z0NclORwXWaLsy-adH0Y7iNfQ4BYjSPVR3L6-IXRlNb8QXpZcNsHBst_NF-IhRILtukk73eHbBbPYErGxx0ro7XnrQzH66yc4-NtNB3d6gR31SAI5Z9uOnF4/s436/WhatsApp%20Image%202022-12-20%20at%2011.47.49%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="436" data-original-width="409" height="259" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiQeNvv6FyfpKhRHMMoEEr4rufr9UkBT2HCFMFyoS2Gu3_v_JAAWQB7n1VDkXO8zs2Z0NclORwXWaLsy-adH0Y7iNfQ4BYjSPVR3L6-IXRlNb8QXpZcNsHBst_NF-IhRILtukk73eHbBbPYErGxx0ro7XnrQzH66yc4-NtNB3d6gR31SAI5Z9uOnF4/w243-h259/WhatsApp%20Image%202022-12-20%20at%2011.47.49%20AM.jpeg" width="243" /></a></div><br /> <p></p><p><span style="color: #20124d;">हिन्दी की कवयित्री एवं लेखिका <b>डॉ० कविता विकास</b> ने पिछले कुछ सालों में ग़ज़ल लेखन में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। पिछले कुछ समय से बड़ी-छोटी अनेक पत्रिकाओं में इन्होंने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से उपस्थिति दर्ज करवायी है। इनका ग़ज़ल लेखन का सफ़र लगभग मेरी आँखों के सामने रहा है इसलिए यह कह सकता हूँ कि इन्होंने बहुत कम अरसे में न केवल ग़ज़ल की नब्ज़ को पकड़ा बल्कि इस मुश्किल विधा में अपनी लेखनी को बा-ख़ूबी साधा भी है।<br /><br />इंडिया नेट्बुक्स प्राइवेट लिमिटेड से हाल में इनका पहला ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होकर आया है। <b>बिखरे हुए पर</b> नामक इस ग़ज़ल संग्रह की ख़ासियत यह है कि इसमें हिन्दी कविता और उर्दू ग़ज़ल के बीच का संतुलित सृजन मिलता है। कविता जी चूँकि छंदमुक्त कविता तथा आलेखों से होते हुए ग़ज़ल लेखन की तरफ आती हैं इसलिए इनके पास लेखन से सम्बंधित एक स्पष्ट नज़रिया पहले से विकसित रहा है। ग़ज़ल से जुड़कर वहाँ के ज़रूरी तत्त्वों को बरक़रार रखते हुए ये जब उसके साथ हिन्दी कविताई का सामंजस्य करती हैं तो इनकी ग़ज़ल में एक अलग रंग दिखता है। हालाँकि अभी यह शुरुआत भर है, इसलिए इनकी ग़ज़लगोई का यह अलहदा रंग आरम्भिक स्थिति में ही है।<br /><br />कविता जैसी विधा से आते हुए वे कथ्य का विस्तार भी अपने साथ लेकर आती हैं। इस कारण इनके पास ग़ज़ल की परम्परा से इतर भी बहुत सारा कथ्य है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न समसामयिक विषयों पर, पर्यावरण और ग्रामीण परिवेश पर तथा प्रेम के उद्दात स्वरूप पर भी अनेक शेर मिलते हैं। इनकी ग़ज़लों में हिन्दी कविता का परिवेश; हिन्दी ग़ज़ल के विकास में महत्त्वपूर्ण अंशदान करता है। यहाँ हम देखेंगे कि किस तरह ग़ज़ल विधा का केवल प्रारूप लेते हुए उसमें हिन्दी कविता का कंटेंट रखा जाता है। ऐसा करते हुए ग़ज़ल की आत्मा को बचाए रखना बहुत आवश्यक होता है। कविता जी यह काम कुशलता से करती हैं-<br /></span><br /><span style="color: #660000;">वर्जनाएँ और केवल वर्जनाएँ लिख रही हूँ<br />बंदिशों की, एह्तियातों की कथाएँ लिख रही हूँ<br /><br />सभ्यताओं के पतन का तुम भी तो इतिहास देखो<br />फिर न कहना काल्पनिक-सी मैं बलाएँ लिख रही हूँ<br /></span>______________<br /><br /><span style="color: #660000;">निति नियम बेकार गये<br />मन साधा तो पार गये<br /><br />प्रभु की याद तभी आयी<br />जब जीवन से हार गये<br /></span>______________<br /><br /><span style="color: #660000;">गुलाब, चम्पा, पलाश, गेंदा महक रहे हैं, टहक रहे हैं<br />कहीं पे मोहन सँवर रहे हैं, कहीं पे राधा लजा रही है<br /></span><br /><span style="color: #20124d;">इनकी ग़ज़लों में गाँव, घर, समाज, परिवार, पर्यावरण आदि जीवन के बहुत ज़रूरी भाग बड़ी सहजता से उपस्थित होते हैं। इस संग्रह में गाँव के परिवेश और पर्यावरण पर भी अच्छे शेर पढने में आये। ये शेर जहाँ एक तरफ प्रकृति और समाज के इन महत्त्वपूर्ण अवयवों की उपयोगिता समझाते हैं, वहीं इनसे जुड़े ज़रूरी विमर्श भी हमारे सामने उपस्थित करते हैं।<br /><br /></span><span style="color: #660000;">खेत, पर्वत, पेड़, झरने और समुंदर देखकर<br />रश्क होता है मुझे धरती के ज़ेवर देखकर<br />_______________<br /><br />झूमे-नाचे, शोर मचाये बादल को देखे जब आते<br />बैठ हवा के झूले पर लहराता जाए पत्ता-पत्ता<br />_______________<br /><br />खेत, मेघ, दरिया की बात अब पुरानी है<br />खोयी गाँव ने अस्मत, थम गयी रवानी है<br /><br />अब न सजतीं चौपालें, पेड़ कट गये सारे<br />आम, नीम, पीपल की अब कहाँ निशानी है<br /></span><br /><span style="color: #20124d;">महिला ग़ज़लकारों के लेखन में एक बात बहुत निराश करने वाली है कि अभी भी उनकी रचनाओं में समसामयिकता का अभाव पाया जाता है। यह बात मैं केवल हवा में नहीं कह रहा। पिछले 5-6 सालों में अध्ययन के दौरान यह पहलू मेरे सामने आया। महिला रचनाकारों की ग़ज़लों के कथ्य पर अगर गौर करें तो हम पाते हैं कि आधे से अधिक रचनाकार तो अभी भी 80-90 के दशक की शैली की ग़ज़लें कहकर ही संतुष्ट हैं। उनके पास अब भी वही फूल-पत्तियों, हवा-चिराग़, कलम-ख़त वाले सन्दर्भों के शेर ही अधिकता में मिलेंगे। हालाँकि यह स्थिति पुरुष ग़ज़लकारों की ग़ज़लों में भी मिलेगी लेकिन तुलनात्मक रूप से महिला रचनाकारों की ग़ज़लें कथ्य में अधिक पिछड़ापन लिए है। हाँ, पिछले कुछ दिनों से स्थिति में सुधार होता दिख रहा है। अब कुछ नयी रचनाकार बदलाव लेकर आ रही हैं। ग़ज़ल के कथ्य में यही बदलाव सीमित ही सही लेकिन कविता विकास जी के पास मिलता है। इनके कुछ सरोकार संपन्न समसामयिक शेर देखें-<br /></span><br /><span style="color: #660000;">आदमीयत भी आदमी में हो<br />आजकल बस इसी की किल्लत है</span><br />______________<br /><span style="color: #660000;"><br />मुझे संकल्प ऐसा दो, कभी सच से न डिग पाऊँ<br />मिटा दूँ मन से रावण को, जिगर में राम हो जाए<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />सोचने की जा रही हैं आदतें<br />जबसे गूगल ज्ञान का दाता हुआ<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />आ गया ज़िंदगी में कंप्यूटर<br />ढंग जीने का आज बदला है<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">नारी विमर्श यूँ तो बीते दिनों की बात होता जा रहा है। अब तो हिन्दी के साहित्यिक परिवेश कई-कई नए और ज़रूरी विमर्श आ चुके हैं लेकिन ग़ज़ल में अब भी नारी विमर्श के शेरों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं हैं। शायद यथार्थ के खुरदुरेपन का डर हिन्दी ग़ज़लकारों को ऐसा करने से रोकता रहा हो। वर्तमान समय में ज़रूर यह विमर्श कुछ आगे बढ़ा है। यहाँ कविता विकास जी के पास न केवल नारी विमर्श के शेर मिलते हैं बल्कि नारी दृष्टिकोण के शेर भी ख़ूब पाये जाते हैं। नारी दृष्टिकोण के शेर कहने की ओर तो दो-एक महिला ग़ज़लकारों को छोड़कर किसी का ध्यान ही नहीं है। डॉ० कविता विकास का नारी विमर्श देखिए पहले-<br /><br /></span><span style="color: #660000;">जुडती हैं, टूटती हैं, निशाने पे हैं सदा<br />हर गाम इम्तिहान में रहती हैं औरतें<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />हमें अपने लहू से सींचकर जो जग में लाती है<br />उसे ही लोग किस्मत की सदा मारी दिखाते हैं<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />छूने निकल पड़ी है लो आसमान बिटिया<br />पग-पग पे दे रही है सौ इम्तिहान बिटिया<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />परों में भर के हिम्मत आज बेटी<br />फ़लक छूने के क़ाबिल हो गयी है<br /></span><br /><span style="color: #20124d;">समाज में महिलाओं की स्थिति-परिस्थिति को लेकर कविता जी के पास चिंताएँ भी हैं और गर्व भी। यही शायद हम सबका हाल हो।<br />अब इनके नारी दृष्टिकोण के कुछ शेर देखते हैं। सवाल उठता है कि नारी दृष्टिकोण, पुरुष दृष्टिकोण! क्या बला है यह? हर चीज़ का विभाजन! सवाल और हैरानी जायज़ है लेकिन आपने बाल साहित्य तो पढ़ा ही होगा, जी वह भी बाल दृष्टिकोण का ही साहित्य है। यानी जैसा एक मन दुनिया को देखता है, समझता है या उसके द्वारा बरता जाता है, उसी से तो वह दुनिया या समाज की इमेज बनाता है। अब बताइए कि क्या एक पुरुष और एक महिला हमारे समाज, हमारे आसपास के द्वारा एक ही तरह से 'ट्रीट' किये जाते हैं! न। महिला के अनेक भाव अलग होते हैं, महिला के प्रति अनेक भाव अलग होते हैं, उनकी समस्याएँ अलग होती हैं, उनसे निपटने का तरीका अलग होता है। यानी पूरा एक परिदृश्य अलग होता है। हाँ, संवेदनशील पुरुष रचनाकार उसे अनुभव कर लेता है, महसूस लेता है बल्कि अभिव्यक्त भी करता है लेकिन जिस शिद्दत के साथ एक महिला रचनाकार यह कर सकती है, पुरुष नहीं कर सकता। एक उदाहरण के तौर पर दलित अथवा आदिवासी साहित्य की तरह समझ सकते हैं इसे।<br /></span><br /><span style="color: #660000;">ज़िंदगी है हम औरतों की क्या<br />काम ही काम ही है किस्मत में<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />दब रही वक़्त के मलबे में हैं यादें सारी<br />पर न भुला है मेरे ज़ेहन से पीहर मेरा<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />न मैं हक़ ही चाहूँ, न हिस्सा कभी<br />मगर घर से बाबा विदाई न दे<br /></span>______________<br /><span style="color: #660000;"><br />टूट जाती हूँ कभी तो कभी जुड़ जाती हूँ<br />ज़िंदगी जब भी मुसीबत लिए घर आती है<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">कविता विकास का ग़ज़ल लेखन बहुत तेज़ी से निखरता गया है, इसकी एक वजह शायद इनका बहुत विनम्रता के साथ सुझावों को स्वीकारते हुए लगातार मेहनत किये जाना रहा हो। इनके पास मैं शुरू से अन्य ग़ज़लकारों से 'बहुत कुछ अलग' देखता आया हूँ और अच्छी बात यह है कि इन्होंने उस कुछ अलग को सलीक़े से साधा व सँवारा है। इबके ग़ज़ल लेखन से हिन्दी ग़ज़ल को बहुत संभावनाएँ हैं। आशा है वे अपनी ग़ज़ल को लगातार सजगता और संजीदगी के साथ तराशती रहेंगी।</span><br /><br /><br /><br /><span style="color: #660000;">समीक्ष्य पुस्तक- बिखरे हुए पर<br />विधा- ग़ज़ल<br />प्रकाशन- इंडिया नेट्बुक्स प्राइवेट लिमिटेड<br />संस्करण- प्रथम, 2022<br />मूल्य- 225/- (पेपर बेक)</span><br /></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-77762427273460292242022-12-02T23:09:00.001-08:002022-12-02T23:12:01.955-08:00समाज की हलचलों एवं आम आदमी की परेशानी पर बात करता संग्रह: ज़ेह्न में कुछ शेर थे<p><span style="color: #351c75;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="color: #351c75;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoCAbTLvmIsRDz1jJQ8mk2OTwqhdC2b4vwV4Q0RhxaUIOU2RygWzVlU0-U6f-6bdE-EwiGCxSnKhLFfEfh-mR2oWRYD2JiomvNZAMR5W9FTYp1L9ib8zv7IsjO_F_un4x-lR_kq_oNM7Dy9698e-11ny-x-AW_N-DHzdAB7V7D3cEfgByS5RDQrBDv/s720/zehn%20me%20kuch%20sher_avadhesh%20sandal.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="331" data-original-width="720" height="177" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoCAbTLvmIsRDz1jJQ8mk2OTwqhdC2b4vwV4Q0RhxaUIOU2RygWzVlU0-U6f-6bdE-EwiGCxSnKhLFfEfh-mR2oWRYD2JiomvNZAMR5W9FTYp1L9ib8zv7IsjO_F_un4x-lR_kq_oNM7Dy9698e-11ny-x-AW_N-DHzdAB7V7D3cEfgByS5RDQrBDv/w342-h177/zehn%20me%20kuch%20sher_avadhesh%20sandal.jpeg" width="342" /></a></span></div><span style="color: #351c75;"><br /><b><br /></b></span><p></p><p><span style="color: #351c75;"><b>ज़ेह्न में कुछ शेर थे</b> हिंदुस्तानी ज़ुबान के युवा शायर <b>अवधेश प्रताप सिंह 'संदल'</b> का पहला ग़ज़ल संग्रह है। यह वर्ष 2021 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होकर आया है। अवधेश 'संदल' के ग़ज़लकार रूप से कुछ 4-5 साल पहले ग़ज़ल एप पर काम करते समय अवगत हुआ था। संभवतः उसी समय उनसे पहली बार परिचय भी हुआ होगा। उसके बाद लम्बे अरसे तक वे निजी जीवन की आपाधापी में व्यस्त रहे और अब इस ग़ज़ल संग्रह के साथ प्रस्तुत हैं। अवधेश 'संदल'; डॉ. गजाधर सागर के शिष्य और दाग़ परम्परा के शायर हैं। ग़ज़ल के अलावा इनकी व्यंग्य रचनाएँ भी पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं।</span></p><p><span style="color: #351c75;">प्रस्तुत संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रने पर पाया कि इनकी ग़ज़लें परम्परा और आधुनिकता के बीच का सेतु बनकर उभरती हैं। जहाँ कहन और भाषा पारम्परिक ग़ज़लों का प्रतिनित्व करती हैं, वहीं इनकी ग़ज़लों का कथ्य इन्हें आधुनिकता का वाहक रचनाकार घोषित करता है। ग़ज़ल की सॉफ्टनेस को बनाए रखते हुए ये अपने ख़ूबसूरत शेर बुनने का प्रयास करते दिखते हैं।</span></p><p><span style="color: #351c75;">इनका ग़ज़लकार समकालीन यथार्थ से पूर्णत: अवगत जान पड़ता है। हमारे समाज में उपस्थित विभिन्न चुनौतियाँ, विसंगतियाँ इनके शेरों में ढलकर पाठक से रूबरू होती दिखती हैं। उर्दू ग़ज़ल के शृंगार तथा दर्शन के घेरे से बाहर आकर वे समाज की हलचलों एवं आम आदमी की परेशानी पर भी बात करते हैं। अलहदा कहन, ग़ज़ल की नज़ाकत का रखरखाव और समकालीनता का संगम इनकी ग़ज़लों में दृष्टिगोचर होता है।</span></p><p><span style="color: #351c75;">वर्तमान में इंसानी व्यस्तता और समय की क़िल्लत यहाँ तक बढ़ चुकी है कि उसके लिए अपने बहुत नज़दीक के लोगों के लिए भी वक़्त नहीं है। गाँव-मोहल्ले की हलचल और खैर-ख़बर का तो दौर कब का ही बीत चुका। आज तो हालात यह हैं कि कॉलोनियों और फ्लैटों में अपने डिब्बेनुमा घरों में सिमटा आदमी पड़ौस के क्रियाकलापों से भी अवगत नहीं हो पाता। ग़ज़लकार अवधेश 'संदल' के शब्दों में आज अगर कोई व्यक्ति अपने पड़ौसी के नाम से परिचित भी है तो यह बड़ी बात है-</span></p><p><span style="color: #990000;">किसे फ़ुर्सत है इस मसरुफ़ियत के दौर में 'संदल'<br />ग़नीमत है पड़ौसी को अगर पहचानते हैं हम</span></p><p><span style="color: #351c75;">इन दिनों का माहौल यह है कि सिनेमा, साहित्य, भाषा हर जगह नंगापन हावी होता जा रहा है। मर्यादा एक शब्द ही नहीं, सीमा-रेखा है; हर उस अति के लिए जिससे आसपास का परिवेश ख़राब होने का ख़तरा हो। आज आप टीवी शोज़ देखें या वेब सिरीज, अपना आसपास देखें या साहित्यिक रचनाएँ; आपको हर कहीं मर्यादा का उल्लंघन होता मिलेगा। ऐसे में यह शेर अपने समय का अक्स बनकर उभरता है-</span></p><p><span style="color: #990000;">जो परदे में रखा जाता था अब तक<br />वो परदे पे दिखाया जा रहा है</span></p><p><span style="color: #351c75;">अपने दौर तथा देशकाल की चिंता एक रचनाकार को होना लाज़िमी है। जब तक साहित्यकार अपने लेखन के ज़रिये विमर्श करता हुआ नहीं दिखाई पड़ेगा तब तक उसका लेखन मुख्यधारा से बाहर ही घूमता रहेगा। मुख्यधारा की परिधि के भीतर प्रवेश करने के लिए उसे अपने समकाल को जीना पड़ेगा, उससे टकराना पड़ेगा। अवधेश 'संदल' के लेखन में यह टकराव आरम्भिक अवस्था में देखने को मिलता है। कुछ शेर द्रष्टव्य है-</span></p><p><span style="color: #990000;">किसी-किसी को मयस्सर नहीं है दाना भी<br />पड़ा-पड़ा ही कहीं पर अनाज सड़ता है</span><br />____________</p><p><span style="color: #990000;">आदमी क़ाबू में रहता है अगर वो हो अकेला<br />भीड़ में हर शख्स़ बे-क़ाबू दिखाई दे रहा है</span></p><p><span style="color: #351c75;">इनकी ग़ज़लों में आम आदमी का संघर्ष भी बराबर दिखाई देता है। राजनेताओं के वादों से छला गया वोटर हो, चाहे सुविधाओं की चाहत संजोये मजदूर या घर के तमाम काम-काज निपटाने के बाद फटकार सुनती हुई स्त्री; इनकी ग़ज़लों में सामान्य पात्र भी जगह पाते हैं। कहने का आशय यह कि अवधेश 'संदल' का ग़ज़लकार समाज के सामान्य व्यक्ति के लिए भी चिंतित होता है-</span></p><p><span style="color: #990000;">राह संसद की हमारे झोंपड़ों से दूर है<br />किस तरह जाएँ बताने हम हमारी खैरियत<br /></span>____________</p><p><span style="color: #990000;">कोई एक ऐसा तरीक़ा तो निकाला जाये<br />झोंपड़ों तक भी ग़रीबों के उजाला जाये</span><br />____________</p><p><span style="color: #990000;">अजब औरत है कुछ कहती नहीं है<br />कहाँ किसने उसे कितना सताया</span></p><p><span style="color: #351c75;">हमारे समाज में इस समय में पिछले कुछ 30-40 सालों की तुलना में बहुत कुछ बदल चुका है। यह बदलाव चाहे तकनीक के स्तर पर हों, दिनचर्या के स्तर पर या भाषा के स्तर पर, बहुत कुछ पुराना छूट-सा गया है और नया निरंतर जुड़ता जा रहा है। ऐसे उथल-पुथल के समय में विकास और तरक्की के साथ-साथ संवेदना तथा मूल्यों ह्रास परेशान करने वाला है। मशीनी होते जा रहे इंसान में जितनी संवेदनशीलता बची रह गयी है, वह हताश करने वाली है। परिवार तथा विवाह संस्था का विघटन, संबंधों का बिखराव, बुज़ुर्गों की उपेक्षा तथा युवा पीढ़ी का ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया भविष्य के अच्छे संकेत नहीं देता। इस सब पर ग़ज़लकार अवधेश 'संदल' भी नज़र बनाए हुए हैं और बहुत सख़्त लहजे में ये हमें आगाह करते हैं-</span></p><p><span style="color: #990000;">इस कदर संदल ज़माने को है दौलत का नशा<br />अब इसे अपना-पराया कुछ नज़र आता नहीं</span></p><p><span style="color: #351c75;">लगातार होते जा रहे इंसानियत के लोप के बारे में जब वे यह खरा-खरा शेर कहते हैं तो संस्कृत के एक श्लोक 'साहित्यसंगीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:।' की याद दिलाते हैं-</span></p><p><span style="color: #990000;">बिना इंसानियत के आदमी है जानवर जैसा<br />भले इंसान लगता हो वो चेहरे की बनावट से</span></p><p><span style="color: #351c75;">इस मनुष्यता के ह्रास को देखते हुए वे दुनिया की तमाम बच्चियों को इस शेर के माध्यम से एक ज़रूरी सलाह देते हैं-</span></p><p><span style="color: #990000;">अब यकीं करना नहीं ऐ बेटियो! तुम<br />आदमी ये आदमी है कौन जाने</span></p><p><span style="color: #351c75;">समाज की चिंता, मनुष्यता की चिंता, ख़राब होते परिवेश की चिंता, आम आदमी की चिंता उर्दू शायरी की परम्परा से होते हुए भी अवधेश 'संदल' की शायरी में इन सब सरोकारों का होना प्रभावित भी करता है और उर्दू की युवा पीढ़ी के शायरों के प्रति आश्वस्त भी।</span></p><p><span style="color: #351c75;">इनकी ग़ज़लों में कहन का अलहदा अंदाज़ भी जगह-जगह देखने को मिलता है। समय की नब्ज़ पकड़कर अवधेश जी आज की बातचीत के लहजे को अपने मिसरों में रखकर शेर को अलग तरह का स्टाइल देते हुए दिखते हैं। ग़ज़ल जैसी लोकप्रिय विधा में कुछ अलग करने की कोशिश लगातार देखी भी जाती रही है और देखी भी जानी चाहिए। इसी से विधा का सतत विकास संभव है और ग़ज़लकार के कौशल का भी। अलग तरह की कहन के कुछ शेर देखें-</span></p><p><span style="color: #990000;">मेरे कहने पे कर यकीं पगली<br />क्यूँ किसी के कहे में लगती है</span><br />____________</p><p><span style="color: #990000;">यूँ न ख़तरों से खेलिए 'संदल'<br />जान है तो जहान है भैया</span><br />____________</p><p><span style="color: #990000;">या तो हम ही हो जाएँगे ठोकर खाकर चकनाचूर<br />या अपनी हिम्मत के आगे होगा पत्थर चकनाचूर</span></p><p><span style="color: #351c75;">उम्दा ग़ज़लगोई से अगवत करवाता तथा रचनाकार के सरोकारों के प्रति आश्वस्त करता यह ग़ज़ल संग्रह निश्चित रूप से पठनीय है। आशा है ग़ज़लकार का यह पहला संग्रह उनकी लेखकीय यात्रा में एक उल्लेखनीय पड़ाव साबित होगा।</span></p><p><br /></p><p><br /><span style="color: #990000; font-size: x-small;">समीक्ष्य पुस्तक- ज़ेह्न में कुछ शेर थे<br />रचनाकार- अवधेश प्रताप सिंह 'संदल'<br />विधा- ग़ज़ल<br />प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली<br />संस्करण- प्रथम, 2021<br />मूल्य- 250 रुपये (सजिल्द)</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-28972449264307558082022-11-17T22:46:00.000-08:002022-11-17T22:46:17.901-08:00जीवन मर्म से पगी सशक्त कविताओं का संग्रह: अप्राप्य क्षितिज<p><span style="color: #0b5394;"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="color: #0b5394;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2pmUGA55SMsJs8Y_3s_tW598b96uQI-XAWQJhrelUl1CXfKxzo38V3fsImKVUqKGTWVfNSvUztMQTqwQINS0103KEpC209zpHgNCJp_V0klY9rG4dv_NKej0zEH-XBy9ATpcD28vToUr13-vqw0v1XtjvtEpjunWRPKLxHNw80AYp1F4AYuluWFX3/s720/WhatsApp%20Image%202022-11-18%20at%2010.48.12%20AM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="539" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2pmUGA55SMsJs8Y_3s_tW598b96uQI-XAWQJhrelUl1CXfKxzo38V3fsImKVUqKGTWVfNSvUztMQTqwQINS0103KEpC209zpHgNCJp_V0klY9rG4dv_NKej0zEH-XBy9ATpcD28vToUr13-vqw0v1XtjvtEpjunWRPKLxHNw80AYp1F4AYuluWFX3/s320/WhatsApp%20Image%202022-11-18%20at%2010.48.12%20AM.jpeg" width="320" /></a></b></span></div><b style="color: #0b5394;"><i><br />कविता मनुष्य की आधारभूत प्रवृत्ति है</i></b><span style="color: #0b5394;"> डॉ० जयप्रकाश पण्ड्या 'ज्योतिपुंज' द्वारा प्रस्तुत कविता की यह परिभाषा 'जीवन को दार्शनिकता के अंदाज़ में विचारने' वाले कवि सुनील पण्ड्या जी के काव्य संग्रह </span><b style="color: #0b5394;">अप्राप्य क्षितिज</b><span style="color: #0b5394;"> की भूमिका से उद्धृत है। </span><b style="color: #0b5394;">अप्राप्य क्षितिज</b><span style="color: #0b5394;"> सुनील जी का नवप्रकाशित काव्य संग्रह है, जिसमें कुल 61 छंदमुक्त कविताएँ संगृहीत हैं। सुनील जी अपनी कविताओं में जीवन को दार्शनिक अंदाज़ में देखते पाये जाते हैं। दर्शन के साथ जब कवि की गहन सम्वेदना एवं अनुभव जुड़ते हैं तो उसका रंग अधिक गाढ़ा हो उठता है। सबसे पहले इनकी ये छोटी-छोटी उक्तियाँ देखिए, जो बेहद प्रभावी हैं-</span><p></p><p><span style="color: #990000;">"मैं वर्षों पहले लिखा गया छंद विहीन संवाद हूँ"<br /></span><span style="color: #990000;">"प्रश्न पत्रों-सा है जीवन"<br /></span><span style="color: #990000;">"आँख की बदनामी प्रतिष्ठित विज्ञपति है"<br /></span><span style="color: #990000;">"मृत्यु कृतज्ञ साँस का पूर्णविराम है"</span></p><p><span style="color: #0b5394;">इनकी रचनाओं में गाँव-शहर, घर-परिवार-रिश्ते, खेत-किसान, नदियाँ-झरने, जीवन के सुलझे-अनसुलझे रहस्य, प्रेम और उसकी स्मृतियों की गूँज, प्रकृति तथा सृष्टि के साथ मानव का तादात्म्य यानी वे समस्त वस्तुएँ बिम्बित होती हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति के जीवन और रोज़मर्रा से जुडी हुई हैं। इन सबके बीच एक चीज़ जो उभर कर दिखाई देती है, वह यह कि एक कोई 'विशेष' इनके कहे-अनकहे में हर समय उपस्थित रहता है। महत्त्वपूर्ण यह कि ये उपस्थिति कवि के व्यक्तित्व को अपने आसपास के संसार से विलग नहीं करती बल्कि ख़ुद उसके आसपास कण-कण में समाहित हो जाती है।</span></p><p><span style="color: #990000;">तुम्हारा इंतज़ार मुझे/ बटुली में अन्न की/ सौंधी ख़ुशबू की तरह है<br /></span><span style="color: #990000;">जिसकी महक/ रोम-रोम को पुलकित कर देती है<br /></span>_______________</p><p><span style="color: #990000;">तुम्हारी याद का मतलब/ परिंडे पर पानी पी रहा/ गौरेया का जोड़ा<br /></span>_______________</p><p><span style="color: #990000;">तुम्हीं हो/ मेरी विलुप्त हुई/ लहर की मानिंद<br /></span><span style="color: #990000;">जिसमें घुल-मिलकर<br /></span><span style="color: #990000;">इस जीवन की/ मैं संज्ञा बन जाता हूँ</span></p><p><span style="color: #0b5394;">प्रेम के जीवित रहने के सन्दर्भ में कवि का यह कवितांश भी देखिए, जो प्रेम के एक अलग रंग के साथ प्रस्तुत होता है-</span></p><p><span style="color: #990000;">वो रखती है/ रोज़ाना शाम का दीया/ मेरे हाथ से छूने के बाद<br /></span><span style="color: #990000;">वो घर के मंदिर में/ घण्टी<br /></span><span style="color: #990000;">मेरे स्पर्श के साथ/ पकड़कर बजाती है</span></p><p><span style="color: #990000;">बात सिर्फ काम की नहीं/ वरन<br /></span><span style="color: #990000;">इस बहाने स्पर्श ज़िन्दा रहता है<br /></span><span style="color: #990000;">प्रेम ज़िन्दा रहता है</span></p><p><span style="color: #0b5394;">सुनील पण्ड्या की कविताओं में इनके आसपास का परिवेश हर समय उपस्थित रहता है। ये अपनी सम्वेदनाओं को कविता करने के लिए एकान्त नहीं तलाशते बल्कि एकान्त इन्हें अपने परिवेश से और अधिक मजबूती के साथ जोड़ता है। इनके एकान्त में 'शुष्क खेत में पपड़ी बिछायी शाम', 'किसान के हल की नोंक', 'गेंहूँ की बालियाँ', 'पक्षियों का झुण्ड', 'माँ-बाप की आँखों में घर चलाने का हिसाब-किताब', 'नीम के पेड़ के तले बस का इंतज़ार कर रहे यात्री', 'राशन की लम्बी लाइन में खड़े आदमी', 'शादी की शहनाई', 'लोहार की भट्टी से निकली चिंगारी' जैसी आम जीवन से जुड़ी न जाने कितनी क्रियाएँ-संज्ञाएँ कविताओं की शक्ल धारण करती हैं। वे कहते भी हैं-</span></p><p><span style="color: #990000;">कल्पनाओं को मैं/ सहेजकर रखना चाहता हूँ<br /></span><span style="color: #990000;">इन्द्रधनुषी इच्छाओं की तरह<br /></span><span style="color: #990000;">ताकि कल्पनाओं में/ शब्दों को भरकर<br /></span><span style="color: #990000;">जीवन के आकाश के ख़ालीपन में<br /></span><span style="color: #990000;">संवाद भर सकूँ</span></p><p><span style="color: #0b5394;">प्रकृति इनकी सम्वेदनाओं में स्वत: स्फुरित होती है। जिस तरह रोटी सेंकने के क्रम में अग्नि से निकला ताप सर्द मौसम को अनायास एक सुखद गर्माहट से भर देता है, कुछ वैसे ही सुनील जी के सृजन में प्रकृति अनायास ही उपस्थित होकर पाठक मन को उद्वेलित करती दिखती है। विलियम हैज़लिट कहते हैं- "हम प्रकृति को अपनी आँखों से नहीं, बल्कि अपनी समझ और अपने दिल से देखते हैं", सुनील भी शायद ऐसा ही करते हैं-</span></p><p><span style="color: #990000;">पेड़ कभी कुछ बोलते नहीं/ जब भी कोई पक्षियों का झुण्ड<br />बैठता है डालियों पर/ कलरव करता है<br /></span><span style="color: #990000;">तब उसे भी/ कुछ बतियाने की इच्छा हो जाती है</span></p><p><span style="color: #990000;">जब मादा पक्षी अपने/ घोंसले में अण्डे देती है<br /></span><span style="color: #990000;">तब वो भी पालता है उन्हें<br /></span><span style="color: #990000;">एक सृष्टि के रचयिता की तरह<br /></span>_____________</p><p><span style="color: #990000;">ये नदी/ आसमान/ बादल/ दरख़्त<br /></span><span style="color: #990000;">बस इन्हीं के/ इर्दगिर्द मैं हूँ</span></p><p><span style="color: #0b5394;">प्रस्तुत काव्य संग्रह की भाषा सहज, सरल तथा हिन्दी की ग्राह्य शब्दावली लिए हुए है। हाँ, कहीं-कहीं ये ठेठ हिन्दी अथवा लोक प्रचलित देशज शब्द का प्रयोग कर सम्प्रेष्ण को अधिक प्रभावी तथा सशक्त बनाते दिखते हैं। रचनाओं में कई-कई जगह ताजे बिम्ब और प्रतीक भी देखने में आते हैं। इस काव्य संग्रह से गुज़रते हुए यह सहज ही जान पड़ता है कि रचनाकार का अध्ययन एवं अभ्यास निरन्तर बना हुआ है। ये अध्ययन के माध्यम से अपने आपको तथा अपने सृजन को लगातार संवर्धित करते चलते हैं।</span></p><p><span style="color: #990000;">जीवन के/ इस दौर में<br /></span><span style="color: #990000;">'संवेदना-यात्रा' पर/ निकले आँसू<br /></span><span style="color: #990000;">अपने ही हमशक्ल/ पानी पर नाराज़ हैं<br /></span>_____________</p><p><span style="color: #990000;">ज़िंदगी/ अपनी ही फूँकनी को तरह-तरह से<br /></span><span style="color: #990000;">फूँक-फूँक कर/ धुआँ करती लकड़ियों में<br /></span><span style="color: #990000;">नयी चिंगारी भर देती है</span></p><p><span style="color: #0b5394;">कवि का प्रथम संग्रह होने के उपरान्त भी इसकी कविताएँ जीवन मर्म से पगी सशक्त रचनाएँ बनकर पाठक मन पर प्रभाव छोड़ने में सफल होती हैं। आशा है रचनाकार सुनील पण्ड्या जी अपनी कविताओं में जीवन सत्य और जीवन सत्व का उद्घाटन करते रहेंगे तथा अपने कवि को और समृद्ध बनाते रहेंगे। कविता के मर्म को समझाते इनके ही एक कथन के साथ इनके लिए मगलकामनाएँ-</span></p><p><span style="color: #990000;">कविता प्रेम और संन्यास की सन्धि नहीं<br /></span><span style="color: #990000;">वरन् मर्म को अवतरित करने का<br /></span><span style="color: #990000;">सशक्त माध्यम है</span></p><p><br /></p><p><br /></p><p><span style="color: #660000; font-size: small;"><br />समीक्ष्य पुस्तक- अप्राप्य क्षितिज<br /></span><span style="color: #660000; font-size: small;">विधा- कविता<br /></span><span style="color: #660000; font-size: small;">रचनाकार- सुनील पण्ड्या<br /></span><span style="color: #660000; font-size: small;">प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर<br /></span><span style="color: #660000; font-size: small;">संस्करण- प्रथम 2022<br /></span><span style="color: #660000; font-size: small;">मूल्य- 200 रुपये (हार्ड कवर)</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-3289470170632102732022-03-29T23:17:00.005-07:002022-03-29T23:22:44.148-07:00 जीवन जीने का सलीक़ा सिखाता संग्रह: काँच के रिश्ते<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTZtfsT77hJ1r_6Hl8ZJZMMXKC7_CF2xWILWUpWHjft8dEMB-oTzuep1MnMVr8NiIpfq1A0zd-3IWSug6olpT5M6acDquO1Wsz_m0JqdPywFY5wt6C-SBdg8JSccO8ZGnXeBSIml7ttjh7jMv1Y-MFpXN4tCriPIPdixOoLrBhkImaZsh0mJFdM27m/s1202/WhatsApp%20Image%202022-03-30%20at%2011.25.04.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1202" data-original-width="774" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTZtfsT77hJ1r_6Hl8ZJZMMXKC7_CF2xWILWUpWHjft8dEMB-oTzuep1MnMVr8NiIpfq1A0zd-3IWSug6olpT5M6acDquO1Wsz_m0JqdPywFY5wt6C-SBdg8JSccO8ZGnXeBSIml7ttjh7jMv1Y-MFpXN4tCriPIPdixOoLrBhkImaZsh0mJFdM27m/s320/WhatsApp%20Image%202022-03-30%20at%2011.25.04.jpeg" width="206" /></a></div><br /><span style="color: #351c75;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #351c75;">'गागर में सागर भरना' उक्ति का एक सटीक उदाहरण है- दोहा लिखना। इस विधा में केवल दो पंक्तियों में अपनी बात को इस तरह रखना होता है कि भाव पूरी तरह प्रकट हो जाए और पढ़ने वाला वाह भी कर उठे। दोहा हिन्दी साहित्य का प्राचीनतम छन्द होने के साथ-साथ यह गौरव भी रखता है कि हिन्दी के कई महानतम कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति इसी विधा में की। इनमें कबीर, बिहारी, रहीम और तुलसी जैसे प्रतिष्ठित नाम शामिल हैं।</span></p><p><span style="color: #351c75;">अचरज होता है कि लगभग तेरह सौ साल लम्बी यात्रा में यह छन्द कभी भी अपनी आभा नहीं खोता बल्कि लगातार परिष्कृत होता रहता है। आधुनिक समय में भी इस विधा के प्रति रचनाकारों की आसक्ति बिलकुल भी कम हुई नहीं दिखती। वर्तमान समय में भी हिन्दी के बहुत सारे कवि-कवयित्रियाँ इस विधा में उल्लेखनीय सृजन कर रहे हैं।</span></p><p><span style="color: #351c75;">शकुन्तला अग्रवाल 'शकुन' उन्हीं रचनाकारों में शामिल एक नाम हैं। शकुन जी के आधुनिक स्वभाव के दोहे अपने भीतर अनेक महत्वपूर्ण विषय समेटे हुए हैं। विषयों की व्यापकता के साथ-साथ इनके दोहों का शिल्प भी बहुत सुगढ़ मिलता है तथा ये अपने दोहों में प्रयोगात्मक होती हुई भी दिखती हैं। इनकी दोहा विधा की रचनाओं में भक्ति भाव, सामयिकता, सामाजिक अलगाव, घटती संवेदनशीलता, परिवार और रिश्तों का बिखराव, मूल्यों का अवमूल्यन, प्रेम भाव का विघटन आदि अनेक ज़रूरी बिंदुओं पर विमर्श देखा जा सकता है। पुस्तक 'काँच के रिश्ते' इनका दूसरा दोहा संग्रह है। अपने इस संग्रह में 700 दोहों को लेकर शकुन जी साहित्यागार, जयपुर के माध्यम से प्रस्तुत हुई हैं। इस पुस्तक में विविध दोहों के साथ दोहों में सरस्वती वन्दना, गुरु की महिमा, दोहों का विधान, सिंहावलोकित दोहे, दुमदार दोहे तथा ड्योढ़ा दोहे सम्मिलित हैं।</span></p><p><span style="color: #351c75;">पुस्तक में जगह-जगह भक्तिपरक दोहे देखे जा सकते हैं। ये दोहे रचनाकार के धार्मिक स्वभाव का उद्घाटन करते हुए उनके भगवान शिव का आराधक होने की पुष्टि करते हैं। अपनी इन भक्तिपरक रचनाओं में रचनाकार कहीं अपने आराधक के नाम स्मरण को ही उसके धाम की प्राप्ति का साधन बतलाती हैं तो कहीं सत्संग को सुखमय जीवन का आधार कहती हैं। कहीं वे परम-पिता शिव को तारणहार बतलाते हुए भवसागर को पार करने का सत्य समझाती हैं तो कहीं वे मोह त्यागने पर अपने ईष्ट द्वारा टोह लिए जाने का विश्वास दिलाती हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">पापों की गठरी लिये, बैठी तेरे द्वार।<br /></span><span style="color: #cc0000;">तेरी मर्जी साँवरे, दुख दे चाहे प्यार।।<br /></span><span style="color: #351c75;">______________</span></p><p><span style="color: #cc0000;">अपनी किस्मत को कभी, मत देना तू दोष।<br /></span><span style="color: #cc0000;">दाता ने जितना दिया, कर उसमें संतोष।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">नारी को हमारे भारतीय समाज में सदियों से घर जोड़ने वाली एक शक्ति के रूप में सम्मान दिया जाता रहा है। परिवार, समाज और यहाँ तक कि पुरुष को भी नारियों द्वारा ही व्यवस्थित रखे जाने का सत्य सर्वविदित है। ऐसे में वर्तमान समय में परिवारों में टूटते रिश्ते, घटता विश्वास, गिरते मूल्य परिवार को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाली नारी को सर्वाधिक दुःख देते होंगे, यह समझा जा सकता है। शकुन्तला जी के दोहों में भी कुछ इस तरह की अभिव्यक्तियाँ मिलती हैं, जो परिवारिक टूटन का दृश्य सामने रखती हैं। इस टूटन के लिए वे स्वार्थ भावना को ज़िम्मेदार ठहराती हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">धागे उलझे स्वार्थ के, माँग रहे अधिकार।<br /></span><span style="color: #cc0000;">अपनी-अपनी सब करें, टूट गया परिवार।।<br /></span><span style="color: #351c75;">______________</span></p><p><span style="color: #cc0000;">निज हित के चलते यहाँ, होते रोज़ विवाद।<br /></span><span style="color: #cc0000;">जली रोटियों-सा लगे, अब रिश्तों का स्वाद।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">बिखराव की इस समस्या का चित्रण करने के साथ-साथ वे आपसी प्रेम को इस समस्या का समाधान भी बतलाती हैं और आपसी प्रेम की महत्ता उजागर करते दोहों का भरपूर सृजन भी करती हैं। सही भी है, जहाँ प्रेम उपस्थित होता है, वहाँ स्वार्थ, अविश्वास, ईर्ष्या तथा ऐसे ही सभी विभाजक कारक स्वत: ही नदारद हो जाते हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">जीवन पतझड़ बन गया, खोई मधुर बयार।<br /></span><span style="color: #cc0000;">फूटेंगी नव कोंपलें, तनिक लुटाओ प्यार।।<br /></span><span style="color: #351c75;">______________</span></p><p><span style="color: #cc0000;">प्रेम अँकुरित जहाँ हुआ, हार गया है वैर।<br /></span><span style="color: #cc0000;">पल में अपने बन गये, लगते थे जो ग़ैर।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">हमारे समय में रचे जा रहे दोहों में समकालीनता एक महत्वपूर्ण तत्व है। समकाल की ज़रूरी हलचलों और सरोकारों को अपने दोहों में पिरोकर आज के दोहाकार अपने समय की सटीक अभिव्यक्ति कर रहे हैं। शकुन्तला जी के दोहों में भी वर्तमान की अनेक ज्वलन्त समस्याएँ, अहम मुद्दे कई ज़रूरी विमर्श करते देखे जा सकते हैं।</span></p><p><span style="color: #351c75;">देश में लगातार बढ़ते जा रहे भ्रष्टाचार पर चिन्ता व्यक्त करते हुए वे यह सच प्रस्तुत करती हैं कि इस दानव की वजह से हमारे यहाँ योग्य व्यक्ति को उसकी जगह न मिलकर उस पर पहुँच वाले अयोग्य लोगों का क़ब्ज़ा होता जा रहा है। यह दुःखद स्थिति है। और जब यह भ्रष्टाचार राजनीति में शामिल हो जाता है तब तो स्थिति और भयावह हो जाती है।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">राजनीति में बढ़ रहा, जब से भ्रष्टाचार।<br /></span><span style="color: #cc0000;">मूरख को कुर्सी मिली, ज्ञानी पहरेदार।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">इस तरह का एक और दोहा रचकर वे स्पष्ट करती हैं कि यह ऐसा ख़राब समय है कि जिसमें झूठों और मक्कारों का बोलबाला है। सच्चे लोग ऐसे समय में भयभीत हुए रहते हैं और झूठे लोग साम-दाम के रास्ते लाभ उठाते रहते हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">सिक्का झूठों का चले, झूठों का ही ज्ञान।<br /></span><span style="color: #cc0000;">कलियुग का दस्तूर है, झूठा पाता मान।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">शकुन्तला जी अपने आधुनिक भावबोध के दोहों में इस समय के ज़रूरी विषय पर्यावरण के प्रति भी अपनी चिन्ता प्रकट करती दिखती हैं। विकास के नाम पर लगातार किये जा रहे पर्यावरणीय विनाश के प्रति आगाह करते हुए वे मार्मिकता से अपनी बात पाठकों तक पहुँचाती हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">निशि-दिन जंगल चढ़ रहे, हैं उन्नति पर भेंट।<br /></span><span style="color: #cc0000;">पशु-पक्षी कैसे भरें, बोलो अपना पेट।।<br /></span><span style="color: #351c75;">______________</span></p><p><span style="color: #cc0000;">नित उन्नति के नाम पर, तरुवर लगते दाँव।<br /></span><span style="color: #cc0000;">ढूँढे भी मिलती नहीं, अब पीपल की छाँव।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">ज़ाहिर-सी बात है कि एक सामान्य व्यक्ति वह सब नहीं देख पाता, जो एक दूरदृष्टा और विशेष प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति देख लेता है। ऐसे में समाज और देश की समस्याओं को समझना और उन्हें अपनी रचनाओं में उजागर कर पाठकों को सचेत करना एक साहित्यकार का धर्म होता है। शकुन्तला जी भी अपने दोहों में जगह-जगह अपने पाठकों को सजग करती दिखती हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">समय फिसलता हाथ से, ज्यों फिसले है रेत।<br /></span><span style="color: #cc0000;">पछताएगा बाद में, चेत सके तो चेत।।<br /></span><span style="color: #351c75;">______________</span></p><p><span style="color: #cc0000;">चहुँ-दिश लूट-खसोट है, चौकस रहना मीत।<br /></span><span style="color: #cc0000;">अपने ही, विश्वास की, तोड़ रहे हैं भीत।।</span></p><p><span style="color: #351c75;">आशा एक इंसान का बहुत बड़ा सम्बल है। उम्र और समय के हर दौर में आशा ही है, जो एक हताश मन को थामे रहती है। ख़राब समय में तो यह बहुत अच्छा मार्गदर्शक बन जाती है, जो क़दम-क़दम पर इंसान को सम्भाले रखती है और हौसला देती रहती है कि बस! बहुत जल्द सुख या सफलता मिलेगी, थोड़ी और हिम्मत रख ले। कई बार कविता की कुछ पंक्तियाँ ही एक निराश व्यक्ति के लिए बहुत बड़ा सम्बल बन जाती हैं। ऐसी ऊर्जावान रचनाएँ हर दौर की ज़रूरत रहेंगी। प्रस्तुत संग्रह में भी कुछ आशा जगाते हुए दोहे मिलते हैं, जो एक हारे का सहारा बनने के लिए पूरी तरह समर्थ दिखते हैं।</span></p><p><span style="color: #cc0000;">लड़ जाती है मौत से, जब जीने की चाह।<br /></span><span style="color: #cc0000;">मुश्किल पथ में भी हमें, मिल जाती है राह।।<br /></span><span style="color: #351c75;">______________</span></p><p><span style="color: #cc0000;">फूल खिलाने की रखी, जिसने मन में चाह।<br /></span><span style="color: #cc0000;">शूल भरी चाहे डगर, करता कब परवाह?</span></p><p><span style="color: #351c75;">संग्रह 'काँच के रिश्ते' आध्यात्मिक चेतना, परिवार और रिश्तों के प्रति हमारी निष्ठा, आपसी प्रेम और सामंजस्य की आवश्यकता, समाज और उससे जुड़े सरोकारों का अंकन करती एक सुंदर कृति है। पुस्तक में आदि से अन्त तक रचनाकार का अनुभव और उसका जीवन दर्शन पाठक को जीवन जीने का सलीक़ा सिखाता है।</span></p><p><span style="color: #351c75;"><br /></span></p><p><span style="color: #351c75;"><br /></span></p><p><span style="color: #cc0000; font-size: small;">समीक्ष्य कृति- काँच के रिश्ते<br /></span><span style="color: #cc0000; font-size: small;">विधा- दोहा<br /></span><span style="color: #cc0000; font-size: small;">रचनाकार- शकुन्तला अग्रवाल 'शकुन'<br /></span><span style="color: #cc0000; font-size: small;">प्रकाशक- साहित्यागार जयपुर<br /></span><span style="color: #cc0000; font-size: small;">संस्करण- प्रथम, 2020<br /></span><span style="color: #cc0000; font-size: small;">पृष्ठ- एक सौ<br /></span><span style="color: #cc0000; font-size: small;">मूल्य- 200 रुपये (सजिल्द)</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-37864759105681525122022-01-30T21:49:00.001-08:002022-01-30T21:49:12.837-08:00ग़ज़लकार की छिपी प्रतिभा का साक्षात्कार करवाता संग्रह: अधूरी हसरतें<p><span style="font-size: medium;"><span style="color: #20124d;"> </span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhxOO4ankfQ8ZpY71rfcVLo6pm9XZHXmYsEE_cogvNjgn5L0jl9092a3bqOzWoKCmMUaP5syA_QQRhdS_GrNREyPVpqjenrE2ktNTdyYXyU3B_3hoXRk6o0UgB_yvVyYS06xydUqucMqwcxEnM1e72w3myAzQ9rYoUV_xvuMA74Beyr0OXkpqQU9v8M=s2048" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1248" height="230" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhxOO4ankfQ8ZpY71rfcVLo6pm9XZHXmYsEE_cogvNjgn5L0jl9092a3bqOzWoKCmMUaP5syA_QQRhdS_GrNREyPVpqjenrE2ktNTdyYXyU3B_3hoXRk6o0UgB_yvVyYS06xydUqucMqwcxEnM1e72w3myAzQ9rYoUV_xvuMA74Beyr0OXkpqQU9v8M=w163-h230" width="163" /></a></span></div><span style="font-size: medium;"><br /></span><p></p><p><span style="font-size: medium;"><span style="color: #20124d;">इस समय की कविता में ग़ज़ल का आकर्षण लगभग हर रचनाकार को अपनी ओर खींच रहा है। ग़ज़ल एक ऐसी छांदस विधा है, जो अपने शायर को अपनी गिरफ़्त में लेकर उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए भावों का खुला आकाश देती है ताकि वह अपनी रचनाओं से हर ख़ास और आम के दिल को छू आये। ग़ज़ल के शेरों में सचमुच एक खिंचाव होता है, जो पाठक को भी बाँधता है।<br /><br />झज्जर (हरियाणा) निवासी ग़ज़लकार मित्र सत्यवान सत्य जी भी ग़ज़ल में प्रेम में गिरफ़्तार हैं, जो स्कूली दिनों से लेखन का शौक़ रखते हैं। बीच में काफ़ी समय तक जीवन की जद्दोजहद में उलझकर लेखन रुका तो सही लेकिन परिस्थितियों के नियंत्रण में आते ही फिर यह शौक़ परवान चढ़ निकला। इस बार इंटरनेट एक मज़बूत सहारे के रूप में इन्हें मिला और नेट के ज़रिए इन्होंने अनेक उस्तादों और शायरों की संगत में अपने लेखन को ग़ज़ल की दुनिया में प्रवेश कराया।<br /><br />कुछ समवेत संकलनों के बाद ग़ज़ल विधा की इनकी यह पहली पुस्तक है। 'अधूरी हसरतें' नामक इस संग्रह में संग्रहीत इनकी 101 ग़ज़लें रचनाकार का शुरुआती लेखन होने के बावजूद इनके भीतर छिपी प्रतिभा का साक्षात्कार करवाने में सक्षम हैं। आरम्भ के समय के हर ग़ज़लकार की तरह सत्यवान सत्य जी भी हालाँकि पारंपरिक ग़ज़ल लेखन एवं उर्दू भाषा के आकर्षण में बँधे दिखते हैं लेकिन कुछ शेर ऐसे मिलते हैं, जो इनके वास्तविक स्वभाव से परिचय करवाते हैं। यह एक ऐसे रचनाकार का स्वभाव है, जो हमारे आसपास घटित होते हर भले-बुरे के लिए चिंतित एवं सचेत है। इन शेरों में ये अपने समय की ज़रूरी अभिव्यक्ति देते हुए अपनी रचनाधर्मिता का दायित्व वहन करते हैं। इनके शेरों में कहीं-कहीं हिन्दी के शब्दों का भी बहुत सुंदर प्रयोग मिलता है।<br /><br />कोरोना महामारी के दौरान जब सारा देश रुका हुआ था। भागती-दौड़ती दुनिया अचानक ठहर गयी थी। बाहर निकलना, मिलना-जुलना सब बंद था। ऐसे में पाबन्दियों के दिनों की एक वास्तविक अभिव्यक्ति देखिए, जो यह स्पष्ट करती है कि रचनात्मक लोग ऐसे बुरे दौर में भी किस तरह आज़ाद रहे-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">दर भले ही ज़िंदगी के बंद हैं<br />पर ख़यालों से तो हम स्वच्छंद हैं<br /></span><br /><span style="color: #20124d;">कोरोना-समय की बंदिशों पर ही लगभग झुंझलाहट भरा यह शेर, उस दौरान हर एक शख्स़ की भावनाएँ होकर सामने आता है। सच है, पाबंदियाँ भी एक हद तक झेली जा सकती है।<br /><br /></span><span style="color: #990000;">बला जाने ये कब उतरेगी सर से<br />निकलना हो गया मुश्किल ही घर से<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">इसी समय पर एक समझदारी भरी बात कहते हुए, एक बहुत अच्छी नसीहत देते हुए सत्यवान सत्य जी कहते हैं-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">बचेंगे तो कहेंगे हाल यारो<br />अभी सर पर है अपने काल यारो<br /><br />गुज़र कर लो जो कुछ रक्खा है घर में<br />उड़ाएँगे कभी फिर माल यारो<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">रचनाकार अपने जीवन से हासिल अनुभवों को ही मथकर अपनी रचनाओं का सृजन करता है। ये रचनाएँ एक सामान्य इंसान तथा पाठक को अपने जीवन में सजग रहने के लिए सचेत भी करती हैं और कुछ अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित भी करती है। यदि एक रचनाकार अपने समग्र लेखन के ज़रिए केवल एक इंसान को ही प्रभावित कर उसका जीवन बना सके तो यह उसकी उपलब्धि होगी। हमारे बीच भी ऐसे कई-कई लोग होंगे, जो कुछेक पंक्तियों से प्रोत्साहित हो, अपने लक्ष्य तक पहुँचे होंगे। सत्यवान जी की ग़ज़लों में भी अनुभव जनित कई शेर देखने को मिलते हैं। कुछ शेर देखिए-<br /></span><br /><span style="color: #990000;">हज़ारों आबले पैरों में बनकर फूट जाते हैं<br />मुसाफ़िर तब कहीं जाकर किसी मंज़िल से मिलता है<br />_____<br /><br />यकीं ख़ुद पर अगर करता, मशक्कत जारी रखता तो<br />किसी इंसान के हाथों में फिर कासा नहीं होता<br />_____<br /><br />ज़ुल्म के ये सिलसिले बस बर्फ के पर्वत-से हैं<br />बह चलेंगे सामने इनके अगर डट जाएगा<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">अनुभव जनित एक और शेर देखिए, जो जीवन का फ़लसफ़ा बहुत आसान-से, बातचीत के लहजे में समझाता है-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">जीवन क्या है उससे पूछो<br />जो दुख से दो-चार हुआ है<br /><br /><br /></span><span style="color: #20124d;">ऐसे लोग, जो जीवन में किसी भी क्षेत्र में असहमति दर्ज नहीं करवा पाते और हर बात में हामी भरने वालों को उकसाते हुए उन्हें गुलाम की संज्ञा देते हुए अतिवाद का विरोध जताने के लिए प्रेरित करते हैं, अपने इस शेर के माध्यम से-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">सिर्फ हामी सिर्फ हामी सिर्फ हामी<br />कब तलक बोलो करोगे यूँ गुलामी<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">चारों तरफ बढ़ते हुए आपसी वैमनस्य, अलगाव पर चिंतित होते हुए रचनाकार यह बताते हैं कि अगर इसी तरह हम एक-दूसरे से धर्म, जाति, भाषा आदि के नाम पर दूर होते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब धरती क्या, आसमान तक नफ़रतों से पट जाएगा। सीधे-सीधे रचनाकार यह कहना चाहते हैं कि आख़िर कब तक हम इस तरह लड़ते रहेंगे! इस नफ़रत का अंत कब होगा!<br /><br /></span><span style="color: #990000;">आदमी से आदमी गर इस तरह कट जाएगा<br />नफ़रतों की धूल से फिर यह फ़लक पट जाएगा<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">आये दिन हम देखते हैं कि हमारे देश में प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं के समय जब आम इंसान अपनी जान बचाने के लिए संघर्षरत होता है। ऐसे में भी हमारे देश के राजनेता तथा अन्य कुटिल लोग अपनी राजनीति चमकाने में लगे होते हैं। ऐसी स्थिति पर दुखी होकर एक संवेदनशील रचनाकार इससे अधिक भला क्या कह सकता है-<br /><br /></span><span style="color: #990000;">जो मुसीबत में सियासत कर रहा है<br />वो यक़ीनन होगा आदमखोर कोई<br /><br /></span><span style="color: #20124d;">उपरोक्त संग्रह की कई रचनाएँ अपनी भाषा, शैली तथा वर्ण्य विषय के आधार पर हिन्दी की जन सरोकार की कविता का आभास कराती है। लेकिन अधिकतर रचनाएँ ग़ज़ल की पारंपरिक रचनाओं से प्रभावित दिखती है या अभ्यास के उद्देश्य से कही गयी रचनाएँ दिखती हैं। मुझे यह विश्वास है कि रचनाकार का जन सरोकार से गहरा नाता है और वही उन्हें आम बोलचाल की भाषा की प्रभावशाली ग़ज़लें लिखने के लिए प्रेरित करता है। यदि रचनाकार हमारे यहाँ की कविता की परंपरा का कुछ अध्ययन कर सकें तो सार्थक लेखन में अच्छा स्थान बना सकते हैं।<br /><br /></span><br /><br /><br /><span style="color: #2b00fe;"><br />समीक्ष्य पुस्तक- अधूरी हसरतें<br />रचनाकार- सत्यवान सत्य<br />विधा- ग़ज़ल<br />प्रकाशक- जिज्ञासा प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद<br />संस्करण- प्रथम<br />मूल्य- 200 रुपये</span><br /><br /></span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-19807177441882498062022-01-24T06:26:00.002-08:002022-01-24T06:31:35.004-08:00जन सरोकार से जुड़ी हिन्दी ग़ज़लें: यह नदी ख़ामोश है<p><span style="color: #0b5394;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEj-4k4o4fMaRaeDFhof_rgAkk9T7jrlgWM6n5MCXl2rEhF1ds0R1xZzSl7aBRBAgNt9W_2bhMYfbe015RQZP4YSXPTaZFxw1dB8p5Gr-zOUEE0s3mjDHQfnUKdqbmky_DMM4r-306S53wiUMCY7DJzyV814rLFjXS81cqrTvpJ3gJr4-nR3yegYMyYI=s1080" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="789" data-original-width="1080" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEj-4k4o4fMaRaeDFhof_rgAkk9T7jrlgWM6n5MCXl2rEhF1ds0R1xZzSl7aBRBAgNt9W_2bhMYfbe015RQZP4YSXPTaZFxw1dB8p5Gr-zOUEE0s3mjDHQfnUKdqbmky_DMM4r-306S53wiUMCY7DJzyV814rLFjXS81cqrTvpJ3gJr4-nR3yegYMyYI=s320" width="320" /></a></div><br /> <p></p><p><span style="color: #0b5394;">हिन्दी ग़ज़ल के कुछ नाम, जिनके सरोकार सीधे-सीधे आम आदमी से जुड़े हैं, उन नामों में एक महत्वपूर्ण नाम 'हरेराम समीप' भी है। पिछले कुछ सालों में जबसे मैं इनके परिचय में आया तबसे इन्हें हिन्दी ग़ज़ल के लिए लगातार पूरी लगन और समर्पण के साथ कार्यरत पाया है। कभी संपादन तो कभी आलोचनात्मक कार्यों के माध्यम से ये निरंतर हिन्दी ग़ज़ल को समृद्ध करते आ रहे हैं। इस सबके बीच इनका रचनात्मक लेखन भी ख़ूब सामने आता रहा है। वह चाहे दोहा संग्रहों के रूप में हों, ग़ज़ल संग्रहों अथवा कविता के रूप में।<br />समीप जी के अब तक कुल छः ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। आज हम जिस संग्रह की चर्चा करने जा रहे हैं, वह इनका सातवाँ ग़ज़ल सग्रह है। जयपुर के बोधि प्रकाशन से वर्ष 2021 में आयी इस पुस्तक में समीप जी की कुल एक सौ ग़ज़लें संग्रहीत हैं। इनके पिछले संग्रहों में से अंतिम दो संग्रह भी मेरे पढ़ने में आये हैं और अब तक मैंने इनकी जितनी ग़ज़लें पढ़ी हैं, उसके आधार पर यह कहना समीचीन समझता हूँ कि समीप जी अपनी विधा के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध रचनाकार हैं।<br />इनकी रचनाओं में अपने समय का सच आईने में दीखते प्रतिबिम्ब की तरह नज़र आता है। जन सरोकार इनकी लेखनी की नज़र में हर समय मौजूद रहते हैं। अपने दौर और उसमें हो रही हर तरह की हलचलों पर इनका ध्यान बराबर रहता है और समय-समय पर यही हलचलें इनके मन-सरोवर में लहरें पैदा कर जनवादी ग़ज़लधर्मिता को जन्म देती रही हैं।<br />प्रस्तुत संग्रह यह नदी ख़ामोश है' भी पूर्ववत जनवादिता की ग़ज़लों से परिपूर्ण नज़र आता है। हालाँकि इनके पिछले संग्रहों से मुझे यह संग्रह दो मायनों में थोड़ा अलग दिखाई पड़ता है। पहला यह कि इस संग्रह तक आकर इनकी ग़ज़लों का स्वर थोड़ा मधुर हुआ है, सरसता पैदा हुई है। पिछले संग्रहों तक यथार्थ को शेर करने में कुछ शोर-शराबा होता मिलता था लेकिन यहाँ वही यथार्थ संयंत होकर आया है। दूसरा, इनकी अब की ग़ज़लों में कथ्य का और अधिक विस्तार हुआ है। या यूँ कहूँ कि इन ग़ज़लों में जीवन का हर रंग देखने को मिला है।<br />कुछ महीनों पूर्व कोरोना महामारी की दूसरी लहर में जिस समय पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था, उसी समय अधिकतर अस्पतालों में खुली लूट मची हुई थी। इंसान इंसान नहीं, कमाई की वस्तु हुआ जा रहा था। इसके हम सभी प्रत्यक्ष गवाह हैं। ऐसा नहीं कि यह लूट केवल कोरोना महामारी के समय ही दिखी, हर समय आम दिनों का भी यही हाल है। देश के प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी के शिकार लगभग हम सभी हैं। ऐसे में रचनाकार की केवल ये दो पंक्तियाँ ही देखिए, कितना कुछ कह जाती हैं-<br /></span><span style="color: #660000;">दवाख़ाने को दौलत की पड़ी है<br />हमारी साँसें खोती जा रही हैं</span><br /><br /><span style="color: #073763;">कुछ दिनों पहले राजस्थान के बहुत दूरस्थ जगह स्थित अपने गाँव जाना हुआ था। वहाँ कुछ दिन रहने के दौरान ऐसी घटनाएँ सुनने में आयीं कि नेशनल हाईवे पर स्थित दुकानों में लगातार छोटी-मोटी चोरियों की घटनाएँ हो रही हैं। अधिक जानकारी जुटाने पर पाया कि नौजवान लड़के हैं, जो स्मैक के आदी हो जाते हैं और फिर इस लत के चलते कुछेक रुपयों के लिए ऐसी चोरियाँ करते हैं। यह हाल केवल इस एक गाँव का नहीं; हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड के छोटे-छोटे क़स्बों-शहरों का भी है। इस गंभीर मुद्दे पर भले ही हमारा, हमारी सरकार का या प्रशासन का ध्यान न जाता हो, शायर का ध्यान ज़रूर गया है। चिंतन को विवश करता समीप जी का यह शेर देखिए-<br /></span><span style="color: #660000;">कबाड़ बीनते बच्चों की ज़िंदगी देखो<br />कबाड़ बेच के वो फिर चरस खरीदेंगे</span> <br /><br /><span style="color: #0b5394;">पिछले कुछ समय से हमारे देश में अनेक उपक्रमों के बेचे जाने की ख़बरें आती रही हैं। वह कोई बैंक हो, एल आई सी हो या एयरलाइन्स सब बिकाऊ हो चला है। रचनाकार हम सबकी ही तरह अपने देश को एक दुकान में बदलते देख आहत होता है और यह शेर कह जाता है-<br /></span><span style="color: #660000;">सबकुछ बिकाऊ हो गया है आजकल यहाँ<br />तब्दील हो गया है वतन इक दुकान में<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">इधर दिनोंदिन विज्ञान प्रगति कर रहा है और उधर मानव-मन से संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं। दुनिया के सभी देश चन्द्रमा, मंगल, अंतरिक्ष आदि पर अधिकार जमाने की फ़िराक में हैं और लगातार ऐसे एक्सपेरिमेंट किये जाते हैं कि जिसके ज़रिए वे इन सब पर हावी हो सकें लेकिन दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग तथा संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी के अस्तित्व पर आफ़त आयी पड़ी है। इस सच्चाई को अपनी ग़ज़ल में शेर करते हुए ग़ज़लकार कहता है कि-<br /></span><span style="color: #660000;">क़ब्ज़े की जंग चल रही है आसमान पर<br />आई हैं मुश्किलें यहाँ धरती की जान पर<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">वहीं संवेदनाओं से रिक्त होते जा रहे मानव के लिए रचनाकार चिंतित होते हुए विचारता है कि-<br /></span><span style="color: #660000;">कहाँ से हम गुज़रते जा रहे हैं<br />सभी एह्सास मरते जा रहे हैं<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">ये कुछ ऐसे शेर हैं, जो कहीं न कहीं हमारी भी भावनाएँ, हमारी भी उथल-पुथल अपने भीतर संभाले हुए हैं। हमारे जीवन के और हमारे समय के वर्तमान हालात जिस छटपटाहट का अनुभव कराते हुए गुज़र रहे हैं, उसमें आज हर चिंतनशील व संवेदनशील व्यक्ति के भाव कुछ इसी तरह सुलगते तवे पर रखे हैं। यहाँ ऐसे मुश्किल दौर में बहुत कम लोग हैं, जो कुछ बोल पा रहे हैं और उन कम में भी बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो प्रश्न कर पा रहे हैं। आज के दौर में प्रश्न कर पाने वालों को तो बहादुर ही कहा जाना ठीक लगता है। प्रस्तुत संग्रह के रचनाकार भी उन बहादुरों में एक हैं, जो इस नफ़रत और घुटन के माहौल में हमारी तरह केवल दुखी या परेशान नहीं, निरंतर प्रश्नरत हैं-<br /></span><span style="color: #660000;"><br />आपका नारा है 'सबका साथ और सबका विकास'<br />है अगर यह साथ सबका इसमें यह 'सब' कौन है<br /></span>____________<br /><span style="color: #660000;">सबसे ज़्यादा आप मुखर थे वैचारिक चौपालों में<br />ऐसा क्या परिवर्तन आया, आज निरुत्तर बैठे हैं<br /></span>____________<br /><span style="color: #660000;">जो भूख है तो सब्र करो और चुप रहो<br />हाकिम के साथ-साथ चलो और चुप रहो<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">ऐसा नहीं कि इस संग्रह का रचनाकार केवल सत्ता और सरकार के ख़िलाफ़ मुखर है, उसी से सवाल करता है बल्कि वह अपने समाज और उसमें बसे हर ग़ैर ज़िम्मेदार व्यक्ति के रवैये से ना-ख़ुश है। ये हम ही हैं, जो अपने देश को, अपने समाज को इन ख़राब स्थितियों तक लाये हैं।<br /></span><br /><span style="color: #660000;">न सूरज ने बदले, न तारों ने बदले<br />ये मंज़र हमारे हमारों ने बदले<br /></span>____________<br /><span style="color: #660000;">जहाँ मिल-जुल के रहना है ज़रूरी<br />वहाँ अब बढ़ रही आपस की दूरी<br /></span>____________<br /><span style="color: #660000;">कुछ यहाँ भेदभाव से ख़ुश हैं<br />कुछ शहर के तनाव से ख़ुश हैं<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">हरेराम समीप जी की ग़ज़लें, ग़ज़ल के पारंपरिक ढर्रे पर चलती बिलकुल भी नहीं दिखतीं बल्कि इनकी ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़ल की अवधारणा को मज़बूत करती हैं। इनकी ग़ज़लें भले ही क्लासिक का आभास न दें लेकिन ये अपने समय के जन सरोकारों को अपने शेरों के माध्यम से बा-ख़ूबी बयान करती हैं। यहाँ हमें इनकी ग़ज़लों में हिन्दी कविता वाला वह स्वभाव स्पष्ट दिखाई देता है, जो अपने शब्दों में समाज और अपने आसपास की उथल-पुथल को पाठक के सामने रखकर उसे हक़ीक़त का आभास कराता है और उसे सोचने पर विवश करता है। सीधे-सीधे यह कि इनकी ग़ज़लें अपने समय के ज़रूरी मुद्दों पर चिंतन करती हुई पाठक को विमर्श करने के लिए आमंत्रित करती हैं।<br />जब वे कहते हैं कि-<br /></span><span style="color: #660000;">ज़ुल्म सहकर भी अगर वो आदमी ख़ामोश है<br />ये समझ लो इक दबा ज्वालामुखी ख़ामोश है<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">तो इन दो पंक्तियों में वे एक सच्चाई सामने रखते हैं, जो पाठक के ज़ेहन को किसी दलित व्यक्ति या एक प्रताड़ित नारी से होते हुए उन तमाम लोगों का अक्स बनाने पर विवश करते हैं, जो एक विस्फ़ोट के साथ जागे हैं। उनके जागने से समाज ने नयी करवट ली है। यह शेर यह नसीहत भी हमारे सामने रखता है कि किसी को भी ज़रूरत से ज़्यादा परेशान नहीं करना चाहिए अन्यथा परिणाम घातक होते हैं।<br /></span><span style="color: #660000;">ख़्वाहिशें फिर ख़्वाहिशें फिर ख़्वाहिशें<br />आप गिर जाएँगे इतने भार से<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">इस शेर के माध्यम से समीप जी आज के भागमभाग समय में बहुत कम अवधि में बहुत ज़्यादा बटोर लेने की चाहत रखने वाले इंसान की इस फ़ितरत पर एक चुटकी लेते हुए उसे आगाह करते हैं कि ये 'अति' कहीं सर्वनाश न कर दे। इसके साथ ही यहाँ रचनाकार पाठक को यह समझाने का प्रयास करता है कि उससे पहले कि ख़्वाहिशें उसे खा जाएँ, वह सब्र करना भी सीख ले। इसी सीख को वह इस तरह शेर में व्यक्त करता है-<br /></span><span style="color: #660000;">जहाँ संतोष है, परिवार ख़ुश है, प्यार है घर में<br />वहाँ थोड़ी कमाई में गुज़ारा ख़ूब चलता है<br /></span><br /><span style="color: #0b5394;">अपने समय की समस्याओं, परेशानियों तथा विसंगतियों को उकेर कर हमें सोचने के लिए उकसाता, हमारी समन्वयवादी प्रकृति तथा एकता की ताकत का एह्सास करवाकर हमें नफ़रत के ख़िलाफ़ खड़े होने को प्रेरित करता, शक्ति और व्यवस्था को अपनी ग़लतियों का आभास कराता-लताड़ता, आम जन से जुड़े सरोकारों वाली हिन्दी कविता को आगे बढ़ाता यह संग्रह निश्चित रूप से हिन्दी ग़ज़ल एवं पाठकों को समृद्ध करेगा, इसे पढ़कर यह विश्वास होता है।<br /></span><br /><br /><br /><br /><span style="color: #20124d;">समीक्ष्य संग्रह- यह नदी ख़ामोश है<br />विधा- ग़ज़ल<br />रचनाकार- हरेराम समीप<br />प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर<br />संस्करण- प्रथम, 2021</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-33459576203000894482021-06-05T23:16:00.002-07:002021-06-05T23:16:32.582-07:00ज़मीनी आदमी के जीवन/समाज के भले-बुरे को शब्दबद्ध करती ग़ज़लें<p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiEe8-chDaDFPxX5Rg8EmMKUACn8U2GHtAWiAtfXBQGgDKDMWF16_cm4sBDtKrPI_IhkIzxdoHqAGeLi0EMTnGQsNtgPfT5elqUEHf0BfzqawI0pv5Hhz2RnsJXCLZy3BO444hDH08aio/s1280/WhatsApp+Image+2021-06-06+at+11.33.33+AM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="color: #990000;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="809" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiEe8-chDaDFPxX5Rg8EmMKUACn8U2GHtAWiAtfXBQGgDKDMWF16_cm4sBDtKrPI_IhkIzxdoHqAGeLi0EMTnGQsNtgPfT5elqUEHf0BfzqawI0pv5Hhz2RnsJXCLZy3BO444hDH08aio/w202-h320/WhatsApp+Image+2021-06-06+at+11.33.33+AM.jpeg" width="202" /></span></a></div><span style="color: #990000;"><br /></span><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><p><span style="color: #990000;">कुछ समय पहले सुरेश पबरा 'आकाश' जी का ग़ज़ल संग्रह 'वो अकेला' मिला। यह उनका पहला प्रकाशित संग्रह है, जो पहले पहल प्रकाशन, भोपाल से आया है। इस संग्रह में कुल 68 ग़ज़लें संग्रहित हैं। सुरेश पबरा जी दुष्यंत कुमार की ग़ज़लगोई से प्रभावित हैं और उन्हीं की तरह आम आदमी के दुःख को अपनी ग़ज़लों में बाँधने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार, "हिन्दी ग़ज़ल केवल मनोरंजन ही नहीं कर रही, बल्कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है।" बात सोलह आने सच है।</span></p><p><span style="color: #990000;">यह संग्रह पढ़ने बाद कहा जा सकता है कि इनकी ग़ज़लें वर्तमान समय की बेबाक अभिव्यक्ति है। पुस्तक के रचनाकार सुरेश पबरा जी कभी सत्ता, कभी समाज तो कभी ख़ुद को अपनी कमियों के लिए लताड़ते हैं। यानी एक रचनाकार के रूप में वे पूरी तरह से सजग हैं। समाज और अपने आसपास को सचेत करते रहने का गुण ही तो हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख गुणों में एक है। सुरेश पबरा जी अपनी ग़ज़लों के ज़रिए यह काम बा-ख़ूबी करते हैं-</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">शराफ़त से सहना ग़लत बात को<br />मियां बुज़दिली है शराफ़त नहीं</span></p><p><span style="color: #990000;">********</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">तुम ग़लत हो इसलिए सहमे हुए हो<br />वो नहीं डरता किसी से जो सही हो</span></p><p><span style="color: #990000;">इनकी ग़ज़लें सामान्य आदमी की अपनी भाषा और परिवेश की ग़ज़लें हैं। बिना किसी भारी शब्द का इस्तेमाल किये; वे एक सामान्य आदमी के जीवन से जुड़े अनुभवों और भावों को अपने शेरों में पिरोते हैं।</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">होते हैं आदमी के जैसे दिन<br />वैसा उसका लिबास होता है</span></p><p><span style="color: #990000;">********</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">आज अगर थम जाए बारिश तो धनिया को काम मिले<br />काम नहीं कल मिल पाया था भटका दिन भर बारिश में</span></p><p><span style="color: #990000;">अपनी ग़ज़लों में पबरा जी कहीं-कहीं मुहावरों का भी ख़ूबसूरती से प्रयोग करते हैं। 'दुखों का दादरा गाना', 'चुल्लू भर पानी में डूबना', 'पंगा लेना' जैसे मुहावरे हमें उनके शेरों में दिखाई पड़ते हैं। हिंदी ग़ज़लों की पहचान ही यही है कि उसमें हिंदी कविता के भाषाई संस्कार दिखलायी पड़ते हैं।</span></p><p><span style="color: #990000;">सुरेश पबरा 'आकाश' जी की सीधी-सपाट अभिव्यक्ति की ग़ज़लों में कहीं-कहीं प्रतीकात्मकता के भी दर्शन होते हैं। प्रतीकात्मकता ग़ज़ल ही नहीं, सम्पूर्ण कविता का महत्वपूर्ण गुण है। हालाँकि हिंदी की ग़ज़लें अक्सर ही बहुत सपाट होती दिखती हैं। कविता के इस दौर में सपाटबयानी भी ज़रूरी है लेकिन प्रतीकात्मकता की अपनी अहमियत है।</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">क्या बर्फ थी गर्मी मिली फ़ौरन पिघल गयी<br />मौका मिला तो आपकी नीयत बदल गयी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">तू ही बता दे किस तरह पाएगा वो पतंग<br />जब डोर उसके हाथ से कब की फिसल गयी</span></p><p><span style="color: #990000;">आज हर ओर स्वार्थ हावी है। चाहे वह समाज का कोई भी क्षेत्र हो, पूछ पैसे और पद की है। व्यक्तित्व और भावनाओं से किसी को सरोकार नहीं। हर कोई स्वार्थवश समर्थ व्यक्ति के आसपास इस उम्मीद से मंडराता है कि किसी तरह उसकी कोई साध पूरी हो जाए। मधुमक्खियों को फूलों की रंग-सुगंध से क्या सरोकार! उन्हें केवल रस चाहिए होता है। वह मिल गया फिर जय राम जी की। समाज में दिखलाई पड़ते इस तरह के दृश्यों को शब्द देकर रचनाकार कुछ इस तरह यथार्थ बयान करते हैं-</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">कितना छोटा आदमी था वो मगर<br />कितना ऊँचा कर दिया पद ने उसे</span></p><p><span style="color: #990000;">अक्सर यह देखा गया है कि इंसान के लिए अच्छी आदतों को अपनाना बहुत मुश्किल होता है। वह चाहकर भी अच्छे इरादे, अच्छे काम नहीं कर पाता लेकिन ख़राब आदतें तुरन्त जीवन का हिस्सा हो जाती हैं और साथ ही उन्हें अपनाने में आनंद भी बहुत आता है। जबकि इंसान यह जानता है कि अमुक आदत उसके लिए नुकसानदायक है लेकिन वह अपनी इच्छाओं के आगे बेबस बना रहता है। यहाँ रचनाकार हमें सचेत करते हुए कहते हैं-</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">चीज़ जो हमको मज़ा देती है<br />ज़िंदगी में वो सज़ा देती है</span></p><p><span style="color: #990000;">********</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">मालूम है ये चीज़ सज़ा देगी किसी दिन<br />पर आज तो हम उसमें मज़ा ढूँढ रहे हैं</span></p><p><span style="color: #990000;">सुरेश पबरा जी की ग़ज़लें निम्न वर्ग और वंचितों की आवाज़ बनती दिखती हैं। इनके लेखन में सभी के कल्याण का भाव दृष्टिगत होता है, अम्न की चाहत दिखाई देती है। इनकी ग़ज़लें आज के समय का चित्रांकन करती हैं। यानी इनके लेखन में वे गुण हैं, जो उत्कृष्ट साहित्य की माँग होते हैं लेकिन अभी पबरा जी को अपनी ग़ज़लगोई पर और मेहनत की ज़रूरत है। एक रचनाकार समय के साथ धीरे-धीरे सीखता जाता है और इस तरह वह संपूर्णता की ओर बढ़ता है। पबरा जी को भी इस संपूर्णता के लिए अपना सफ़र जारी रखना चाहिए। अभी इनकी ग़ज़लों में कहीं-कहीं शिल्प ख़राब होता मिलता है तो कहीं क़ाफ़ियाबंदी दिखाई देती है। कहीं-कहीं कहन को तराश की ज़रूरत महसूस होती है।</span></p><p><span style="color: #990000;">ज़मीनी आदमी के जीवन/समाज के भले-बुरे को शब्दबद्ध करती ये ग़ज़लें अपने समय की अभिव्यक्ति है। यह संग्रह ग़ज़लकार की एक ईमानदार कोशिश है और इसीलिए यह पुस्तक सराहना के कुछ शब्दों की हक़दार है।</span></p><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">समीक्ष्य पुस्तक- वो अकेला<br />विधा- ग़ज़ल<br />रचनाकार- सुरेश पबरा 'आकाश'<br />प्रकाशन- पहले पहल प्रकाशन, भोपाल<br />पृष्ठ- 68<br />मूल्य- 200 रुपये (हार्डबाउंड)</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-61815267361845682942021-04-21T11:32:00.004-07:002021-04-21T11:36:35.191-07:00हाशिये के आदमी के साथ खड़ा संग्रह: हाशिये पर आदमी<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw2AypDPofBrStJUaoFY3CSGvegW9fgHiio0Eillqt-azjAIYsnQIRKB38I_sTUITw6K1lVzP_slJFyN7ZxwMjKxSwsndwgnUuvjbmABfydUY2BS_6hQ0mAdFU_pmWZdLdWL_yzYxm8ls/s821/WhatsApp+Image+2021-04-07+at+10.36.05+AM.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="821" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw2AypDPofBrStJUaoFY3CSGvegW9fgHiio0Eillqt-azjAIYsnQIRKB38I_sTUITw6K1lVzP_slJFyN7ZxwMjKxSwsndwgnUuvjbmABfydUY2BS_6hQ0mAdFU_pmWZdLdWL_yzYxm8ls/s320/WhatsApp+Image+2021-04-07+at+10.36.05+AM.jpeg" width="320" /></a></div><span style="color: #990000;"><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p>हिंदी ग़ज़ल में युवा पीढ़ी के रचनाकार अपनी बात मज़बूती के साथ रख रहे हैं। उनके पास ग़ज़ल के शिल्प की पर्याप्त समझ भी है, कथ्य की विविधता भी है, गहन सम्वेदनाएँ भी हैं और उनकी बुनावट का सलीक़ा भी है यानी आज के युवा हिंदी ग़ज़लकार पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपनी ग़ज़लें गढ़ रहे हैं।</span><p></p><p><span style="color: #990000;">इन ग़ज़लकारों में एक नाम बारां (राजस्थान) निवासी अश्विनी त्रिपाठी का भी शुमार किया जा सकता है। अश्विनी त्रिपाठी अपने पहले ग़ज़ल संग्रह 'हाशिये पर आदमी' से ही अपनी आमद का अह्सास करवाते हैं। बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित इस संग्रह में इनकी कुल 84 ग़ज़लें संगृहीत हैं, जो इनके लेखन के स्वभाव से परिचय करवाने में पूर्णत: समर्थ हैं।</span></p><p><span style="color: #990000;">अश्विनी त्रिपाठी अपनी ग़ज़लों की भाषा आम-जन द्वारा बोली जाने वाली बातचीत की भाषा के आसपास रखते हैं, जो हिंदी की प्रकृति के बहुत समीप दिखती है बल्कि वे कभी-कभी ठेठ हिंदी शब्दों का भी अपनी ग़ज़लों में बड़ी सुंदरता से इस्तेमाल करते हैं।</span></p><p><i><span style="color: #351c75;">नदी के रुदन की क हानी कहेगा<br />तसल्ली से जाकर मुहाने से पूछो</span></i></p><p><i><span style="color: #351c75;">जो आँगन की उपयोगिता पूछनी है<br />नए से नहीं, कुछ पुराने से पूछो</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #351c75;">शब्दजालों के लिए कुछ वर्ण चुनती मकड़ियों से<br />वर्णमाला प्रेम के आखर बचाना चाहती है</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #351c75;">धीरज रख सब देख रहा है वह ऊपर वाला<br />मेहनतकश को मेहनत का फल जमकर देता है</span></i></p><p><span style="color: #990000;">इन शेरों में वे मुहाने, उपयोगिता, शब्दजाल, वर्ण, धीरज तथा मेहनतकश जैसे शब्दों का प्रयोग सलीक़े से करते हैं और साथ ही ग़ज़ल के नाज़ुक स्वभाव को भी क़ायम रखते हैं।</span></p><p><span style="color: #990000;">ग़ज़ल को अपने मूल स्वभाव के साथ लिख लेने के अलावा अश्विनी जी अपने शेरों में प्रतीकात्मकता का भी इस्तेमाल करते हैं। प्रतीकात्मकता कविता का एक प्रमुख गुण है, जो उसके प्रभाव को कई गुणा बढ़ा देता है और उसे कई आयाम देता है। इस संग्रह में रचनाकार परंपरागत प्रतीकों के साथ अपने दौर को उकेरता है-</span></p><p><i><span style="color: #351c75;">छाँव याद है पेड़ों की, फल याद रहे<br />भूल गये हम बीजों की क़ुर्बानी को</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #351c75;">समंदर को भी कमतर आँकते हैं<br />कुएँ से जो निकल पाते नहीं हैं</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #351c75;">जिस नदी ने शहर से होकर गुज़रना तय किया<br />उस नदी के साथ सागर तक कई नाले गये</span></i></p><p><span style="color: #990000;">अश्विनी त्रिपाठी जी की ग़ज़लों का सबसे मज़बूत पक्ष उनका समकालीन कथ्य है। वे अपनी लगभग हर ग़ज़ल में अपने समय, अपने परिवेश को उकेरते देखे जाते हैं। वह कविता, जिसमें अपना काल तथा उससे जुड़े संदर्भ न दिखते हों, वह केवल शब्दों का पुलिंदा मात्र है। ऐसी कविताएँ मन को घड़ी भर छू तो सकती हैं लेकिन किसी मन पर अपने दस्तख़त नहीं कर पातीं। यहाँ ग़ज़लकार के अपने समय का संदर्भ देते कुछ शेर द्रष्टव्य हैं-</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">प्यार में अभिव्यक्तियों का दौर है<br />प्यार में एह्सास कम है इन दिनों</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">हमको औज़ार की ज़रूरत थी<br />हम तो हथियार तक चले आये</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">भाइयों की आपसी तकरार से डरने लगे हैं<br />घर के आँगन आजकल दीवार से डरने लगे हैं</span></i></p><p><span style="color: #990000;">खेत और किसान हमारे देश के लिए हर समय में महत्वपूर्ण रहे हैं। ये आज भी उतने ही ज़रूरी हैं, जितने सदियों पहले हुआ करते थे। भले ही हम सुविधाभोगियों को अब इस बात का आभास न होता हो। अश्विनी जी की ग़ज़लों में हमें कहीं-कहीं खेत-खलिहान और खेती-किसानी की महक भी मिलती है। रचनाकार का स्वयं देहात से जुड़ाव होना यहाँ इनके शेरों में और धार पैदा करता है। कुछ शेर देखिए-</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">मेरी बरसात पर लिखी ग़ज़ल को दाद क्या देता<br />डरा-सहमा हुआ था जो कृषक बरसात को लेकर<br /></span></i><span style="color: #990000;">यहाँ रचनाकार ने अतिवृष्टि को लेकर किसान-मन की कसक का मार्मिक चित्रण किया है।</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">सिकुड़ती हुई खेत की मेड़ के थे<br />कई प्रश्न जिनके मैं हल लिख न पाया<br /></span></i><span style="color: #990000;">दो भाइयों और पड़ोसियों की लालच तथा रंजिश के अलावा अर्थाभाव का भी कोण इस शेर से निकलता है। इस शेर को कई आयामों से पढ़ा जा सकता है।</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">खेत में गेंहूँ की पकती बालियों को देखकर<br />खेतिहर के घर में ढेरों ख़्वाहिशें पलने लगीं<br /></span></i><span style="color: #990000;">यह उम्मीद व आकाँक्षाओं का शेर बन पड़ा है, जो ग्रामीण परिवेश के सांस्कृतिक परिदृश्य का एक छोsssटा-सा पहलू हमारे सामने रखता है।</span></p><p><span style="color: #990000;">दुनिया के सामने बीते की मिसालें रखते हुए भले-बुरे की समझ देना एक रचनाकार का दायित्व माना जाता है। जिस तरह दृश्य के आर-पार एक रचनाकार देख पाता है, वैसे एक सामान्य व्यक्ति नहीं देख पाता। कहा भी तो गया है- जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। प्रस्तुत संग्रह में ग़ज़लकार कुछ ज़रूरी नसीहतें लिए मिलता है-</span></p><p><span style="color: #20124d;">अगर हम प्यार करना सीख लेते<br />अना पर वार करना सीख लेते</span></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><span style="color: #20124d;">सिसकियों को ढालकर मुस्कान में<br />ज़िंदगी को और प्यारा कीजिए</span></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><span style="color: #20124d;">जीवन को आसान रखो<br />अपनी हद का ध्यान रखो</span></p><p><span style="color: #990000;">ये छोटे-छोटे और सहज-सरल सूत्र बेशकीमती हैं।</span></p><p><span style="color: #990000;">अमूमन यह पाया जाता है कि एक कवि थोड़ा-बहुत दार्शनिक भी हुआ करता है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह जीवन को औरों से ज़्यादा क़रीब से महसूस करता है। दूसरा यह कि जो जीवन के इम्तिहान ज़्यादा देता है, वह अनुभव भी उतना ही बटोरता है और कवि तो अधिक संवेदनशील होने के कारण वैसे ही क़दम-क़दम पर इम्तिहान देते हैं। जब कभी दर्शन शेरों में ढलते हैं, तो वे शेर दीपक बन जाया करते हैं, जो अनेक राहों को रोशन करते हैं। अश्विनी जी के कुछ 'दीपक' देखिए-</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">जो गहराई तलक जाते नहीं हैं<br />वो ऊँचाई कभी पाते नहीं हैं</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">विफलताओं ने तोड़े हैं सदा ही दंभ के पर्वत<br />सफलताओं ने सिखलाया हमें मग़रूर हो जाना</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">जिस पीपल ने जितना ज़्यादा ताप सहा<br />वह उतनी ही ज़्यादा छाया करता है</span></i></p><p><span style="color: #990000;">प्रेम इंसानी ज़िंदगी का एक ऐसा घटक है, जिसने जीवन या कहिए सभ्यताओं को गतिमान रखने में सबसे अधिक योगदान दिया है। यह आज भी सृष्टि को चलायमान रखे हुए हैं। ऐसे समय में जहाँ प्रेम और आपसी सामंजस्य रिश्तों, समाज और यहाँ तक की घरों के भीतर से ग़ायब होता जा रहा है, तब इसका कविताओं में होना बहुत ज़रूरी हो जाता है। प्रेम कविता को शुष्क होने से बचाता है इसलिए हिंदी ग़ज़ल के लिए यह और ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हिंदी ग़ज़ल अपने समय के यथार्थ को उकेरते-उकेरते अनेक जगह एकरस होने का आभास देने लगती है। हाँ, यह ज़रूरी है कि अब प्रेम नए संदर्भों में हो तथा आटे में नमक जितना ही रहे अन्यथा स्वाद ख़राब होने की भी संभावना बनी रहती है। इस संग्रह में शृंगार ज़रूरत भर का है, जो मन को भाता है-</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">माँगता हूँ मैं यही भगवान से<br />प्यार हो इंसान को इंसान से</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">अँधेरे सफ़र में उजालों से होकर<br />गुज़रता हूँ तेरे ख़यालों से होकर</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #20124d;">फूल चुनने के लिए तुमने शजर को क्या छुआ<br />एक मीठी-सी लचक सब डालियों में आ गयी</span></i></p><p><span style="color: #990000;">*********</span></p><p><i><span style="color: #990000;">जिस दिन साँझ पड़े मिलने आती हो तुम<br />उस दिन सूरज धीरे-धीरे ढलता है</span></i></p><p><span style="color: #990000;">आरम्भ से अंत तक आम आदमी के जीवन से जुड़ा यह ग़ज़ल संग्रह हाशिये के आदमी के साथ खड़ा मिलता है, इसी कारण इसका शीर्षक 'हाशिये पर आदमी' उचित भी लगता है और आकर्षक भी। हिंदी ग़ज़ल की इस युवा आहट के विषय में वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कुँवर बेचैन अपनी भूमिका में कहते हैं- "अश्विनी त्रिपाठी का यह संग्रह अपने आप में इस कारण महत्वपूर्ण है क्योंकि वह ग़ज़ल के छंद-विधान और भाषा के मुहावरे की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त है और कथ्य की दृष्टि से भी। इनकी अपनी सोच, समाज के प्रति इनके कविरूप का दायित्व, भारतीय और विश्व-सन्दर्भ में इनकी जागरूकता, मानव मूल्यों को स्थापित करने की छटपटाहट आदि ये सब कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण इन्हें ग़ज़ल-साहित्य में उचित स्थान मिलेगा।</span></p><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><p><span style="color: #990000;"><br /></span></p><p><span style="color: #990000;">समीक्ष्य पुस्तक का नाम- हाशिये पर आदमी<br />विधा- ग़ज़ल<br />रचनाकार- अश्विनी त्रिपाठी<br />प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर<br />पृष्ठ- 96<br />मूल्य- 120 रूपये</span></p>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-29566323621506889782020-08-06T11:51:00.005-07:002020-08-06T11:54:28.195-07:00हिन्दी ग़ज़ल के परिवेश को मज़बूती से हमारे सामने रखता संग्रह 'चाँद छूने तक'<div><div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrAIjFUuLTdga5E0X67vic7-WVN-aXyUdF2vgCyii9Pv-P7K7pKXUqmYBtwE1wf464kyGaV0VJDbmqK9iozu8UV3VZllds9qQMpn_RjrR4Avx4LZcGkZvo4VoywAsjgX_iilxyHwaffQA/s605/chand_chhune_tk.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; display: block; margin-bottom: 1em; padding: 1em 0px;"><img border="0" data-original-height="605" data-original-width="525" height="310" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrAIjFUuLTdga5E0X67vic7-WVN-aXyUdF2vgCyii9Pv-P7K7pKXUqmYBtwE1wf464kyGaV0VJDbmqK9iozu8UV3VZllds9qQMpn_RjrR4Avx4LZcGkZvo4VoywAsjgX_iilxyHwaffQA/w269-h310/chand_chhune_tk.jpeg" width="269" /></a></div></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">हिन्दी ग़ज़ल की एक ख़ासियत यह भी है कि यह ग़ज़ल विधा के दायरों में रहते हुए हिन्दी कविता-सा परिवेश रचती है। अपने रचाव में इसकी भाषा, कहन और शैली इस तरह अपने परिवेश को समाहीत करती है कि इसका अपना एक वातावरण निर्मित होता है। हिन्दी ग़ज़लकार यह वातावरण रचने में कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करते बल्कि यह उनकी कविताई के स्वभाव में है। बोलचाल के शब्दों से अपने आसपास के परिवेश को शब्दबद्ध करते हुए कब ग़ज़ल; हिन्दी कविता के आँगन में आकर अठखेलियाँ करने लगती है, स्वयं इन ग़ज़लों के रचयिता यह अहसास नहीं कर पाते।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">पिछले दिनों पढ़े गये ग़ज़ल संग्रह <b>चाँद छूने तक</b> को पढ़ते हुए यह विश्वास और मज़बूत हुआ। जोधपुर (राजस्थान) के बेह्तरीन रचनाकार <b>दिनेश सिन्दल</b> का यह संग्रह हिन्दी ग़ज़ल के अपने परिवेश को मज़बूती से हमारे सामने रखता है।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">दिनेश सिन्दल राजस्थान सहित पूरे देश में मंच का एक प्रतिष्ठित नाम है। मंच पर इनके गीत, कविता और दोहों को धूम मचाते मैंने स्वयं देखा है। ग़ज़लों के अलावा इनके गीत और अन्य विधाओं की रचनाएँ भी उतनी ही सशक्त हैं। इसके साथ ही वे मंच और पत्रिकाओं/पुस्तकों में भी बराबर संतुलन बनाए रखते हैं। हाल ही वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़ल आलोचक हरेराम समीप जी द्वारा उन्हें हिन्दी ग़ज़ल के अब तक के प्रमुख 104 नामों में भी शुमार किया गया है।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">जहाँ इनकी ग़ज़लों की भाषा और परिवेश आकर्षित करता है, वहीं इनके शेरों के कथ्य में उपस्थित चिंताएँ तथा चिन्तन आश्वस्त करते दिखते हैं। इनकी ग़ज़लें आम इंसान की आसान-सी बोलचाल की भाषा में अपने समय का आईना बनकर उभरती हैं। इनके पास शब्द चयन और शब्द संयोजन की बहुत अच्छी समझ है, जो इनकी रचनाओं का ज़ायका बढ़ाती नज़र आती है। इनकी ग़ज़लों की भाषा के कुछ उदाहरण देखिए, मुहावरेदार भाषा और उत्कृष्ट प्रतीक योजना इनके शेरों को विशिष्टता प्रदान करती है-</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">पेड़ ने सुनकर लुटाये फूल-फल दो हाथ से</span></div><div><span style="color: #990000;">घाटियों में गा रही थी गीत संन्यासी नदी</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">____________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">कौन सुनेगा नीचे स्वर में कुछ तो ऊँचा बोल ज़रा</span></div><div><span style="color: #990000;">तू भी इन नक्कारों के घर तूती के स्वर ले आया</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">भाषा के साथ-साथ एक अच्छी बात इनकी शायरी में यह देखने को मिलती है कि इनकी कहन प्रभावी है। अमूमन हिन्दी परिवेश की ग़ज़लों में सपाटबयानी अधिक देखने को मिलती है और इसे ग़ज़ल, जो 'इशारों का आर्ट' है, में एक बड़ी कमी माना जाता है। लेकिन दिनेश सिन्दल की कहन इनकी ग़ज़लों को और अधिक आकर्षक बनाती है। ये मुहावरों और प्रतीकों का प्रयोग करते हुए अपने शेरों को बहुत सलीक़े से रचते हैं।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">मछलियों को ये पकड़ खा जाएँगे</span></div><div><span style="color: #990000;">चन्द बगुले ध्यान में डूबे हुए</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">____________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">कैक्टस तो आप जब चाहे उगा लेंगे मगर</span></div><div><span style="color: #990000;">हाथ में काँटें चुभेंगे फूल इक बोते हुए</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">____________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">अँधियारे ने सूरज को ये पाठ पढ़ाया कैसा है</span></div><div><span style="color: #990000;">तुम जब डूबो तो दुनिया पर पहले कुछ लाली करना</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">सामाजिक यथार्थ इनकी ग़ज़लों में यत्र-तत्र बिखरा मिलता है। ये अपने आसपास को बहुत बारीकी से देखते हैं और उसी बारीकी से उसे अपनी ग़ज़लों के शेरों में बाँधते भी हैं। इनकी लगभग हर एक ग़ज़ल में कोई न कोई सरोकार ज़रूर दिखाई पड़ता है। इस प्रकार दिनेश सिन्दल का रचनाकार अपने समाज के सरोकारों से गहराई से जुड़ा है।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">एक चिड़िया ने लिखी सारी ज़मीनें आपकी</span></div><div><span style="color: #990000;">आपने चिड़िया को है क्या पंख भर अंबर दिया</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">____________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">न जाने ज़िन्दगी ने क्या लिखा इनकी किताबों में</span></div><div><span style="color: #990000;">ये बच्चे वक़्त से पहले बहुत कुछ जान लेते हैं</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">____________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">बच्चों की मनुहारें, पति की फटकारें</span></div><div><span style="color: #990000;">रूप बहुत हैं उस औरत के नर्तन के</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">दिनेश सिन्दल की ग़ज़लों में हमारा समय और समाज अपनी पूरी चकाचौंध के साथ उपस्थित मिलते हैं। इनकी लेखनी कभी अपनी परम्पराओं पर गर्व करती है तो कभी अतिवाद एवं विसंगतियों से मुठभेड़ करती दिखती है। एक साहित्यकार का यह दायित्व होता है कि वह ख़राब व्यवस्था तथा विसंगतियों के ख़िलाफ़ मज़बूती से खड़ा रहे और सामान्य जनमानस को उनके भले-बुरे के प्रति सचेत करता रहे। दिनेश सिन्दल अपनी ग़ज़लों में यह काम बाख़ूबी करते हैं।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">बारिश, झरना, नदी, समुन्दर तेरे-मेरे जैसा सब</span></div><div><span style="color: #990000;">ज़िक्र नहीं पर तेरा-मेरा राजा की कविताओं में</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">आम आदमी चबा रहा है चने यहाँ पर लोहे के</span></div><div><span style="color: #990000;">और लिखा है समय सुनहरा राजा की कविताओं में</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">____________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">है रियायत धर्म भी देता रहा इतनी यहाँ</span></div><div><span style="color: #990000;">आदमी कटना जहाँ था मैमना रखा गया</span></div><div><span style="color: #990000;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">पहले जननी की ज़ुबां को खींच कर गूँगा किया</span></div><div><span style="color: #990000;">फिर यहाँ ऐ दोस्त 'वन्दे मातरम्' गाया गया</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">मुझे सिन्दल जी के आसपास रहने का भी मौक़ा मिला है और काफ़ी क़रीब से इन्हें जानने के प्रयास भी किये मैंने लेकिन इनके ग़ज़लकार और वह भी इतने प्रभावी ग़ज़लकार रूप का परिचय इस संग्रह के ज़रिये ही हुआ। कुछ समय पहले जब इनका संग्रह मिला और मैंने सरसरी तौर पर इसे देखा तो आश्चर्य हुआ। इसी उत्सुकता में व्यस्त दिनचर्या से समय चुराते हुए मैंने कई बार यह संग्रह पढ़ लिया। इस आश्चर्य की एक वजह यह भी है कि दिनेश सिन्दल जी अन्य साहित्यकारों की तरह आत्मप्रचार से दूर हैं। इतने समय के परिचय में इन्होंने कभी अह्सास नहीं होने दिया कि वे इतनी अच्छी ग़ज़लें कहते हैं। बल्कि इनके गीतों की स्तरीयता के बारे में मुझे बहुत पहले भान हो गया था और इस संबंध में मैंने इनसे बात भी की थी, शायद इन्हें याद हो। खैर देर से ही सही लेकिन एक अच्छे हिन्दी ग़ज़लकार के बारे में जानकार प्रसन्न हूँ। इनके पास कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जिनकी हिन्दी ग़ज़ल को ज़रूरत है। जैसे भाषा की मिठास और कलात्मकता के माध्यम से यथार्थ की अभिव्यक्ति।</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">सिन्दल जी के अब तक छः ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। यह इनका नवीनतम संग्रह है। जोधपुर के रॉयल पब्लिकेशन से आयी इस पुस्तक में इनकी 114 ग़ज़लें सम्मिलित हैं। संग्रह की भूमिका में उर्दू ग़ज़ल के लोकप्रिय शायर राहत इन्दौरी कहते हैं- "दिनेश सिन्दल मुझे इसलिए अज़ीज़ हैं कि वो अपनी बिसात भर शेर जो अदब, ख़ास तौर पर हिन्दी ग़ज़ल की दशा और दिशा पर बात करते हैं। इसे सजाने-सँवारने और इसकी नौक पलक दुरुस्त करने की ख़्वाहिश और कोशिश में मसरूफ़ नज़र आते हैं।"</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;">सचेत करते अनुभवजनित शेरों के साथ सिन्दल जी को इस पुस्तक के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ-</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">सतह पर तैरते हैं स्वार्थ सारे</span></div><div><span style="color: #990000;">बहुत गहरे कहीं पर भावना है</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">_________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">अनुभवों की दौलतें पायीं मगर</span></div><div><span style="color: #990000;">एक सिक्का उम्र का खोना पड़ा</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">__________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">सौंप कर जाएँगे आँखें हम उन्हें</span></div><div><span style="color: #990000;">पेड़ कुछ यूँ भी हरे रह जाएँगे</span></div><div><span style="color: #2b00fe;">__________________</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">अँधियारे से लड़ना है तो केवल मन्दिर में ही क्यों</span></div><div><span style="color: #990000;">मन के आँगन में भी हमको दीप जलाना पड़ता है</span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div><span style="color: #351c75; font-size: small;">समीक्ष्य पुस्तक- चाँद छूने तक</span></div><div><span style="color: #351c75; font-size: small;">विधा- ग़ज़ल</span></div><div><span style="color: #351c75; font-size: small;">रचनाकार- दिनेश सिन्दल</span></div><div><span style="color: #351c75; font-size: small;">प्रकाशक- रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर (राज.)</span></div><div><span style="color: #351c75; font-size: small;">संस्करण- प्रथम, 2019</span></div><div><span style="color: #351c75; font-size: small;">मूल्य- 300 रुपये (हार्डबाउंड)</span></div>निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-84251434402968776972020-03-22T22:44:00.001-07:002020-03-22T22:44:15.537-07:00इश्क़ के नीले रंग से सराबोर संग्रह: नीला नीला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd5Y8Swms1MTeszmcoisnfDnnTgZETzoQJEqenrOBid7t-uyj5uuoR-oHqdUiuY588ZuAQaG-cGAJCp9kAcktoDM3GVxLguP-JP6agHCVC-fCGyUamSJms_hFehv0DEAJwpR_yZ8MmxTY/s1600/nila-nila-kp.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="576" data-original-width="852" height="216" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd5Y8Swms1MTeszmcoisnfDnnTgZETzoQJEqenrOBid7t-uyj5uuoR-oHqdUiuY588ZuAQaG-cGAJCp9kAcktoDM3GVxLguP-JP6agHCVC-fCGyUamSJms_hFehv0DEAJwpR_yZ8MmxTY/s320/nila-nila-kp.jpeg" width="320" /></a></div>
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<span style="color: blue;">आज हम बात करने वाले हैं मुहब्बत की और सोचिए मुहब्बत की बात शायरी की ज़ुबानी हो तो कैसा मज़ा होगा!</span><br />
<span style="color: blue;">जी हाँ, नीले-नीले इश्क़ की बातें ग़ज़लों के ज़रिये बिलकुल अलहदा अन्दाज़ में करने के लिए हमसे मुख़ातिब हैं जनाब गौतम राजऋषि। वही गौतम, जिन्होंने अपने बिलकुल जुदा कहन के अंदाज़ से शायरी को नई ताज़गी दी है। वही गौतम, जो किसी भी नए-पुराने ख़याल को अपने तरीक़े से लाजवाब बना देते हैं। वही गौतम, जो बेहद आम-सी चीज़ों को शायरी में पिरोकर नायाब बना देते हैं।</span><br />
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<span style="color: blue;">इस बार कर्नल गौतम हमारे लिए पेश हुए हैं राजपाल प्रकाशन के ज़रिये, जो किताबों और लेखन की दुनिया में एक रुतबा रखता है। 'नीला-नीला' नाम के अपने इस संग्रह में ये इश्क़ के रंग में पगी अपनी 111 ग़ज़लें लेकर आये हैं, जो युवा ग़ज़लप्रेमियों के लिए किसी बेहतरीन तोहफ़े से कम नहीं है।</span><br />
<span style="color: blue;">हालाँकि प्यार, मुहब्बत और ग़ज़ल बहुत पुरानी चीज़ें हैं तो यह सवाल उठता है कि इनमें क्या नया मिल सकता है! लेकिन यक़ीन मानिए गौतम की कहन में वह कमाल है कि वे जिस चीज़ पर हाथ रख दे, उसे जगमगा कर रख सकते हैं। मेरी यह बात उन पाठकों के लिए बिलकुल नयी बात न होगी, जो गौतम को पढ़ चुके हैं। कुछ अशआर बानगी के तौर पर आप भी देखिए-</span><br />
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<span style="color: red;">ख़ामोश घर चुभा तो मैं ये सोचने लगा</span><br />
<span style="color: red;">कब उसने रख दी पैर से पायल निकाल कर</span><br />
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<span style="color: red;">तेज़ हवा के इक झोंके ने जब बादल का नाम लिखा</span><br />
<span style="color: red;">धरती के सीने पर बारिश ने पायल का नाम लिखा</span><br />
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<span style="color: red;">क़ायदे से तो मुकम्मल होनी थी दीवानगी</span><br />
<span style="color: red;">लम्स था ऐसा कि दीवाना अधूरा रह गया</span><br />
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<span style="color: blue;">गौतम अपनी इन 111 ग़ज़लों के ज़रिये मुहब्बत के अनेक अलग-अलग शेड्स खींचते हैं। रोज़मर्रा की चुटीली बातों, झगड़ों, शिकवे-शिकायतों, मनुहारों, जुदाई के लम्हों, तड़प, किसी ख़ास के लिए नर्म-मुलायम एह्सासों जैसे कई-कई कथ्यों को वे इतनी ख़ूबसूरती से शेरों में ढालते हैं कि पढ़कर मन झूम-झूम उठता है।</span><br />
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<span style="color: red;">भरी-भरी निगाह से ये देखना तेरा हमें</span><br />
<span style="color: red;">नसों में जैसे धीमे-धीमे बज रहा गिटार है</span><br />
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<span style="color: red;">लड़की ने लड़के के हाथों को हौले-से भींच लिया</span><br />
<span style="color: red;">जैसे ही हीरो ने हिरोइन को चूमा पिक्चर में</span><br />
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<span style="color: red;">रंग खिले हैं कितने सारे प्रेम कहानी में देखो</span><br />
<span style="color: red;">लाल-गुलाबी सी लड़की है लड़का नीला-नीला सा</span><br />
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<span style="color: blue;">गौतम जहाँ सामान्य शब्दों और विषयों में अलहदा शेर कहते हैं, वहीं बिलकुल ताज़े-अनछुए शब्दों/एह्सासों को इस्तेमाल करते हुए ताज़ादम शेर निकालते हैं। इनके यहाँ चाय, सिगरेट, चादर, कमरा, खिड़की, परदे, रसोई, बालकनी जैसे हमारे आसपास के सिर्फ शब्द नहीं, इन शब्दों/ जगहों/ चीज़ों से जुड़े हमारे ख़ास एह्सास मिलते हैं। वहीं मोबाइल, मैसेज, कॉल, स्पीकर, रिंग मास्टर, पोर्टिको कार, मैसेंजर, कल्चर, बैनर जैसे बिलकुल आज के शब्द इनकी ग़ज़लों का ज़ायका बढ़ाते हैं।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: red;">आँखें तो आँखें हैं जो दिखता है देखेगी लेकिन</span><br />
<span style="color: red;">जान मेरी सुन! तुझ पर ही बस सारा फ़ोकस रहता है</span><br />
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<span style="color: red;">हुआ अरसा नहीं बुझती बुझाने से भी यह कमबख्त</span><br />
<span style="color: red;">तुम्हारी याद की सिगरेट जो सुलगी हुई सी है</span><br />
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<span style="color: red;">रात गये पढ़ता रहता हूँ मैसेंजर के सन्नाटे</span><br />
<span style="color: red;">तेरी ख़ामोशी सुनता हूँ मोबाइल के स्पीकर में</span><br />
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<span style="color: red;">लहराता है हरा दुप्पटा उस छज्जे पर अक्सर जब</span><br />
<span style="color: red;">इस खिड़की में आह भरे है पर्दा नीला-नीला सा</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">गौतम आज के ग़ज़ल-परिदृश्य के उन चुनिन्दा नामों में हैं, जो तीन सौ साला ग़ज़ल को बिलकुल नई-नवेली बनाकर पेश कर रहे हैं। वे इन दिनों के ग़ज़लकारों में अपनी एकदम स्पष्ट छवि रखते हैं। इससे पहले इनका एक ग़ज़ल संग्रह आया है और भरपूर लोकप्रिय रहा है। ग़ज़ल के अलावा ये गद्य लेखन में भी हाथ आज़माते हैं और देशभर की नामचीन पत्रिकाओं में ससम्मान प्रकाशित भी होते हैं। इनके लेखन के सिलसिले को और आगे बढ़ाता यह 'नीला नीला' संग्रह इनके चाहनेवालों के दिलों में इनकी जगह को और मज़बूत करेगा, यह मेरा यक़ीन है।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">इस बेहतरीन और ताज़ादम ग़ज़ल संग्रह के लिए प्रिय ग़ज़लकार गौतम राजऋषि को दिली मुबारकबाद और आकाश भर शुभेच्छाएँ।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">समीक्ष्य पुस्तक- नीला नीला</span><br />
<span style="color: blue;">विधा- ग़ज़ल</span><br />
<span style="color: blue;">रचनाकार- गौतम राजऋषि</span><br />
<span style="color: blue;">प्रकाशक- राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली</span><br />
<span style="color: blue;">संस्करण- प्रथम 2020</span><br />
<span style="color: blue;">मूल्य- 175 रुपये</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">अमेज़न लिंक-</span><br />
<a href="https://www.amazon.in/Neela-Gautam-Rajrishi/dp/9389373190">https://www.amazon.in/Neela-Gautam-Rajrishi/dp/9389373190</a></div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-61206016729301580012020-02-19T07:11:00.000-08:002020-02-19T07:11:30.299-08:00आधुनिक हिन्दी काव्य को समृद्ध करते दोहे: दोहे पानीदार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiID36key0UAuwgHxcJsT-RAXVQ9UCzwQnbmKKNBKtcy5mphkWst0PGWKzF4-wb_7opww7KdeiMCA6pahyphenhyphenwKoZ02qxsi3dFjSzLW6fIJhEsZosnncMQYqz3jOqZa07PMgopRWHgA-COF3Y/s1600/dohe-panidar.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="373" data-original-width="512" height="145" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiID36key0UAuwgHxcJsT-RAXVQ9UCzwQnbmKKNBKtcy5mphkWst0PGWKzF4-wb_7opww7KdeiMCA6pahyphenhyphenwKoZ02qxsi3dFjSzLW6fIJhEsZosnncMQYqz3jOqZa07PMgopRWHgA-COF3Y/s200/dohe-panidar.jpg" width="200" /></a></div>
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">हिन्दी के छन्द काव्य में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम एक जाना-पहचाना नाम हैं। ये कवि, ग़ज़लकार, गीतकार, लेखक और प्रसिद्ध छन्द शास्त्री हैं। हिन्दी साहित्य की तमाम छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ पढ़ी जा सकती हैं। आने वाले अक्टूबर माह में अपने जीवन का 80वां बसन्त देखने जा रहे डॉ. ब्रह्मजीत आज भी नव-जवान पीढ़ी के साथ क़दम से क़दम मिलाकर प्रिन्ट एवं सोशल मीडिया पर बराबर सक्रिय हैं। यह हम नई पीढ़ी के रचनाकारों का सौभाग्य है कि इनके सरीखे वृद्ध और समृद्ध रचनाकार हमारे मार्गदर्शन के लिए मौजूद हैं।</span><br />
<span style="color: #274e13;">इनकी एक और ख़ासियत जो मुझे मोहती है, वह यह है कि ये अन्य स्वयंघोषित बड़े रचनाकारों की तरह आम पाठक और सामान्य रचनाकारों से दूर नहीं रहते बल्कि बहुत ही सहजता और सरलता के साथ सदा हर एक के सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं। साहित्य लेखन में इतना समय बिताने और जगह बनाने के बावजूद भी डॉ. ब्रह्मजीत आज तक नवरचनाकार की तरह अपने आपको परिष्कृत करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। यह गुण बड़े रचनाकार होने के साथ-साथ इनके बड़े व्यक्तित्व को दर्शाता है।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">पिछले दिनों डॉ. ब्रह्मजीत गौतम का एक दोहा संग्रह प्रकाशित होकर आया है। 'बेस्ट बुक बडीज' प्रकाशन से प्रकाशित हुए इस संग्रह 'दोहे पानीदार' में इनके 520 दोहे और दोहा छन्द पर आधारित एक बहुत महत्वपूर्ण लेख सम्मिलित है। यह लेख दोहा छन्द के विविध पहलुओं पर विस्तार से बात करते हुए इस लोकप्रिय छन्द में अक्सर होने वाली त्रुटियों पर प्रकाश डालता है। इस लेख में डॉ. ब्रह्मजीत दोहे के कथ्य, शिल्प और भाषा तीनों पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हैं। कुल चौदह पृष्ठों के इस लेख में वे दोहा छन्द के तमाम पहलुओं को बारीकी से समझाते हैं।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">पुस्तक में सम्मिलित किये गये इनके 520 दोहों में लगभग सभी समसामयिक और ज़रूरी विषयों को अपना कथ्य बनाते हैं। दोहा वैसे भी समाज में व्याप्त विसंगतियों के ख़िलाफ़ एक कारगर हथियार की तरह रहा है। उस पर आधुनिक दोहा तो पूर्णत: सरोकारों से लेस है। इस पुस्तक के सभी दोहे आधुनिक दोहा का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने समय को बा-ख़ूबी उकेरते हैं। भ्रष्टाचार, स्तरहीन राजनीति, घृणा का वातावरण, धार्मिक वैमनस्य, पर्यावरण का अत्यधिक दोहन और बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन आदि तमाम तरह के चिंताजनक मुद्दे इनकी रचनाओं में प्रमुखता से स्थान पाते हैं। एक सजग रचनाकार हमेशा अपने आसपास की चिंताओं पर चिंतन करना अपना धर्म समझता है। डॉ. ब्रह्मजीत भी अपना यही धर्म निभाते हैं।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">अपराधी, क़ानून के, बने हुए हैं बाप।</span><br />
<span style="color: blue;">सब सुविधाएँ जेल में, मिलतीं उनको आप।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">जातिवाद, क्षेत्रीयता, मज़हब, भाषा-भेद।</span><br />
<span style="color: blue;">लोकतंत्र की नाव में, देखो कितने छेद।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">नारे, भाषण, रैलियाँ, जाम, बंद, हड़ताल।</span><br />
<span style="color: blue;">इनमें दबकर रह गया, लोकतंत्र का भाल।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">स्वयं मालियों ने किया, अपना चमन तबाह।</span><br />
<span style="color: blue;">दोष आँधियों पर मढ़ा, वाह सियासत वाह।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">अपनी गंभीर और सटीक कहन से विसंगियाँ उकेरते डॉ. ब्रह्मजीत कभी-कभी उन पर व्यंग्य बाण भी छोड़ते हैं और तब उनके दोहा रूपी तीर और ज़्यादा पैने हो जाते हैं-</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">कुर्सी में वह ताप है, वह ऊर्जा, वह आर्ट।</span><br />
<span style="color: blue;">बूढा भी पाकर जिसे, बन जाता है स्मार्ट।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।</span><br />
<span style="color: blue;">नेताओं के स्वाद की, देनी होगी दाद।।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">इनकी रचनाओं में दर्शन भी जहाँ-तहाँ देखने को मिलता है। जीवन का एक लम्बा अरसा साहित्य को देने के बाद और जीवन को नज़दीक से समझने के बाद इनकी दृष्टि बहुत समर्थ हुई दिखती है।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">ख़ुशी-ख़ुशी जो झेलते, हर मौसम की मार।</span><br />
<span style="color: blue;">पेड़ वही बनते सबल, वे ही छायादार।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">पहले झेला शीत को, फिर पतझड़ की मार।</span><br />
<span style="color: blue;">तब बसंत को मिल सका, फूलों का उपहार।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">मिलें फूल ही राह में, मिले न कोई ख़ार।</span><br />
<span style="color: blue;">ऐसा तो सम्भव नहीं, जीवन में हर बार।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">दर्शन के साथ ही इनकी रचनाओं में सकारात्मक ऊर्जा का संचार मिलता है। इनके कई दोहे शिथिल पड़ चुकी सोच में नई जान फूँकने की सामर्थ्य रखते हैं।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">एक दीप ने हर लिया, रजनी का तम-तोम।</span><br />
<span style="color: blue;">जिसके मन विश्वास है, छू लेता है व्योम।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">ज्ञान, ध्यान, विज्ञान का, एक यही है सार।</span><br />
<span style="color: blue;">जो हिम्मत हारे नहीं, उसका बेड़ा पार।।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">वर्तमान में हमारे राष्ट्रीय परिदृश्य पर मुखर हो रहे धार्मिक अलगाव पर चिंता होना लाज़िमी है। भारतीय संस्कृति हमेशा से ही विविध-वर्णी रही है और यही लोच इसके इतनी प्राचीन होने के बावजूद सजीव बने रहने की वजह है। मनुज-मनुज के बीच उपजते अलगाव पर डॉ. ब्रह्मजीत भी चिंतित होते हैं। फलस्वरूप वे ऐसी रचनाओं का सृजन करते हैं, जो पाठक को सार्थक चिंतन की ओर प्रेरित करती हैं। धर्म और ईश्वर पर वे अपना अनुभव कुछ यूँ रखते हैं-</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">अल्लाह या ईसा कहो, या फिर कह लो राम।</span><br />
<span style="color: blue;">करता 'वही' सहायता, जब पड़ता है काम।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">पानी, छाया, धूप से, पूछो उनका रंग।</span><br />
<span style="color: blue;">तब तुम लड़ना बेझिझक, जाति, धर्म की जंग।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">हिंदू, मुस्लिम, सिख खड़े, देता सबको छाँह।</span><br />
<span style="color: blue;">पेड़ नहीं है थामता, किसी धर्म की बाँह।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">वे अनेकता में एकता को ही भारतीय संस्कृति का मूल आधार मानते हैं-</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">भाषा, सूबे, जातियाँ, मज़हब विविध प्रकार।</span><br />
<span style="color: blue;">इन सबका एकत्व है, भारत का आधार।। </span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">पर्यावरण का संतुलन बनाये रखना हमारे समय का एक ऐसा ज़रूरी मुद्दा है, जो हर मुद्दे से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा विषय है, जिससे पूरे विश्वभर का सरोकार है। पूरी दुनिया के इंसानों को अपने आपको और अपनी धरती को बचाए रखने के लिए एक जंग लड़ने की ज़रूरत है। ऐसी जंग जो अपने ही ख़िलाफ़ है और जो पर्यावरण संरक्षण के लिए लड़ी जानी है। यह वह क्रिटिकल समय है जब हमें अपनी आने वाली नस्लों के जीवन को जीने लायक बनाए रखने के लिए आत्ममंथन कर आत्मसंयम का परिचय देना है और प्रकृति में उसके आवश्यक तत्वों का संतुलन सुधारना है। इस महत्वपूर्ण विषय पर डॉ. ब्रह्मजीत गौतम कुछ यूँ विचारते हैं-</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: blue;">ऊँचे भवनों की लगी, गाँव शहर में भीड़।</span><br />
<span style="color: blue;">गौरैया है सोचती, कहाँ बनाऊँ नीड़।।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">चादर के अनुसार ही, अपने पैर पसार।</span><br />
<span style="color: blue;">रे मानव! तू प्रकृति से, व्यर्थ बढ़ा मत रार।।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;">पुस्तक 'दोहे पानीदार' जीवन के लगभग हर विषय को छूने की कोशिश करती है। तत्सम शब्दावली युक्त भाषा में प्रतीक और बिम्ब योजना का बहुत सुंदर ढंग से प्रयोग हुआ है। इन दोहों से दोहा छन्द में भाषा और शिल्प किस तरह बरता जाना चाहिए, यह सरलता से सीखा जा सकता है। पुस्तक के समस्त दोहे आधुनिक हिन्दी छन्द को ख़ूब समृद्ध करते हैं। संग्रह के सृजन एवं प्रकाशन के लिए डॉ. ब्रह्मजीत गौतम को हार्दिक शुभकामनाएँ।</span><br />
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13;"><br /></span>
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">समीक्ष्य पुस्तक- दोहे पानीदार</span><br />
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">विधा- दोहा</span><br />
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">रचनाकार- डॉ. ब्रह्मजीत गौतम</span><br />
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">प्रकाशक- बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली</span><br />
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">संस्करण- प्रथम, 2019</span><br />
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">पृष्ठ- 120</span><br />
<span style="color: #274e13; font-size: x-small;">मूल्य- 200 रुपये मात्र (पेपरबैक)</span></div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-89765071026693003172020-02-14T20:48:00.000-08:002020-02-14T20:48:05.327-08:00बेहतरीन अंदाज़ की परंपरागत शायरी: रग-रग का लहू<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1Muw9WhVmr4YtpU8Yon_eGEXWdOk3A7P4Et_YKq1GP-rzJg-caS-tCfIqTSoze6a7MbsdHjrbP1nH_wKfACEXFYl-vZAgqkxWv9bkWI-21AzgSaBFGkn0d6IfVL2640C29bRpQOhiwMs/s1600/rag-rag-ka-lahu.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1043" data-original-width="749" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1Muw9WhVmr4YtpU8Yon_eGEXWdOk3A7P4Et_YKq1GP-rzJg-caS-tCfIqTSoze6a7MbsdHjrbP1nH_wKfACEXFYl-vZAgqkxWv9bkWI-21AzgSaBFGkn0d6IfVL2640C29bRpQOhiwMs/s200/rag-rag-ka-lahu.jpg" width="143" /></a></div>
<br />
<span style="color: blue;"><i>'रग-रग का लहू'</i> सरफ़राज़ अहमद 'आसी' का हालिया प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। शेरी अकादमी, भोपाल से प्रकाशित इस संग्रह में इनकी कुल 104 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उर्दू की रवायती शायरी को पसन्द करने वाले पाठकों को इस संग्रह की ग़ज़लें बहुत प्रभावित करेंगी।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">'आसी' साहब से मेरा परिचय इनकी एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल के ज़रिये हुआ। परिचय तो शायद पहले का था लेकिन वह ग़ज़ल पढ़ने के बाद 'आसी' साहब का नाम मेरे ज़ेहन में अटक-सा गया। यह ग़ज़ल मेरे संपादन में आयी 'समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें' किताब में भी शामिल हुई। यह ग़ज़ल मेरे लिए आज भी किसी संग्रह से बढ़कर है। यह पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब है। इसकी कहन, क़ाफ़ियों और रदीफ़ का निबाह बेह्तरीन है। जब इस ग़ज़ल की बात निकली है तो आप भी इसके कुछ अशआर पढ़िए-</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;"><i>उसकी फ़ितरत है ज़माने से लिपट कर रोना</i></span><br />
<span style="color: #6aa84f;"><i>मुझको आता नहीं तहज़ीब से हट कर रोना</i></span><br />
<span style="color: #6aa84f;"><i><br /></i></span>
<span style="color: #6aa84f;"><i>काश मिल जाए वो रोने का ज़माना मुझको</i></span><br />
<span style="color: #6aa84f;"><i>माँ से फिर रूठ के बादल-सा वो फट कर रोना</i></span><br />
<span style="color: #6aa84f;"><i><br /></i></span>
<span style="color: #6aa84f;"><i>उसके रोने का था अन्दाज़ निराला 'आसी'</i></span><br />
<span style="color: #6aa84f;"><i>कभी सीने से, कभी पीठ से सट कर रोना</i></span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">हालाँकि मेरा मन तो आपको यह पूरी ग़ज़ल पढ़वाने का है, लेकिन यहाँ यह सम्भव नहीं। यह ग़ज़ल इस संग्रह में भी शामिल है।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">ग़ाज़ीपुर ज़िले के यूसुफ़पुर निवासी सरफ़राज़ अहमद 'आसी' परंपरागत शायरी करते हुए बेहतरीन अल्फ़ाज़ में अपनी बात रखते हैं। इस संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रने के बाद इनकी शायरी के और भी कई रंग मुझ पर खुले। इनके पास आम इंसान की ज़िन्दगी से जुड़े तमाम तरह के अनुभव हैं और ये अनुभव ही इनके अशआर को गहराई देते हैं। कहीं-कहीं इनकी कहन अलग ही रंग में मिलती है और तब यह जान पड़ता है कि यह कहन इनको एक अलग तरह का शायर बना सकती है। हालाँकि विषयों की विविधता होते हुए भी इनका बंधे-बंधाये ढर्रे में शायरी करना अखरता है। लेकिन जहाँ भी आसी साहब लीक से ज़रा-सा हटकर बात कहते हैं, बेह्तरीन होते दिखते हैं।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;"><i>मुझको मालूम है इक रोज़ ज़बां खोलेगी</i></span><br />
<span style="color: #6aa84f;"><i>माँग ले ज़िन्दगी मुझसे तू अभी जो लेगी</i></span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">मेरे मौला मेरी आँखों की तमन्ना है यही</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">मैं जिसे देख रहा हूँ उसे दुनिया देखे</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">मेरी बस्ती में कई ऐसे ज़मींदार भी हैं</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">एक कमरे से निकालें तो कई घर निकले</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">तोते की काविशों की वो खाता है रोटियाँ</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">देखेगा हाथ मेरा मुकद्दर बताएगा</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">ये कुछ ऐसे अशआर हैं, जो आपको मेरी उपरोक्त बात का समर्थन करते दिखेंगे।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">इनके मरहूम दादा हुज़ूर भी शायर हुए हैं और वालिद साहब भी अदब से जुड़े रहे, इसलिए यह कह सकते हैं कि शायरी इनकी रगों में खून के साथ बहती है। साथ ही इनके क़स्बे में और आसपास बेह्तरीन शायरों की फ़ौज मौजूद है, जिनकी संगत इन्हें और इनके कलाम को बेह्तर से बेह्तरीन बनाती है। यह तराश इनकी ग़ज़लों में ख़ूब नज़र भी आती है और यही वजह है कि इनका शेर कहने का सधा हुआ ढंग दिल छूता है। कुछ अशआर देखिए-</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">वो हाथों में लिए काग़ज़ की गुड़िया बेचने वाले</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">गली में अब नहीं आते खिलौना बेचने वाले</span><br />
<span style="color: blue;">यह शेर स्मृतियों की गूँज लिए हुए है और साथ ही बदलते ज़माने में चीज़ों के बदल जाने की एक टीस भी रखता है अपने भीतर।</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">उम्र गुज़री तो यह अह्सास हुआ</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">मैं न बदला, मेरी सूरत बदली</span><br />
<span style="color: blue;">बदलाव का अलग ढंग से प्रस्तुतिकरण देखिए।</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">ग़ैरत पसन्द आदमी का है यही उसूल</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">दुनिया से अपने आप को कमतर बताएगा</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">इनकी शायरी में वर्तमान समय का अक्स भी दिखाई पड़ता है। देश और समाज की चिंताएँ, पीड़ाएँ, उलझनें आदि इनके लेखन में स्पष्ट दिखाई देती हैं। भ्रष्टाचार, दोगलापन, पत्रकारिता का पतन, धार्मिक कट्टरता जैसी चिंताएँ इनके लेखन में दिखलाई पड़ती हैं। यह एक साहित्यकार का फ़र्ज़ होता है कि वह अपने आसपास घटने वाली घटनाओं का मूल्याँकन करे और उनकी अस्ल वजहों और प्रभावों को आम लोगों तक पहुँचाये।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">इज़्ज़त के साथ उसको बरी कर दिया गया</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">होता रहा अवाम में जिसकी सज़ा का ज़िक्र</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">आज ख़ुशबू की हिमायत में खड़ा है वो भी</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">जिसको पैरों से कभी फूल मसलते देखा</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">मेरी निगाह में कारे-सवाब है 'आसी'</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">किसी ग़रीब के बच्चे को रोटियाँ देना</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">देश के नफ़रत भरे मौजूदा हालात की झलक इनकी शायरी में कुछ यूँ मिलती है-</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">रंज था लेकिन गिला ऐसा न था</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">नफ़रतों का सिलसिला ऐसा न था</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">हम में तुम में दूरियाँ तो थीं मगर</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">आज है जो फ़ासिला ऐसा न था</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">इक तरफ तो सच को भी सच बोलना दुश्वार है</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">इक तरफ कुछ भी कहो आज़ादी-ए-इज़हार है</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">इन ख़राब हालात से परेशान एक शायर मिज़ाज इंसान इसका हल केवल मुहब्बत में तलाश करता है। आसी साहब भी आपसी सद्भाव और भाईचारे की हिमायत करते दिखते हैं और एक ऐसा रस्ता तलाश करने को कहते हैं, जो दरमियान का हो-</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">खेलने दो अपने बच्चों को मेरे बच्चों के साथ</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">इस बहाने दोस्ती का रास्ता बाक़ी रहे</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">वो रंग जिसपे किसी को भी इख्तिलाफ़ न हो</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">चलो तलाश करें कोई दरमियान का रंग</span><br />
<span style="color: blue;">_________</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">फिर धमाकों में कोई और न मरने पाये</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">अमन की राह में अब कोई कबूतर निकले</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">समृद्ध शायर सरफ़राज़ अहमद 'आसी' का यह संग्रह न केवल पठनीय है अपितु संग्रहणीय भी है। ख़ासकर उन नए ग़ज़लकार साथियों के लिए जो शायरी का सलीक़ा सीखना चाहते हैं। आसी साहब को उनके ही इस शेर के साथ इस संग्रह के लिए मुबारकबाद और आने वाले तमाम संग्रहों के लिए शुभेच्छाएँ कि आपकी ग़ज़ल यूँ ही बोलती रहे-</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: #6aa84f;">मैंने रग-रग का लहू देके सँवारा है इसे</span><br />
<span style="color: #6aa84f;">मैं अगर चुप भी रहूँगा तो ग़ज़ल बोलेगी</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue; font-size: x-small;">समीक्ष्य पुस्तक- रग-रग का लहू</span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">विधा- ग़ज़ल</span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">रचनाकार- सरफ़राज़ अहमद 'आसी'</span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">प्रकाशक- शेरी अकादमी, भोपाल</span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">संस्करण- अक्टूबर, 2019</span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">पृष्ठ- 136, मूल्य- 300 रूपये</span></div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-63630849778998279792020-02-11T12:24:00.000-08:002020-02-11T13:10:20.726-08:00हिन्दी ग़ज़ल का एक महत्वपूर्ण संग्रह: चुप्पियों के बीच<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjN2tlCcswfo0HFb8-uAO6DJPnVgaW9td0sIMrF-6oInWVz4AAsM3khyphenhyphendGeAc3pGOUOiEKNilA8Cgz9JIOBW-9i0hm8tQeQTE8XcqLCurbzEQQoSIoEHa298lxNQock3sz6uOHWu3mzBD0/s1600/chuppiyon-k-bich-blog.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="394" data-original-width="800" height="196" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjN2tlCcswfo0HFb8-uAO6DJPnVgaW9td0sIMrF-6oInWVz4AAsM3khyphenhyphendGeAc3pGOUOiEKNilA8Cgz9JIOBW-9i0hm8tQeQTE8XcqLCurbzEQQoSIoEHa298lxNQock3sz6uOHWu3mzBD0/s400/chuppiyon-k-bich-blog.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="color: #38761d;"><b><i><br /></i></b></span>
<span style="color: #38761d;"><b><i><br /></i></b></span>
<span style="color: #38761d;"><b><i>'चुप्पियों के बीच'</i></b> किताबगंज प्रकाशन से हाल ही में आया हिन्दी ग़ज़ल का एक महत्वपूर्ण संग्रह है। यह संग्रह डॉ. भावना द्वारा रचित है। डॉ. भावना हिन्दी ग़ज़लकारों और पाठकों के लिए एक सुपरिचित नाम हैं। आज की ग़ज़ल के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर उस्ताद ग़ज़लकार डॉ. दरवेश भारती कहते हैं कि-</span><br />
<blockquote class="tr_bq">
<span style="color: blue;">"डॉ. भावना आज की महिला ग़ज़ल-लेखन में सबसे अधिक सफल ग़ज़लकारा हैं।......इनकी ग़ज़लों में यथार्थवाद का वह रूप मिलता है, जो निश्चय ही शुभ और स्वस्थ है।..... इनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनैतिक और दैनिक जीवन के यथार्थ चित्रों से परिपूर्ण हैं। सुलगते यथार्थ को सूत्रबद्ध और व्यवस्थित करना और उनमें प्राण डालना इनकी ख़ास विशेषता है।"</span></blockquote>
<br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">जब दरवेश भारती जैसा जीनियस किसी ग़ज़लकार के लिए ऐसी घोषणा कर दे तो इसका महत्व हम समझ सकते हैं कि उस ग़ज़लकार में क्या क्षमता होगी। बिहार के मुज़फ्फरपुर निवासी डॉ. भावना का यह तीसरा ग़ज़ल संग्रह है। इससे पहले आया इनका ग़ज़ल संग्रह '<b>शब्दों की क़ीमत</b>' भी ख़ासा चर्चित रहा है। जैसा कि दादा दरवेश भारती जी ने बताया कि डॉ. भावना ग़ज़ल लिखते समय अपने दौर को ज़ेहन में रख; समाज, राजनीति और हमारे दैनिक जीवन की घटनाओं पर बारीकी से नज़र रखती हैं। इनके लिए अपने निजी अनुभव जितने ज़रूरी हैं, उतने ही ज़रूरी हैं- समाज और आम इंसान की जद्दोजहद। इनकी ग़ज़लों में कपोल-कल्पनाएँ और उक्ति वैचित्र्य बहुत कम मिलता है। ये सीधी-सादी भाषा में अपनी बात रखना पसन्द करती हैं।</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">डॉ. भावना के ग़ज़ल लेखन में ज़मीनी सच मुखर होकर आता है। लेकिन इस अंदाज़ में कि वह कविताई के मर्म को ज़िन्दा रखे रहे। कुछ शेर देखें-</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">एक इमारत जुग्गी पर इठलाएगी</span><br />
<span style="color: #cc0000;">कोई बंदा घर से बेखर हो तो हो</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">कहोगे तुम नहीं जितना वो अब उतना समझता है</span><br />
<span style="color: #cc0000;">समय की नब्ज़ को अब पेट का बच्चा समझता है</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">हमेशा घर की बहुओं में हज़ारों दोष होते हैं</span><br />
<span style="color: #cc0000;">हमेशा अपनी बेटी ही हमें शालीन लगती है</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">यहाँ खरगोश को भी मात दे जाता है इक कछुआ</span><br />
<span style="color: #cc0000;">विजय की हर कसौटी तो लगन पर आके रुकती है</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">अपने समय से मुख़ातिब इन कुछेक शेरों से ही यह आभास और विश्वास हो जाता है कि वर्तमान इनकी ग़ज़लों में किस तरह मज़बूती से आता है। एक प्रतिबद्ध रचनाकार की यह ख़ूबी होती है कि वह अपने दौर में जीता है, अपने दौर को रचता है।</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">भाषा की बात की जाय तो वे आम व्यक्ति की सामान्य बातचीत की भाषा में अपना रचनाकर्म करती हैं। इनके यहाँ भाषा को लेकर न किसी प्रकार की दुरुहता मिलती है न पूर्वाग्रह। ये हिन्दी परिवेश में रहते हुए आम हिन्दुस्तानी पाठक के लिए सृजन करती हैं। इनके लेखन की सहजता देखिए-</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">भला बनने की ऐसी क्या ज़रूरत</span><br />
<span style="color: #cc0000;">हो जैसे भी, यहाँ वैसे रहो तुम</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">बिना बोले ही कह जाते बहुत हैं</span><br />
<span style="color: #cc0000;">ये आँसू लफ़्ज़ों से अच्छे बहुत हैं</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">पल में सो जाता है आँचल में बिलखता बच्चा</span><br />
<span style="color: #cc0000;">माँ को क्या ख़ूब सुलाने का हुनर आता है</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">समाज के सरोकारों पर भी इनकी पैनी नज़र रहती है। इनके यहाँ का यथार्थ ग़ज़ल के बाक़ी तमाम पहलुओं पर भारी पड़ता है। और इसी एक वजह से ये अपने समय की महिला ग़ज़लकारों से बहुत आगे खड़ी मिलती हैं। यथार्थ की आँखों में आँखें गढ़ाने का साहस इन्हें विशिष्ट बनाता है। यही साहस पूरे हिन्दी परिवेश की ग़ज़लों की विशेषता है।</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">भूख का रूप आप क्या जानें</span><br />
<span style="color: #cc0000;">आपने पेट भर के खाया है</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">बड़ी बिल्डिंग, बड़ी सड़कों के ही क़िस्से सुनाती है</span><br />
<span style="color: #cc0000;">शहर की तितलियाँ जब गाँव में भूले से आती हैं</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">चार चूल्हे थे मगर अम्मी रही भूखी</span><br />
<span style="color: #cc0000;">घर के भीतर घर को कैसे ढो रहे थे हम</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">जिसे पढ़ने को जाना है उसे नौकर बनाती है</span><br />
<span style="color: #cc0000;">हर इक छोटू के बचपन को ग़रीबी लील जाती है</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">एक महिला हमारे समाज में कितनी ही उथल-पुथल लेकर जीती है या यूँ कहिए कि अपने आपको बचाए रखती है। क़दम-क़दम पर वह न चाहते हुए भी कई-कई समझौते करती है, हालत से मुक़ाबला करती है। ऐसे में एक महिला के दृष्टिकोण से महिलाओं के जीवन और अनुभवों पर कहे गये ये शेर उनके महिला ग़ज़लकार होने की सार्थकता सिद्ध करते प्रतीत होते हैं-</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">कितना अजब कमाल है पुरखों की जीन का</span><br />
<span style="color: #cc0000;">नानी की शक्ल लेके मैं धरती पे आ गयी</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">खिड़की, आँगन, गलियाँ रोयीं</span><br />
<span style="color: #cc0000;">पीहर से जब रिश्ता छूटा</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">इस पड़ोसन को क्या कहूँ आख़िर</span><br />
<span style="color: #cc0000;">कब की खुन्नस निकाल बैठी है</span><br />
<span style="color: #38761d;">________________</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #cc0000;">कभी हँसती, कभी रोती, कभी चुप्पी लगाती है</span><br />
<span style="color: #cc0000;">ये औरत रोज़ छल-बल की लड़ाई हार जाती है</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;">पेशे से शिक्षिका, शौक़ से लेखिका एवं संपादक डॉ. भावना का व्यक्तित्व और कृतित्व अनुकरणीय है। उन्हें पढ़कर यह जाना जा सकता है कि ग़ज़ल जैसी पारम्परिक और समृद्ध विधा में किस तरह अपने समय की आधुनिकता का समावेश किया जाता है। इस ग़ज़ल संग्रह के लिए उन्हें और किताबगंज को आत्मीय शुभेच्छाओं के साथ बेह्तर साहित्यिक भविष्य के लिए मंगलकामनाएँ।</span><br />
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: #38761d;"><br /></span>
<span style="color: blue;">समीक्ष्य पुस्तक- चुप्पियों के बीच</span><br />
<span style="color: blue;">रचनाकार- डॉ. भावना</span><br />
<span style="color: blue;">विधा- ग़ज़ल</span><br />
<span style="color: blue;">प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान)</span><br />
<span style="color: blue;">संस्करण- प्रथम (मई 2019)</span><br />
<span style="color: blue;">पृष्ठ- 96</span><br />
<span style="color: blue;">मूल्य- 195 रुपये</span></div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-16615445424306992842019-08-27T22:06:00.000-07:002020-02-11T13:13:23.392-08:00परम्परा का निर्वाह करते हुए आधुनिकता की तलाश करता संग्रह: बला है इश्क़<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvSGp0NBhuHkOCDsR6jrR9ml1BtNihlG8b_Lr8O4LJxhtnL6Bze6sXaOdD141i28QEukrDXjf-aiWtIFw0l66RFbpP_TDl2lecxVuE4C4Gbngq9yjS8Efm8sfKC5mqqIlPh1zOq3RQRyY/s1600/bala-he-ishq.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="492" data-original-width="960" height="205" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvSGp0NBhuHkOCDsR6jrR9ml1BtNihlG8b_Lr8O4LJxhtnL6Bze6sXaOdD141i28QEukrDXjf-aiWtIFw0l66RFbpP_TDl2lecxVuE4C4Gbngq9yjS8Efm8sfKC5mqqIlPh1zOq3RQRyY/s400/bala-he-ishq.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="color: blue;">कुछ रोज़ पहले कानपुर (उ.प्र.) निवासी ग़ज़लकारा अलका मिश्रा जी का नवप्रकाशित ग़ज़ल संग्रह 'बला है इश्क़' मिला। यह इनका पहला ग़ज़ल संग्रह है। संग्रह की 80 ग़ज़लों से गुज़रने पर हम पाते हैं कि अलका जी की शायरी परम्परा का निर्वाह करते हुए आधुनिकता की तलाश करती है। एक तरफ मज़बूत शिल्प के साथ रवायती शायरी पढ़ने को मिलती है तो दूजी तरफ कहन और कथ्य में ताज़गी भी दिखायी पड़ती है।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">अलका जी से मेरा परिचय '101 महिला ग़ज़लकार' के संपादन के दौरान हुआ था और उस समय पढ़ी इनकी 4-5 ग़ज़लों ने मुझे ख़ासा प्रभावित किया। इनके ग़ज़ल लेखन में एक ठहराव है, एक संजीदगी है, जो इन्हें विशिष्ट बनाती है। अगर 20 महिला ग़ज़लकारों की एक सूचि बनायी जाये जो शिल्प, कहन, भाव आदि पैमानों पर मज़बूत ग़ज़ल लेखन कर रही हैं तो मैं अलका जी का नाम उसमें रखना चाहूँगा।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">आज की ग़ज़ल चाहती है कि ग़ज़लकार पुराने ढर्रों को तोड़ते हुए उसे कुछ अलग तरह से सँवारे लेकिन उसमें उसके नाज़ुक स्वभाव का बहुत ज़िम्मेदारी के साथ ख़याल रखा जाय। उसके शेरों में बेशक वर्तमान हो, जीवन की बुनियादी बातें हों मगर हो-हल्ला न हो। बहुत नफ़ासत से इशारों-इशारों में चोट की जाए। हो-हल्ला करना बहुत आसान है, इशारों में मारक क्षमता के साथ चोट करना बहुत मुश्किल। इसीलिए ग़ज़ल कहना इतना आसान भी नहीं, जितना हम समझते हैं।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">अलका जी ग़ज़ल में प्यार मुहब्बत की बातें भी करती हैं, जीवन की जद्दोजहद को भी उकेरती हैं तो विसंगतियों पर तंज़ भी कसती हैं। इनकी शायरी में जीवन के कई रंग देखे जा सकते हैं। इनके मख़मली एहसासों के कुछ शेर देखिए-</span><br />
<br />
<span style="color: red;">उसकी आँखों के रास्ते होकर</span><br />
<span style="color: red;">दिल का ज़ीना उतर रही हूँ मैं</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">ये तेरी याद ना! सच कह रही हूँ</span><br />
<span style="color: red;">मेरी नींदों की दुश्मन है अभी तक</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">जान की बाज़ी लगा बैठा है फिर</span><br />
<span style="color: red;">फिर कोई आशिक़ जुआरी हो गया</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">जो उसने जान भी माँगी तो हँस के दे देंगे</span><br />
<span style="color: red;">ज़रा-सी बात का शिकवा नहीं करेंगे हम</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">ज़िन्दगी के सबके अपने-अपने तज्रिबे होते हैं। इसे जीने और इससे लड़ने के अपने-अपने तरीक़े होते हैं। अलका जी के पास भी अपने तज्रिबे और अपने तरीक़े हैं। आइए देखते हैं कि जीवन को लेकर ये क्या कहती हैं-</span><br />
<br />
<span style="color: red;">ज़मीं पे आने से साँसों के रूठ जाने तक</span><br />
<span style="color: red;">रहे सफ़र में मुसलसल क़ज़ा के शाने तक</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">सभी हैरान हैं इस ज़िन्दगी के स्वाद को लेकर</span><br />
<span style="color: red;">कभी खट्टी, कभी मीठी, कभी नमकीन लगती है</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">जिसे बैसाखियाँ लेकर गयी हों उसकी मंज़िल तक</span><br />
<span style="color: red;">कभी उस शख्स़ के हिस्से में ख़ुद्दारी नहीं आती</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">घर की क़ीमत कोई उससे ही पूछे</span><br />
<span style="color: red;">जो इक छत का ख़्वाब सजाता फिरता है</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">एक ज़िम्मेदार रचनाकार अपने समाज और उसकी व्यवस्था को लेकर हमेशा सजग रहता है। समाज में रहते हुए कई ऐसी चिंताएँ होती हैं, जो उसे हर सामान्य व्यक्ति की तरह बल्कि उससे कुछ ज़्यादा ही प्रभावित करती हैं। ऐसे में उसके लेखन में भी यह फ़िक्र साफ़ झलकती है। यहाँ भी इसकी झलक है-</span><br />
<br />
<span style="color: red;">अपने, अपनों से कट रहे हैं क्यों</span><br />
<span style="color: red;">दायरों में सिमट रहे हैं क्यों</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">जान होती है हथेली पे जो घर से निकलें</span><br />
<span style="color: red;">दौर-ए-हाज़िर में फ़सादात से डर लगता है</span><br />
<span style="color: red;">(फ़सादात= फ़सादों)</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">अब मेरा मुल्क किसी तौर न तोड़ा जाए</span><br />
<span style="color: red;">आओ मिल-जुल के इसे प्यार से जोड़ा जाए</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">कुछ ऐसे शेर भी इनके यहाँ मिलते हैं, जो एक महिला ग़ज़लकार होने के नाते कहे जाने ज़रूरी हैं। यानी कुछ ऐसे अनुभव जो दुनिया से केवल एक महिला को ही मिलते हैं। इन शेरों में एक शेर जो बहुत आम-सा ख़याल लिए हुए है, आज तक लाखों महिलाएँ इस भाव से दो-चार हुई हैं लेकिन शायरी में ढलकर शायद ही हमारे सामने कभी आया हो। इस शेर को अगर मैं किताब का हासिल कह दूँ तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जितना ज़रूरी यह कथ्य है उतनी ही संजीदगी से इसे कहा भी गया है, देखिए-</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: red;">जब तक न मेरी कोख से कोंपल कोई फूटी</span><br />
<span style="color: red;">लोगों की नज़र में किसी बंजर-सी रही हूँ</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">इसी स्वभाव के कुछ और शेर-</span><br />
<br />
<span style="color: red;">वो समुन्दर से कुछ नहीं कहते</span><br />
<span style="color: red;">हैं नदी के उफ़ान पर बातें</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">तोड़ देती हैं बेड़ियाँ अक्सर</span><br />
<span style="color: red;">क़ैद में रह के बेटियाँ अक्सर</span><br />
<span style="color: #38761d;">__________________</span><br />
<br />
<span style="color: red;">हालात ने मज़बूत मुझे इतना बनाया</span><br />
<span style="color: red;">मिट्टी से बने जिस्म में पत्थर-सी रही हूँ</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">केवल 80 ग़ज़लों में ही अपनी शायरी से अलका जी पाठक के मन में छाप छोड़ने में सफ़ल रहती हैं। इनके लेखन में हर मिज़ाज के शेर मिलना सुखद है। पुस्तक के अलावा इनकी रचनाएँ रेख्ता और कविताकोश पर भी पढ़ी जा सकती हैं। सोशल मिडिया और पत्रिकाओं के साथ-साथ अलका जी मंचों पर भी बराबर सक्रिय हैं। इनकी यह सक्रियता बढ़ती रहे और ग़ज़ल लेखन समृद्ध होता रहे, शुभकामनाएँ।</span><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<span style="color: #38761d;">समीक्ष्य पुस्तक- बला है इश्क़</span><br />
<span style="color: #38761d;">विधा- ग़ज़ल</span><br />
<span style="color: #38761d;">रचनाकार- अलका मिश्रा</span><br />
<span style="color: #38761d;">प्रकाशक- गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद (उ.प्र.)</span><br />
<span style="color: #38761d;">संस्करण- प्रथम, 2019</span><br />
<span style="color: #38761d;">मूल्य- 200 रूपये (हार्डबाउंड)</span></div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-29193980303335876522018-11-02T21:45:00.001-07:002020-02-11T13:14:04.409-08:00अपने समय से संवाद करता संग्रह 'तब तुम कहाँ थे ईश्वर'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsLS2_Gk04gGCugpBODDiuDWLRWTE0KiENvYQXHzqhDxpcAao6Dwsc04Lfj1J94_rC5Avr2fzjIUzKV5InpgfU9SPro6NKWRiIxmwVCfnPsDShjxVoe3t_luqOZ5LTfjjrUwHcYwToFXc/s1600/kaha+the+ishwar-aarti+tiwari.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="700" data-original-width="960" height="290" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsLS2_Gk04gGCugpBODDiuDWLRWTE0KiENvYQXHzqhDxpcAao6Dwsc04Lfj1J94_rC5Avr2fzjIUzKV5InpgfU9SPro6NKWRiIxmwVCfnPsDShjxVoe3t_luqOZ5LTfjjrUwHcYwToFXc/s400/kaha+the+ishwar-aarti+tiwari.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="color: blue;">'तब तुम कहाँ थे ईश्वर' मन्दसौर (मध्यप्रदेश) निवासी आरती तिवारी की 58 कविताओं का संग्रह है, जो हाल ही बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। पुस्तक का शीर्षक ख़ुद ही इसकी कविताओं और रचनाकार की सोच की झलक देता प्रतीत होता है। यह शीर्षक उस सर्वशक्तिमान सत्ता को कटघरे में खड़ा करने की हिमाकत करता है, जो समस्त सृष्टि पर मालिकाना हक़ रखता है या यूँ कहें कि समस्त सृष्टि का रखवाला है। वर्तमान समय के विसंगत को अपनी रचनाओं के माध्यम में उजागर करना और उस पर सार्थक चर्चा करना एक साहित्यकार का कर्तव्य माना जाता है। अपने इस कर्तव्य को बा-ख़ूबी निभाते हुए आरती तिवारी जी अपनी रचनाओं में हमारे समाज में व्याप्त अनेकानेक विसंगतियों पर बहुत बेबाकी से अपनी कलम चलाती हैं। भ्रूण-हत्या, बलात्कार और हिंसा की प्रवृति, लड़कियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार, स्त्री जीवन के अनेक कठिन पहलुओं के साथ-साथ माता-पिता की स्नेहिल स्मृतियों, कोमल प्रेमपरक अनुभूतियों, प्रकृति की महत्ता, त्योहारों के प्रति कम होते जूनून, समय के साथ जीने की नसीहत आदि कई महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी कविताओं के माध्यम से ध्यान खींचती यह कवियत्री अपने समय से संवाद करती है।</span><br />
<span style="background-color: white;"><br /></span>
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;">पुस्तक विभिन्न सकारात्मक विषयों पर मर्मस्पर्शी और सार्थक अभिव्यक्ति करने के साथ ही स्त्री से जुड़े कई अलग-अलग पहलुओं पर विस्तार से बात करती है। यह आरती जी की कविताओं की ख़ास विशेषता है कि वे बिना किसी शोर-शराबे के स्त्री विमर्श जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे में अपना अवदान देती हैं। 'कंजक' शीर्षक की एक एवं दो कविताओं के माध्यम से वे कन्या पूजन के लिए बालिकाओं की अनुपलब्धता पर भ्रूण हत्या के पक्षधर विकारग्रस्त सोच रखने वाले लोगों की ख़बर लेती हैं तथा इस अवसर की उमंगों के बीच संपन्न एवं वंचित परिवारों की बच्चियों में परस्पर तुलना कर, दोनों वर्गों के जीवन स्तर का चित्रांकन करती हैं।</span></span><br />
<br />
<span style="color: red;">"बड़े घरों की बेटियाँ</span><br />
<span style="color: red;">रेशमी परिधानों की छटा बिखेर</span><br />
<span style="color: red;">जा चुकी हैं मुँह झूठा करके"</span><br />
<span style="color: red;">......... </span><br />
<span style="color: red;">"ये मजदूरों की छोरियाँ</span><br />
<span style="color: red;">लप लप खाए जा रही हैं खीर</span><br />
<span style="color: red;">और ऐसे कि कोई देख न ले</span><br />
<span style="color: red;">इनकी बन आई है इन दिनों"</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: blue;">एक अन्य महत्वपूर्ण कविता 'अज्ञात बलात्कारी के ख़िलाफ़ प्रकरण' में कवयित्री लड़कियों के चाल-चलन और पहनावे में उलझे अभिभावकों को लड़कों की सोच में संस्कार और जवाबदेही के भाव पोषित करने की सार्थक सीख देती हैं।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: red;">"भावनाओं के समन्दर में</span><br />
<span style="color: red;">गोते लगाते स्त्री-पुरुष</span><br />
<span style="color: red;">जब तक बचाते रहेंगे</span><br />
<span style="color: red;">बेटे में करवटें लेता हिंसक पुरुष</span><br />
<span style="color: red;">अज्ञात बलात्कारियों के खिलाफ</span><br />
<span style="color: red;">होते रहेंगे प्रकरण दर्ज"</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">'ख़ानदानी' कविता के माध्यम से वे सभ्य भेड़ियों के समाज में मौजूद कुछ अच्छे पुरुषों की ईमानदारी की प्रशंसा करती हैं। कविता 'कुछेक स्त्रियाँ' समाज सेवा और स्त्री उत्थान कार्यों में पाए जाने वाले दोगलेपन का उद्घाटन करती है। यूँ तो संग्रह की सभी कविताएँ पठनीय हैं लेकिन कुछ रचनाएँ इस संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं, जैसे- दंगा, कर्फ्यू और भूख, कंजक (एक और दो), रोटी की कविता, स्पर्शती स्मृति, गर्भगृह के बाहर खड़ी स्त्री, चालीस पार की औरतें, अज्ञात बलात्कारी के ख़िलाफ़ प्रकरण, ख़ानदानी, तब तुम कहाँ थे ईश्वर, घर से भागी हुई लड़की आदि।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">अपने समाज और समय की नब्ज़ टटोलता आरती तिवारी का यह प्रथम संग्रह निश्चित ही कविता के सुधि पाठकों को मंथन के लिए विवश करेगा। इस संग्रह के लिए रचनाकार और प्रकाशक, दोनों को बधाई।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<br />
<br />
<br />
<br />
<span style="color: #274e13;">समीक्ष्य पुस्तक- तब तुम कहाँ थे ईश्वर</span><br />
<span style="color: #274e13;">विधा- कविता</span><br />
<span style="color: #274e13;">रचनाकार- आरती तिवारी</span><br />
<span style="color: #274e13;">संस्करण- प्रथम, सितम्बर 2018</span><br />
<span style="color: #274e13;">मूल्य- 175 रूपये</span><br />
<span style="color: #274e13;">पृष्ठ- 136</span><br />
<span style="color: #274e13;">प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर</span></div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-69539545781581542012018-02-15T00:04:00.000-08:002020-02-11T13:27:14.933-08:00'शब्दों से परे' प्रेम ज़्यादा मुखर होकर बोलता है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmV2ixjOD-rbtfoEBOYtgEHvTMchsxl1OTw6u3s8ZGaineCBU-y9dQDq80kTi_P_mlTn_LtS2mjJJS9dkN0uHpVmdvwYJ5eplSHUG0I0Q8gt-KXhHpZAkCCcDtP8PJLUFRdlY01YZM7Wo/s1600/mulyankan-hastfeb18.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="205" data-original-width="400" height="164" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmV2ixjOD-rbtfoEBOYtgEHvTMchsxl1OTw6u3s8ZGaineCBU-y9dQDq80kTi_P_mlTn_LtS2mjJJS9dkN0uHpVmdvwYJ5eplSHUG0I0Q8gt-KXhHpZAkCCcDtP8PJLUFRdlY01YZM7Wo/s320/mulyankan-hastfeb18.jpg" width="320" /></a></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">प्रेम वह अवस्था है, जहाँ आकर स्वार्थ, ग़रज़, लेन-देन, उम्मीद जैसी सारी चीज़ें बे-मानी हो जाती हैं। जिस दिल में प्रेम होता है; वहाँ सिर्फ और सिर्फ प्रेम होता है, इन चीज़ों के लिए कोई जगह नहीं होती। यह अनुभूत करने वाली शय है, कहने-बताने वाली नहीं इसलिए इसमें शब्दों का होना, न होना भी मायने नहीं रखता। जो प्रेम को समझता है, वह उसे 'शब्दों से परे' भी महसूसता है। यानी 'शब्दों से परे' प्रेम ज़्यादा मुखर होकर बोलता है। प्रेम में अव्यक्त, व्यक्त से कहीं ज़्यादा मायने रखता है।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मैंने तुम्हारे कहे शब्दों के</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">अल्पविरामों में</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">महसूस करके देखा है</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">बहुत कुछ</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">यह भाव और कवितांश जोधपुर (राज.) की कवयित्री प्रगति गुप्ता के कविता संग्रह 'शब्दों से परे' से प्रस्तुत है। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस कविता संग्रह में 'प्रेम की अनुपम अनुभूतियों से जुड़ी कविताएँ' सम्मिलित हैं। प्रगति गुप्ता के इस कविता संग्रह का मूल स्वर प्रेम है, जो समस्त कविताओं के ज़रिये कई-कई रूपों प्रकट होता है।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">प्रेम एक स्वस्थ भाव है, जो जिस्मों से परे; रूहों के बीच गूंथा होता है। तभी तो जहाँ यह होता है, वहाँ किसी तरह की संकीर्णता, किसी तरह की सीमा का कोई औचित्य नहीं होता। यह दो रूहों के एकाकार होने की चरम अवस्था की वह स्थिति है, जहाँ पहुँच उन दोनों में कोई भेद नहीं बचता। सच है, "प्रेम जिस्मों से परे रूहों का मसअला है।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">प्रगति गुप्ता ने अपनी कविताओं में प्रेम की कई तहें खोलते हुए उन्हें अलग-अलग कविताओं में अभिव्यक्त किया है। जहाँ संग्रह की पहली कविता 'ईश्वर', ईश्वर को सिर्फ प्रेममय बताती है और यह स्थापना करती है कि उसकी रची हर चीज़ में प्रेम ही प्रेम बसता है, वहीं कविता 'जीने की आस', प्रेम का वह रूप पाठक के सामने रखती है, जो उसे जीवन-ऊर्जा से भर देता है। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है, जो पत्थर में भी जान डाल सकती है। जिस मन में प्रेम का भाव जागृत हो जाता है, उसे अपने आसपास की हर चीज़ जीवन्त नज़र आने लगती है।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">कविता 'क्या पुकारूँ तुझे', कुछ रिश्तों को सीमाओं में न बाँधने की सलाह देते हुए स्पष्ट करती है कि कभी-कभी एक रिश्ता, नाम से बहुत ऊपर हो जाता है। ऐसे में उसे कोई नाम देने की कोशिश करना, उस रिश्ते की क़ीमत घटाना हुआ। वहीं, 'हर दिन खोजूँ' कविता, प्रेम को एकदम पूरा जी लेने की बजाय थोड़ा-थोड़ा टटोलने की बात कहते हुए एक दार्शनिक भाव तक पहुँच जाती है। यह कहती है कि-</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">एक-दूसरे को</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">खोजने की चाहतें</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">जब तक ज़िन्दा रहती हैं</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">जीने के एह्सास भी धड़कतें हैं</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">दुनिया भर के रिश्तों को ढोते-ढोते एक उम्र गुज़रने के बाद किसी अपने जैसे ही के मिलने पर घड़ी भर अपने लिए जी लेने को मन में उठी कुछ उमंगें किस तरह उन पलों को थाम लेना चाहती हैं, यह 'मेरे जैसे तुम मिले' कविता में देखा जा सकता है। यहाँ कवि का मन कुछ वक्त के लिए ज़माने भर से बेसुध हो जाना चाहता है और अपने अलावा किसी को नहीं सोचना चाहता।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">एक कविता 'रंग', कुछ ही पंक्तियों में जीवन का सार हमारे सामने रख देती है और एक बहुत बड़ी सीख दे जाती है-</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">बंद डिब्बी के रंग</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">बिखरे बगैर भला कब</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">नया कुछ रचते हैं!</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">"अनुभूतियाँ अच्छी हों या बुरी, उनकी व्याख्या कर पाना शब्दों से परे ही है।" मानने वालीं कवियत्री प्रगति गुप्ता ने अपनी अनुभूतियों को बहुत सहजता से शब्दबद्ध किया है लेकिन यहाँ ये अनुभूतियाँ व्यक्त से कहीं ज़्यादा अव्यक्त हैं और उसी अव्यक्त को शब्दों से परे जाकर महसूस कर पाना ही कविताओं के पढ़े जाने की सार्थकता होगी। कुछ पंक्तियाँ, जिन्हें बिना व्याख्या के रख रहा हूँ क्योंकि शायद व्याख्या के बिना भी आप वह सब महसूस लें, जो मैं महसूस रहा हूँ या कवयित्री ने कहना चाहा है-</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">कितनी ख़ूबसूरत होती है</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">वो छूटी हुई ख़ाली जगह</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">जहाँ कुछ भी,</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">बहुत मन का</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">भरने को जी करता है</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">अपनी एक कविता 'समय' में कवयित्री एक बेहद ज़रूरी सीख देती हैं कि 'रिश्तों में प्यार बनाये रखने के लिए उन्हें वक्त देना बेहद ज़रूरी है'। और इस दौर त्रासद बात यही है कि लोगों के लिए समय ही है जिसकी सबसे ज़्यादा क़िल्लत है। ऐसे में रिश्तों को ज़िन्दा रखने के लिए उन्हें समय की ख़ुराक देना ज़रूरी है, यह याद रखना होगा।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">एक कविता 'गूढ़ रहस्य' में रचनाकार का एक भोला-भाला प्रश्न है कि 'इतना लुटाने के बावजूद भी मेरी झोली प्रेम से भरी की भरी रहती है, ख़ाली क्यों नहीं होती!' यही प्रश्न शायद मीरा के मन में भी रहा हो या यही प्रश्न एक माँ के मन में भी उठता हो शायद। मुझे यह कविता पढ़ते हुए कवि वृन्द का एक दोहा याद आता है-</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।</span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घटि जात।।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मतलब फिर यह कहना ठीक होगा कि विद्या और प्रेम जितना खर्च करेंगे, उतने ही बढ़ेंगे और बिना खर्च किये घट जाएँगे! शायद ऐसा ही कुछ हो।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">एक प्रश्न और है रचनाकार का कि जब हम सब प्रेम की ही उपज हैं तो क्यों हर समस्या का हल प्रेम से नहीं निकाल पाते! सवाल वाजिब है और विचारणीय भी। इस प्रश्न का उत्तर कविता में ही छिपा है। कविता का शीर्षक है- 'बस भरोसा करना होता है'। रचनाकार स्वयं कहता है-</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">हर रिश्ते के पनपने</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">और मजबूती देने में</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">दो जनों को अहम छोड़</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">एक-दूसरे के सुपुर्द कर</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">बस-</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">भरोसा करना होता है</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">और यह भरोसा ही हम नहीं कर पाते किसी पर, इसीलिए सारी समस्याएँ पड़ी रह जाती हैं बिना हल के।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">इनकी कविताओं में असीमित प्रेम की तरह रचनाकार की दृष्टि भी असीमित है। जहाँ लौकिक से अलौकिक प्रेम के दर्शन हैं, प्रेम के ज़रिये समस्याओं के हल हैं, प्रेम में जीवन का उत्साह है। वहीं सिर्फ प्रेमी या मानव ही नहीं; परिन्दे, हवाएँ, फूल, तितली, बादल, बारिश, धूप आदि की भी कहीं न कहीं उपस्थिति है इनके शब्दों में। कवयित्री एक कविता 'सूरज' में सूरज, साँझ और सुबह को प्रतीक लेकर उनका मानवीकरण कर जीवन का अर्थ बड़ी ख़ूबसूरती से समझाती हैं। वहीं कविता 'पंछियों की तरह' पंछियों से प्यार का पाठ सिखाने वाली रचना है।</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">संग्रह 'शब्दों से परे' में प्रगति गुप्ता की रचनाएँ परिपक्व तो नहीं, लेकिन परिपक्वता की ओर जाती हुई कविताएँ कही जा सकती हैं। ये रचनाएँ छोटे-छोटे वाक्यों में आसान भाषा के साथ अपनी बात रखती हैं। इनके यहाँ अधिक जटिलता या दुराव, संशय नहीं हैं। जो है, स्पष्ट है। जबकि रचनाओं में दृष्टिगत सोच अत्यधिक प्रभावी है। अपने दूसरे कविता संग्रह के लिए कवयित्री को बधाई और सफल साहित्यिक जीवन के लिए शुभकामनाओं के साथ उनकी कुछ और पंक्तियाँ दे रहा हूँ, जो मुझे ख़ास पसन्द आयीं।</span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">प्रिय देख!</span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">इस होली पर</span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">तेरी हो-ली मैं</span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">_________</span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">शब्द रूठे तो खोकर</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मौन हो जाये,</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">शब्द मुस्कुराकर बहे</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">तो कविता बन</span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">संबंधों को जीवन दे जाये</span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">__________</span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">सिर्फ मिलने को</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">आया था मुझसे वो</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मिलकर जाने को,</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">पर मिलते-मिलते</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मिला कुछ यूँ</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">कुछ छूट गया वो मुझमें</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">कुछ ले गया</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मुझको अपने साथ</span></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">जाने ही अनजाने में</span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
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<span style="color: red; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">समीक्ष्य पुस्तक- शब्दों से परे</span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">विधा- कविता</span></span></div>
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<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">रचनाकार- प्रगति गुप्ता</span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">संस्करण- 2018 (हार्ड बाउंड)</span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">मूल्य- 250 रूपये</span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;">प्रकाशन- अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110 030</span></span></div>
<div>
<span style="color: blue; font-family: "verdana" , "helvetica" , "arial";"><span style="font-size: 14px;"> ayanprakashan@rediffmail.com</span></span></div>
</div>
निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5334269402119422356.post-43736304029370585632018-02-11T09:19:00.002-08:002020-02-11T13:26:52.518-08:00अनुभव, दर्शन, जीवन और संवेदनशीलता का जीवट संग्रह: कब आया बसंत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhk4sTVRV5dCmNIrpD1xVfmfrqvedqASc8txcvmas73GUqPD5ffrB3kjaTcPiTEsSWjHmi8k5dcXpHKrIH98dBcNe5L8ehyphenhyphenWPuUDWfgk2WVxwVHD5WXQX-nus3-E0LZqcWFP62J8gt2rTk/s1600/kabaayabasant-mulyankan-hastsept16.jpg" imageanchor="1"><img border="0" data-original-height="1303" data-original-width="800" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhk4sTVRV5dCmNIrpD1xVfmfrqvedqASc8txcvmas73GUqPD5ffrB3kjaTcPiTEsSWjHmi8k5dcXpHKrIH98dBcNe5L8ehyphenhyphenWPuUDWfgk2WVxwVHD5WXQX-nus3-E0LZqcWFP62J8gt2rTk/s200/kabaayabasant-mulyankan-hastsept16.jpg" width="121" /></a></div>
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<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: red;">'कब आया बसंत' सिर्फ एक जुम्ला नहीं, एक सवाल है, एक टीस है। अपने आप में बहुत गहरा अर्थ समेटे यह पंक्ति शीर्षक है एक किताब का। राजस्थानी की चिर-परिचित लेखिका और पहली महिला उपन्यासकार बसंती पंवार जी की हिंदी कविताओं की यह पहली किताब है। कुल जमा 71 छोटी-बड़ी कविताओं की इस किताब में इंसानी ज़िंदगी के कई रंग, रूप और पहलुओं पर कविताएँ मौजूद हैं।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">किताब की भूमिका राजस्थान की वरिष्ठ साहित्यकार सावित्री डागा जी ने लिखी है और प्रकाशन का काम किया है रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर ने। रॉयल पब्लिकेशन की कुछ किताबें देखने में आई हैं, बहुत अच्छा और सधा हुआ काम होता है इनका। बहरहाल हम बात करेंगे बसंती पंवार जी की कविताओं पर।</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: blue;">किताब की पहली ही कविता 'नारी' स्त्री मन के अंतस की खरी-खरी अभिव्यक्ति है। तमाम उम्र दूसरों के लिए घर-परिवार, चौके-बर्तन में खटती स्त्री के अकेलेपन में कोई भी उसके साथ खड़ा होने को नहीं होता। कुछ यही मूल भाव लिए कविता 'नारी' एक चर्चित विमर्श और अच्छे सरोकार को लेकर किताब की शुरुआत करती है।</span></div>
<div>
<span style="color: blue;">एक अन्य कविता 'संघर्ष' स्वयं को स्वयं में खोजने के संघर्ष की कहानी कहती है। कवियत्री के अनुसार-</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">स्वयं को खोजना</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">स्वयं के भीतर तक</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">कठिन लगता है</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">यह स्वयं से संघर्ष है</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: blue;">यहाँ कवियत्री का दार्शनिक रूप खुलकर सामने आता है। जीवन में 63 सालों की गिनती कर चुकी बसंती पंवार जी जीवन की उस अवस्था में है, जहाँ दर्शन 'दुनियाभर के अनुभव' के साथ मिलकर मुखर हो उठता है।</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: red;">संग्रह की अगली कविता 'मिट्टी की तरह' समय के हाथ से मिट्टी की तरह फिसलने की बात कहती है। अपने आप में सिमटते जा रहे लोगों को नसीहत देते हुए यहाँ कवियत्री कहती हैं कि समय मिलता नहीं, चुराना पड़ता है। इसकी अपनी नियति है, चलना बस चलते रहना।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">एक कविता 'धूल और लहर' में कवयित्री अच्छी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती हैं। 'धूल', 'सागर' और 'लहर' के माध्यम से वे अपनी नियति से संवाद करती दिखती हैं।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">एक और प्रतीकात्मक कविता 'घायल' आहत मन की अभिव्यक्ति है। कविता के अनुसार दर्द देने वाला उस दर्द की कसक कभी नहीं समझ सकता। जिस तरह समंदर में पत्थर मारना वाला यह नहीं जान पाता कि उस पत्थर ने समंदर के बदन को किस-किस जगह चोट पहुँचाई होगी, कितनी गहराई तक लगा होगा पत्थर, उसकी वजह से कितने लहरों रूपी सपने ख़त्म हो गये होंगे!</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: blue;">अपनी संतानों में अपने बचपन को खोजता भावुक मन, जो एक लम्बी उम्र के बाद थक कर बैठने को है, और दुनिया की तमाम कड़वी हक़ीक़तों से दो-चार हो फिर से बचपन की उसी मासूम-सी निश्छल दुनिया की और राहत ढूँढने के लिए भागता है, ऐसे में अगर उसे अपने पोते-पोती का साथ मिल जाए तो बात ही क्या!</span></div>
<div>
<span style="color: blue;">पोते के सयाने प्रश्नों के उत्तर न देने पाने की वजह से निरुत्तर अपने 'उम्र के अनुभव' पर हैरान दादी उसे समझाती है-</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">हाँ मैं दादी हूँ तुम्हारी</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">पर तुम मेरे गुरु हो गये हो</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">गुरु गुड़ ही रहा</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">चेला शक्कर हो गया</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">मैं बुढ़िया गयी</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">कहते हैं 'साठी बुद्धि न्हाटी'</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">फिर कैसे दूँ तुम्हारे</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">कुछ प्रश्नों का उत्तर</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: blue;">कविता 'कहानी' बहुत कम शब्दों में जीवन की हर अवस्था की एक कहानी कहती है। बचपन, यौवन, प्रौढ़ता, बुढ़ापा आदि हर जीवन का हर हिस्सा अपने आप में एक सम्पूर्ण कहानी लिए होता है।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">कविता 'दुःख' में कवयित्री अपनी अनुभवी दृष्टी से बुढ़ापे को ही जीवन का दुःख बताती है। इस समय में अगर देखा जाए तो यह बात काफ़ी हद तक ठीक भी लगती है। कविता छोटी-सी है लेकिन पठनीय है, आप भी देखिए-</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">मैं सुनती हूँ</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">दुःख ही जीवन है</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">सांझ होते-होते</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">अनुभवों की चाक से</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">भर गया है जीवन का ब्लैक बोर्ड</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">ब्लैक बोर्ड पर दिखाई दिये-</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">बालक, युवा, वृद्ध</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">तीनों बारी-बारी से</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">एक ही शरीर में जिये</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">मगर मैंने देखा</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">बुढ़ापा ही</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">जीवन का दुःख है</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: red;">संग्रह की एक कविता 'भीगा-भीगा' बाहर के मेघों को देख भीतर के सावन के बरसने की बात कहती है। भरे-भरे मन की सहज अभिव्यक्ति इस कविता में अनायास ही लय आ गयी है, जो पाठक को दो पल के लिए रोक लेती है। संग्रह की अन्य कविताओं से भिन्न शैली की यह कविता अचरज पैदा करती है।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">'बूंदे' कविता 'वसुंधरा की प्यास हरने', 'जीव-जीव का उदर भरने' की वजह से बारिश की बूंदों की सार्थकता बताती है और कवयित्री इसी को सार्थक दान कहती है।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">कविता 'अंतर्मन' के अनुसार अंतर्मन की घुटन, वर्षा की घुटन से सुलग उठती है और यह अगन तमाम उम्र की दग्ध यादों को अपनी लपटों में समा लेती है, लेकिन कवयित्री के जीवन का बसंत इतना जीवट है कि वो इस आग में उसे नष्ट नहीं होने देता।</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: blue;">एक कविता 'आज की नारी' स्त्री विमर्श की बाढ़ के समय में आईना दिखाती रचना है। कविता 'समय के साथ' समय के साथ चलने का संदेश देती एक अच्छी रचना है। 'पड़ोसी' आज के पड़ोसियों की बे-वजह की होड़ और ईर्ष्या का चित्रांकन करती है और हमें सचेत भी करती है कि आख़िर हम भी एक 'पड़ोसी' ही हैं। 'समय के साथ' कविता से कुछ पंक्तियाँ देखिए-</span></div>
<div>
<span style="color: red;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">वक़्त की तिजोरी में</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">चौबीस घंटे ही भरे हैं</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">तिजोरी खोलो तो</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">चौबीस घंटे ही मिलेंगे</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">इस तिजोरी के समय को</span></div>
<div>
<span style="color: #38761d;">घटाना बढ़ाना असंभव है</span></div>
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<span style="color: #38761d;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: blue;">किताब में माँ शब्द पर 4-5 कविताएँ हैं लेकिन यह सहज है कि माँ पर कुछ लिख रहा मन भावुकता में बह जाए। मेरी नज़र में इस विषय पर लिखा कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं हो सकता।</span></div>
<div>
<span style="color: blue;">कविता 'एक बार फिर' में बड़ों और समझदारों की दुनिया से ऊबा हुआ मन एक बार फिर बचपन की ओर लौटने की चाह कर रहा है।</span></div>
<div>
<span style="color: blue;">पुस्तक में कुछ छोटी-छोटी रचनाएँ भी हैं, जो अपनी बात पूरी मजबूती से रखती हैं। यहाँ इन्हें 'नन्हिकाएँ' कहा गया है, हालाँकि इन्हें क्षणिकाएँ भी कहा जा सकता था। क्षणिकाएँ हिंदी साहित्य में एक स्वीकार्य विधा है।</span></div>
<div>
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div>
<span style="color: red;">पूरी किताब में रचनाकार बसंती पंवार जी का अनुभव, दर्शन, संवेदनशीलता और जीवटता के साथ साथ जीवन के प्रति एक टीस देखने को मिलती है। हालाँकि कविताओं की पहली किताब होने की वजह से रचनाओं में कहीं-कहीं अपरिपक्वता भी देखने को मिलती है, लेकिन उनमें उपस्थित संवेदना इस तरफ ध्यान नहीं जाने देती। किताब में कुछ कविताएँ बहुत अच्छी और सार्थक हैं, जो अपनी उपस्थिति से किताब का उद्देश्य पूरा करती दिखती हैं।</span></div>
<div>
<span style="color: red;">बसंती पंवार जी को एक अच्छी कृति के लिए बधाई और पुस्तक की सफ़लता के लिए अग्रिम शुभकामनाएँ।</span></div>
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<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: red;"><br /></span></div>
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<span style="color: #741b47;">समीक्ष्य पुस्तक- कब आया बसंत</span></div>
<div>
<span style="color: #741b47;">विधा- कविता</span></div>
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<span style="color: #741b47;">रचनाकार- बसंती पंवार</span></div>
<div>
<span style="color: #741b47;">प्रकाशन- रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर</span></div>
<div>
<span style="color: #741b47;">संस्करण- प्रथम, 2016 (सजिल्द)</span></div>
<div>
<span style="color: #741b47;">मूल्य- 150 रूपये</span></div>
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निंदक नियरे राखियेhttp://www.blogger.com/profile/04735083175055399484noreply@blogger.com0