जिसकी लपटों से झुलसते आसमां के पैरहन
आरती उस आग की क्यूँकर उतारी जा रही
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ध्वंस के दृश्यों से भरती जा रही मन-वीथिकाएँ
सर्जना के चित्र आख़िर कब उकेरेंगे चितेरे
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जैसी आज़ादी चहिए मिली ही कहाँ
जबकि आधे से ज़्यादा सदी हो गयी
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तट-बंधन के साथ जो सहती आयी बांधों का बंधन
कलकल करती विकल नदी के तन में भरी थकानें हैं
रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से बीते दिनों एक ग़ज़ल संग्रह आया है, लहरों पे घर। हिंदी के लबो-लहजे के और समकालीन चिंताओं से लैस उपरोक्त शेर इस संग्रह से हैं। रचनाकार हैं अनिल कुमार श्रीवास्तव। श्रीवास्तव जी जन चेतना के कवि हैं। ग़ज़ल के अलावा भी छंदमुक्त कविताएँ, गीत, दोहे आदि लिखते हैं और उनमें भी जन संवेदनाएँ और सामाजिक सरोकार भरपूर मिलते हैं।
पुस्तक में कुल 106 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। लगभग सभी ग़ज़लें लोक चेतना से संपृक्त हैं। हमारे देश और समाज के वर्तमान परिदृश्य, व्यवस्था एवं राजनीति, बदलते मूल्य एवं मान्यताएँ, मनुष्य के हित की चिंताएँ तथा उसके मंगल की कामनाएँ आदि अनेक ज़रूरी विषय इनकी ग़ज़लों के केंद्र में हैं। इनका लहजा खरा और कहन सीधी-सादी व सटीक है।
संग्रह की ग़ज़लों की भाषा एवं कथ्य दोनों ही प्रभावी हैं, साथ ही रचनाकार का साहस व बेबाकी भी सराहनीय हैं। हमारे समाज का आम इंसान ही इस पुस्तक का नायक है और उससे जुड़ी तमाम भली-बुरी चीज़ें, इन ग़ज़लों की विषय-वस्तु के आसपास हैं। रचनाकार हमारे दौर के उन परिदृश्यों, धारणाओं एवं क्रियाकलापों से संतुष्ट नहीं है, जो एक सामान्य व्यक्ति के लिए नुकसानदायक हैं, उसका भला नहीं विचारतीं बल्कि वह निरंतर चिंतित है कि किस प्रकार परिस्थितियाँ बदलें, विचार बदलें और हमारे आसपास ऐसी हलचलें पैदा हों, जो हमारी आम जनता के लिए उपयुक्त हों, मानवमात्र के लिए हितकर हों।
पुस्तक पढ़ते हुए इसके ग़ज़लकार में बहुत संभावनाएँ दिखायी दीं लेकिन रचनाओं में शिल्प की ख़राबी संग्रह को कमज़ोर बनाती है। कुछ बहरें, जो सधी हुई हैं, उनमें ये अच्छा करते हैं लेकिन कई बहरें अभी साधी जानी बाक़ी हैं। शब्दों को बरतने को लेकर भी अभी मेहनत की गुंजाइश दिखती है। छांदस विधाओं में कथ्य और संप्रेषण जितना ज़रूरी है, उतने ही ज़रूरी हैं शिल्प विधान और कहन। इस रचनाकार को पढ़ते हुए चाह होती है कि काश ये अपनी कमियों पर भी ध्यान दे, उन पर समय ख़र्च करे और उन पहलुओं को भी उतना ही मज़बूत कर ले, जितने मज़बूत उसके दूसरे पहलू हैं। एक बहुत संभावनाशील हिंदी ग़ज़लकार को एक बहुत अच्छे हिंदी ग़ज़लकार में बदलते हुए देखने की उत्सुकता रहेगी। फ़िलहाल ग़ज़ल के इस पहले संग्रह के लिए उन्हें बधाई और भविष्य के लिए मंगलकामनाएँ।
संग्रह से कुछ चयनित शेर-
नफ़रतों के समुंदर हैं चारों तरफ
प्रीति जैसे कि छिछली नदी हो गयी
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कान में जैसे चुभते काँटे
धुन के नए शऊर हो गये
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आसमां पर हम हुए क़ाबिज़ मगर
चल नहीं सकते ज़मीं पर शान से
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ऐसी कब अगुआई होगी
जिससे लोक भलाई होगी
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हम रहते हुक्काम भरोसे
कब आते वो काम भरोसे
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नफ़रत के पाठ जम के पढ़ाए गये हैं लोग
यकजुट नहीं हैं, जोड़े-जुटाए गये हैं लोग
- के० पी० अनमोल