Monday, October 14, 2024

उर्दू की ग़ज़लगोई में एक नई करवट : बिखरे हुए लम्हात

 

शिज्जू शकूर उर्दू की नई पीढ़ी के उम्दा शायरों में हैं। पिछले दस वर्षों से मैं इन्हें देखता-पढ़ता आ रहा हूँ। इस बीच इनके तीन ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'ज़िंदगी के साथ चलकर देखिए', 'उम्रभर का जागना' और 'बिखरे हुए लम्हात'। बिखरे हुए लम्हात इनका हालिया प्रकाशित संग्रह है, जो इंक पब्लिकेशन, प्रयागराज से 2024 में आया है। शिज्जू शकूर की ग़ज़लों का रंग पारम्परिक स्वभाव का है और फ़िक्र ताज़ा व अपने समय की। उर्दू ग़ज़लों के मूल स्वभाव यानी शृंगार तथा दर्शन के साथ ही इनकी ग़ज़लों में अपने दौर की परिस्थितियों की झलक भी देखी जा सकती है। इनके यहाँ भाईचारे की भावना के ह्रास तथा नफ़रत की भावना के बढ़ते परिदृश्य के प्रति चिंताएँ साफ़ दिखती हैं। ख़राब होती पारिस्थितिकी पर भी इनकी ग़ज़लों में पर्याप्त चिंतन दिखाई देता है। अपने देखे-जिए जीवन के प्रति मंथन स्वरूप जो निष्कर्ष निकलता है, वह दर्शन बनकर हमारी सोच में झलकता है। जब यह दर्शन प्रकाश पाता है तो यह न केवल हमारी अपनी दुनिया को रोशन करता है बल्कि उसे पढ़ने वाले अनेक लोगों को भी लाभ पहुँचाता है। दुनिया की असलियत का इनके पास गाढ़ा अनुभव है, जो इनके शेरों में अभिव्यक्त होकर आता है।

बोलचाल की भाषा के साथ ही शिज्जू शकूर उर्दू की गाढ़ी शब्दावली का भी प्रयोग करते हैं। भाषा का एक अच्छा-खासा डिक्शन है इनके पास। ग़ज़ल कहने का लहजा इनका बड़ा साफ़-सुथरा है। ये पाठक को शब्दों की जगलरी में उलझाने, कल्पना की हवा-हवाई बनाने या चमत्कृत करने की बजाय सीधे-सादे तरीक़े से पूरी ग़ज़लगोई के साथ गंभीरतापूर्वक शेर में अपनी बात रखते हैं।

जीवन को देखने का इनका नज़रिया नपा-तुला है। किसी तरह की अतिशयता इन्हें पसंद नहीं फिर चाहे वह धार्मिक भावना की हो अथवा आपसी बर्ताव की। शिज्जू शकूर साहब सांप्रदायिक सद्भाव के समर्थक हैं। वे नहीं चाहते की किसी तरह हमारे भारतीय समाज में विद्वेष बढ़े। आज के माहौल में बढ़ती नफ़रत के प्रति भी ये चिंतित दिखाई पड़ते हैं। आपसी मेलजोल और सद्भाव बनाए रखने के लिए ये संयम तथा सब्र से काम लेने की सलाह देते हैं।

जो उगलते हैं यहाँ आग उगलने दे उन्हें
तू समझदार है हाथों के ये पत्थर रख दे

आग से आग कभी बुझती नहीं है प्यारे
उठती लपटों पे ज़रा सब्र का सागर रख दे

कितनी ख़ूबसूरत और ज़रूरी नसीहत है इन दो शेरों में! हमारे घर के झगड़ों से लेकर सांप्रदायिक टकरावों तक में यही नसीहत अगर ज़िम्मेदार लोग नौजवानों अथवा भड़के हुए लोगों के सामने रख दें तो शायद मंज़र कुछ अलग हों।

वर्तमान परिदृश्य के प्रति एक रचनाकार का परेशान होना लाज़मी है। यही हाल शिज्जू शकूर का भी है। उन्हें दुख है कि हमारे शांतिप्रिय समाज में ऐसी परिस्थितियाँ बन गयी हैं कि लोग बेमतलब एक-दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं। हमारा काम हमेशा से आपसी सामंजस्य तथा सहयोग से चलता आया है लेकिन आज की परिस्थितियों ने आदमी के मन में आदमी के प्रति अविश्वास पैदा कर दिया है। हर तरफ एक खौफ़ छा गया है कि कब कोई किसी के साथ अनहोनी कर दे। यह असुरक्षा की बढ़ती हुई भावना हमारे आपसी रिश्तों को निगलने के लिए आतुर है। रचनाकार की परेशानी का इज़हार देखिए-

कोई सूरत नहीं कि साँस मिले
गंध नफ़रत की ऐसी छाई है

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आग लगी है इक बस्ती में, इक बस्ती में वीराना
चाल मुहब्बत की धीमी है, नफ़रत की रफ़्तार बहुत

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वो कौन लोग हैं जो बे-वजूद कल के लिए
तमाम शह्र जलाते, तबाह करते हैं

हमारे भारतीय समाज के लोगों में फ़साद चाहे जो करवाता हो लेकिन यह भी सच है कि इसे अंजाम तो हम ही यानी एक सामान्य आदमी ही देता है। इसी सामान्य आदमी के अविवेक भरे रवैये से निराश शायर जनता के बेवकूफाना कामों पर उसकी भी आलोचना से संकोच नहीं करता। हमारी जनता की सोच और नादानियों पर चोट करता हूँ रचनाकार कहता है कि

चंद गारतगरों के कहने पर
फूँकती है ख़ुद अपना घर जनता

खेल उनका बिसात उनकी मगर
जां लगाती है दाँव पर जनता

सच तो ये भी है साहिबान कि अब
अपने हक़ से है बेख़बर जनता

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शर्म की बात पर करे है नाज़
ख़ूब इंसां की बेहयाई है

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नई नस्लों की नादानी को क्या कहिए
मुहब्बत कह के कुछ भी कर गुज़रते हैं

धन, ऐश्वर्य और पहुँच हमारे दौर के सिर पर चढ़कर ऐसे बोल रहे हैं कि ग़रीब-वंचित और उनके मुद्दे किसी के लिए भी मायने नहीं रखते। सत्ता उलजुलूल राजनीतिक हरकतों और शोशेबाज़ी में व्यस्त है, मीडिया भांडपने में और पढ़ा-लिखा, संपन्न वर्ग खाने-कमाने-उड़ाने में। ऐसे में ग़रीबी और ग़रीबों से जुड़े ज़रूरी सवालों की ओर किसका ही ध्यान जाएगा! ऐसे में ज़रूरतमंद यही सोचता रह जाता है कि

आसमां तक तो पहुँचते नहीं मैं सोचता हूँ
हम ग़रीबों के सवालात कहाँ जाते हैं

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अमीर को तो है हक़ लूटने का और हमें
वो इख्तियार नहीं है कि दें दुहाई भी

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सवाल पूछना इस दौर में गुनाह हुआ
लगाव ज़िंदगी से है तो बिन सवाल के चल

शिज्जू शकूर साहब की आलोचना का दायरा थोड़ा विस्तृत है। एक तरफ जहाँ वे सत्ता-व्यवस्था के ग़ैर ज़रूरी कामों पर सवाल उठाते हैं, वहीं सामान्य जनता को अपना विवेक इस्तेमाल न करने के लिए लताड़ते हैं। इधर इशारों-इशारों में वे संकुचित मानसिकता के लिए एक साथ कई तरह के लोगों को निशाने पर लेते हैं। अच्छा यह देखकर लगता है कि वे दोनों तरफ के लोगों की 'छोटी सोच' पर प्रहार करते हैं। एक अच्छा रचनाकार वही होता है, जो प्रगतिशील विचारधारा के साथ संतुलन को भी बनाए रखे तथा ख़ुद किसी तरफ झुके बिना तटस्थता के साथ अपने साहित्यिक दायित्व का निर्वहन करता रहे।

ज़माना चाँद को छू आया है लेकिन
तू अब भी जुगनुओं की दास्तां तक है

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वक़्त सदियों का सफ़र तय कर चुका
हम रवायत पर ही लड़ते रह गये

पर्यावरण हमारे समय का अतिसंवेदनशील विषय है। आज का हर सजग रचनाकार पर्यावरण के विनाश के प्रति पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता ही है। यह ज़रूरी भी है। ग़ज़ल को कुछ ही विषयों तक सीमित रखने के पक्षधर उर्दू ग़ज़ल के पैरोकारों में भी अब यह चेतना देखी जा रही है। बहुत अच्छी बात है क्यूँकि पर्यावरण हमारे जीवन का एक बहुत ज़रूरी घटक है और इसके प्रति सचेत होना हम सबके लिए हितकर है। शिज्जू शकूर की ग़ज़लों में पर्यावरण विमर्श के कुछ अच्छे शेर मिलते हैं-

आबो-हवा वो सूरज अब तल्ख़ हो चले हैं
कुदरत से हमने देखो रिश्ते बिगाड़ डाले

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आरी बहुत ही तेज़ थी लालच की इसलिए
आया जो दरमियान वही पेड़ कट गया

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कुदरत कहाँ बनाए जगह अपने वास्ते
जंगल तमाम काट के इंसान डट गया

इसी तरह ग़ज़ल की परम्परा से इतर इस संग्रह में बहुत-सी उम्मीद जगातीं हुई कुछ अलग चीज़ें देखने को मिलती हैं। एक जगह कोरोना काल की भयावहता को मद्देनज़र रख, रचनाकार इंसानी फ़ितरत पर कटाक्ष करते हुए एक बड़ा सच्चा शेर कहता है-

बेचारगी, वो टूटती साँसें, तड़पती जान
गुज़रेगा जब ये दौर सभी भूल जाएँगे

एक और उल्लेखनीय शेर इस संग्रह में मिलता है, जो ज़रूरतमंद की सहायता से लेकर नेत्रदान जैसे प्रासंगिक विषय तक अपने भाव का विस्तार रखता है-

बाद तेरे कोई और देखे जहां
एक माजूर को कर अता रोशनी

इस प्रकार कहा जा सकता है कि 'बिखरे हुए लम्हात' संग्रह उर्दू की ग़ज़लगोई में एक नई करवट के लिए बेताब जान पड़ता है। इसके रचनाकार शिज्जू शकूर साहब पारंपरिकता एवं आधुनिकता का बड़ा अच्छा सामंजस्य कर एक नई तरह की परम्परा को आयाम देने में अपनी भूमिका अदा करते दिखते हैं। अपनी विषयवस्तु, लेखन शैली, भाषा आदि सभी पहलुओं में यह संग्रह अपने आपको खरा साबित करता है।




समीक्ष्य पुस्तक- बिखरे हुए लम्हात
विधा- ग़ज़ल (उर्दू)
रचनाकार- शिज्जू शकूर
प्रकाशक- इंक पब्लिकेशन, प्रयागराज
संस्करण- प्रथम, 2024
मूल्य- 220 रुपए