डॉ० ब्रह्मजीत गौतम हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़लकार माने जाते हैं। आप न केवल एक अच्छे ग़ज़लकार हैं बल्कि एक छंदशास्त्री भी हैं। हिंदी ग़ज़ल लेखन में बहुत कम ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिन्हें शिल्प का काम भर से ज़्यादा ज्ञान हो। हालाँकि अब हिंदी की ग़ज़लों में शिल्प की अव्यवस्था बहुत कम हुई है लेकिन शिल्प की ज़रूरत से कुछ अधिक जानकारी रखने वाले रचनाकार बहुत कम हैं। डॉ० ब्रह्मजीत गौतम इस मामले में अलग हैं। इनकी ग़ज़लों की भाषा भी बोलचाल की भाषा से थोड़ा इतर तत्समनिष्ठ शब्दावली की है।
वर्ष 2021 में इनका ग़ज़ल संग्रह करती है अभिषेक ग़ज़ल किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राज०) से प्रकाशित हुआ है। यह ग़ज़लों का इनका तीसरा संग्रह है। इससे पूर्व इनके 'वक़्त के मंज़र' एवं 'एक बहर पर एक ग़ज़ल' संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह की ग़ज़लों की भाषा भी तत्समनिष्ठ है, जैसा मैंने ऊपर ज़िक्र किया। आगे बढ़ने से पूर्व कुछ शेर देख लेते हैं-
बादलों का योग है कैसा बना
है किसी व्यवधान की संभावना
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नहीं अब सत्य की ऊँचाइयाँ हैं
चतुर्दिक छल-कपट की खाइयाँ हैं
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बैठें कुछ देर अंतस में ईश्वर के पास
शब्दशः है यही अर्थ उपवास का
हालाँकि हिंदी ग़ज़ल की भाषा आम आदमी की बोलचाल की भाषा ही है, जिसमें अनेक भाषाओँ के शब्दों का मिश्रण है लेकिन शुद्ध हिंदी के शब्दों के साथ ग़ज़लीयत (कविताई) बनाए रखते हुए शेर निकाला जाना भी हिंदी साहित्य तथा इस विधा में कुछ नया जोड़ता है। ऐसा इस विधा की यात्रा में बराबर होता भी रहा है। ऊपर के शेरों की ख़ासियत है कि इन शेरों में ग़ज़लीयत भी भरपूर है।
इसके अलावा इस संग्रह की एक और विशेषता है, वह यह कि इसमें प्रचलित/अप्रचलित बहुत-सी बहरों में ग़ज़लें कही गयी हैं। बहरों की इतनी विविधता नए ग़ज़लकारों के लिए सीखने के उद्देश्य से बड़ी उपयोगी है। नए ग़ज़लकार साथी इस संग्रह की ग़ज़लों की बहरें निकालकर उन्हें समझ भी सकते हैं और अभ्यास भी कर सकते हैं। बहरों के अभ्यास में यह पुस्तक उदाहरणस्वरूप बहुत काम आ सकती है।
पुस्तक में कुल 101 ग़ज़लें संगृहीत हैं, जिसमें हमारे जीवन और समय से जुड़े विभिन्न विषयों पर शेर कहे गये हैं। हिंदी ग़ज़ल समग्र जीवन की ही ग़ज़ल है और यह बात इस संग्रह में भी है। परिवार और रिश्ते हम सबके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ये ही हमारे जीवन को सबसे अधिक प्रभावित भी करते हैं। आज के हमारे समाज में अपने सपनों और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए महानगरों या विदेशों में गये बेटों का लौटना लगभग नामुमकिन ही होता है। वे अपनी कर्मभूमि में इतना रम जाते हैं कि वहीं के होकर रह जाते हैं। ऐसे में बुढ़ापे में जिस 'लाठी' की आस होती है, वह सहारा बनने के लाख प्रयासों के बावजूद बन नहीं पाती। इसी आस के होने और उसके टूटने तक की कहानी कहता यह शेर देखिए कितने घरों का मर्म समेटे हुए है अपने भीतर-
जिनका रस्ता देख आँखें थक गयीं
वे विलायत में दुलारे खो गये
माँ और बेटी, दुनिया के तमाम रिश्तों में ये दो रिश्ते शायद सबसे ज़्यादा पवित्र हैं। आज की विकृत होती सामाजिक व्यवस्था में भी ये दोनों रिश्ते सबसे ज़्यादा साबुत बचे हैं, ऐसा कहा जा सकता है। एक बेटा अपनी माँ में दुनिया की सबसे सुंदर महिला को देखता है, इसमें कोई हैरानी की बात नहीं। डॉ० ब्रह्मजीत गौतम भी देखते हैं और कहते हैं-
उम्र अधिक है, तन जर्जर है
फिर भी माँ सबसे सुंदर है
'फिर भी' यहाँ दुनियाभर का रूप-सौंदर्य देखने-परखने के बाद अपनी बात को मज़बूती देने के लिए रखा गया है। कथन की पूर्ति के लिए नहीं, पैरवी के लिए।
वे समय के साथ सयानी होती बेटी में उस रुख्सती को भी देखते हैं, जो शायद दुनिया की सबसे पीड़ादायक रुख्सती है। एक बेटी का सालों तक घर-परिवार में रहकर एक दिन अनजान लोगों में चला जाना। और ऐसा होने में शुभ-अशुभ की कितनी ही संभावनाएँ भी छिपी होती हैं। कविता का मार्मिक पक्ष इस रुख्सती के पीछे से झाँकता दिखता है और फिर एकदम उभरकर आता है। यह अनुभव दुनिया का हर बाप करता है, ऐसा मैं कह सकता हूँ-
देखकर बेटी सयानी, बाप का
रो उठा मन रुख्सती के ध्यान से
डॉ० ब्रह्मजीत गौतम की कहन बड़ी सीधी-सादी है। शब्दों का आडम्बर इनके यहाँ कम मिलता है। लेकिन अपने आसपास और समाज में बिखरी हुई विसंगतियों को अपनी रचनाओं में उकेरने के लिए कहन का वक्र हो जाना ज़रूरी भी है। यहाँ रचनाकार को एक हथियार की ज़रूरत पड़ती है, व्यंग्य की। व्यंग्यात्मक कहन के शेर भी इस पुस्तक में देखे जाते हैं। ऐसे समय में जब हर जगह, हर कोई आत्मकेंद्रित हुआ जाता है, वहाँ स्व को छोड़कर बाक़ी सभी सर्वनाम कोई महत्त्व नहीं रखते, तब यह शेर उपजता है-
'वह', 'तुम', 'वे' हल्के हुए
बस 'मैं' में ही भार है
किसी प्रकार काम निकलवाना आज 'दुनियादारी' हो गया है, यानी शब्द अपना अर्थ बदलकर किस प्रकार दूसरे टर्म में प्रयोग होने लगते हैं, इस शेर के माध्यम से समझा जा सकता है। यहाँ भी व्यंग्य का बारीक अस्त्र प्रयोग हुआ है। आज के समय में वह, जिसे 'दुनियादारी' समझ नहीं आती, कितना पिछड़ा हुआ माना जाता है, आप हम सब जानते हैं-
रिश्वत अब रिश्वत न रही
है वह तो दुनियादारी
तब रचनाकार को काम के होने की तरह काम होता दिखे तो चौंककर कहना पड़ता है-
निपटे काम बिना रिश्वत के
कैसा सरकारी दफ़्तर है
उपरोक्त शेर पढ़कर लगता है कि व्यंग्य बिना आवाज़ के शब्दों के हाथों थप्पड़ लगाने की एक कला है। काश ये थप्पड़ हमारी आँखें खोलने में सहायक हों।
दुनिया-जहान में सभी तरह की नकारात्मकओं व निराशाओं के बावजूद कुछ हकीकतें हैं, जो उम्मीद बँधाए एवं बचाए रखने में सहायक हैं। रचनाकार हमारे जीवन से ऐसी ही हकीकतों को चिह्नित कर उन्हें हमारे सामने रखता है ताकि हम अपने आप को प्रेरित भी कर सकें तथा जीवन के यथार्थ को भी जान-समझ सकें। पुस्तक से कुछ ऐसे ही शेर देखें-
मेहनत के पेड़ों पर इक दिन
निश्चित मीठे फल आएँगे
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उठकर गिरना, गिरकर चलना
जीवन में होता है अक्सर
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बीज को कौन है मिटा पाया
दफ्न होकर भी लहलहाया है
दर्शन का हमारे जीवन में एक अहम स्थान है। दर्शन किसी विद्वान की तलाशी हुई कोरी फ़िलोस्फी नहीं, वह हमारे अपने अनुभवों से निकली हुई वे सूत्र-पंक्तियाँ हैं, जो केवल हमारे ही नहीं, अनेक-अनेक लोगों के जीवन को आसान करने की सामर्थ्य रखती हैं। बशर्ते उन सूत्र-पंक्तियों को शब्दों के इतर उनकी गहराई तक जाकर समझा जा सके, महसूस किया जा सके। डॉ० ब्रह्मजीत गौतम अपने और अपने आसपास के जीवन से ऐसी ही सूत्र-पंक्तियाँ चुन कर शेरों के ज़रिए हमारे सामने रखते हैं-
रात के साथ ही ढल चली
रातरानी की अंतर्कथा
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ग़म-ख़ुशी दोनों ही मिलते हैं गले
द्वार पर बजती हैं जब शहनाइयाँ
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आँधियों में टूट भी जाएँ तो क्या
बीजों का संसार बो जाते हैं पेड़
संग्रह 'करती है अभिषेक ग़ज़ल' ग़ज़लों में जीवन की वेदना और संवेदनाओं के ज़रिए शब्दों से भावों का अभिषेक करने का सफल उद्यम करती है। इन रचनाओं में हम अपने समग्र जीवन को अपने सम्मुख खड़ा पाते हैं और पाते हैं कि हमारा जीवन कहाँ व किस तरह निहारे व न निहारे जाने की स्थितियों में है, कहाँ और किस तरह सुधारे-सँवारे जाने की संभावनाएँ लिए है।
समीक्ष्य पुस्तक- करती है अभिषेक ग़ज़ल
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- डॉ० ब्रह्मजीत गौतम
प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राज)
संस्करण- प्रथम, 2021
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