Friday, August 5, 2016

साझे नभ के कोने में चहचहाते हायकु के परिंदे






हायकु जापानी साहित्य की एक सुप्रसिद्ध विधा है, जो अब विश्व भर के साहित्य में स्वीकृत है। तीन पंक्तियों और कुल सत्रह (5+7+5) वर्णों की यह रचना एक पूर्ण कविता होती है। तीनों पंक्तियों में एक एक शब्द इस तरह जड़ा जाता है कि कहीं से भी किसी शब्द को हटा देने से समग्र रचना की सुंदरता ख़त्म हो जाती है। हायकु की तीनों पंक्तियाँ पृथक होती हैं और अपनी अपनी बात पूरी करती हैं। जापानी साहित्य में यह विधा प्रकृतिपरक विषयों के लिए मशहूर है लेकिन हिंदी में इस तरह की कोई बाध्यता नहीं है। हिंदी में हायकु रचनाकार इसकी शिल्पगत सीमाओं में रहते हुए किसी भी विषय पर अपनी संवेदनाएँ उकेर सकता है।
भारत को हायकु कविता से परिचित कराने का श्रेय कविवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर को जाता है और हिंदी में इसकी प्रथम चर्चा अज्ञेय द्वारा की गयी मानी जाती है। उन्होंने छठवें दशक में ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ (1959) में अनेक हायकुनुमा छोटी-छोटी रचनाएँ लिखीं हैं, जो हायकु के बहुत निकट हैं। उसके बाद कई दशकों से अनेक हिंदी रचनाकार इस छोटी सी सशक्त विधा में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। हायकु विधा की अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं।
इसी कड़ी में पिछले दिनों विभा रानी श्रीवास्तव जी द्वारा सम्पादित हायकु के नव हस्ताक्षरों की पुस्तक ‘साझा नभ का कोना’ प्रकाशित हुई है। पुस्तक में कुल 26 रचनाकारों के परिचय सहित उनकी कुछ हायकु रचनाएँ शामिल हैं। सभी रचनाकारों द्वारा अलग अलग तय विषयों पर अपनी कलम चलाते हुए बहुत सुंदर रचनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।
इलाहाबाद के रत्नाकर प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में विभिन्न सामाजिक सरोकारों के विषयों पर अच्छी रचनाएँ देखने को मिलती हैं। 
दिल में दया और आँखों में हया लेकर सारे जग को अपना बनाने की ‘ट्रिक’ समझाते कपिल कूमार जैन का बहुत सुंदर हायकु देखें-
दिल में दया
आँखों में जो हो हया
जग तुम्हारा
एक अन्य हायकु में वे रात, सपनों और सूरज का मानवीकरण करते हुए कहते हैं-
रात ने बोई
सपनों की फसल
उगा सूरज
इसी प्रकार कैलाश भल्ला जी अपने एक हायकु में रहस्यवाद का सहारा लेते हुए मन की प्यास पर लिखते हैं-
मन भटके
ज्यों पावे त्यों बढ़े
तृषा न मिटे
‘ओस’ विषय पर वे बहुत सुंदर कल्पना करते हुए वे कहते हैं-
ठण्ड के मारे
मेघ छोड़ के भागे
ओस के पारे
तुकाराम खिल्लारे जी धरती, आकाश और जीवों के एक परिवार की कल्पना कर पिता और माँ के उत्तरदायित्व को कितनी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं, देखें-
नभ बैरागी
झंझावात सहती
जीव संग भू
बेजान बाँसुरी के श्वासों से स्पर्श करते ही उत्पन्न मधुर ध्वनी का चित्रण करते हुए धर्मेन्द्र कूमार पाण्डेय जी कहते हैं-
श्वासों का स्पर्श
गाती बेजान बंशी
मधुर ध्वनि
हमारे दौर भी विडंबना को शब्द देता पवन बत्रा जी का हायकु क्या कुछ कह जाता है, देखिये-
बेख़ौफ़ रहे
आज के अपराधी
पीड़ित सहे

इसी तरह कटते पेड़ों की व्यथा को अपनी हायकु रचना का स्वर देते पंकज जोशी एक महत्त्वपूर्ण सरोकार को हमारे सामने रखते हैं-
चीखते पेड़
प्रार्थना इंसानों से
छोड़ो काटना
प्रबोध मिश्र ‘हितैषी’ जी अपनी रचना में दार्शनिकता का समावेश करते हुए जीवन का एक सूत्र समझाते हुए दीखते हैं-
धूप छाँव सा
ज़िंदगी का संगीत
प्रिय अप्रिय
सभी सामाजिक, धार्मिक संकीर्णता को परे रख बेटियों द्वारा हर क्षेत्र में झंडे गाड़ने के काम पर कलम चलाती प्रवीण मलिक लिखती हैं-
काट बेड़ियाँ
बेटी भरे उड़ान
बढ़ा दे मान
ओस की एक बूंद की तुलना साध्वी से करते हुए उस चित्र का बहुत सटीक चित्रण करते हुए प्रीति दक्ष जी अपनी हायकु रचना में कहती हैं-
ओस की बूंद
कमलदल बैठी
शांत साध्वी सी
पुस्तक में इसी तरह की अनेक सुंदर हायकु रचनाएँ आपको आकर्षित करेगी। साथ ही संपादक सहित कुछ अनुभवी हायकु रचनाकारों के वक्तव्य भी पाठकों की जानकारी को और समृद्ध करेंगे। पेपरबैक संस्करण में पुस्तक का प्रकाशन कार्य भी बहुत सुंदर ढंग से हुआ है। शीर्षक को सार्थकता देता पद्मसंभव श्रीवास्तव का आवरण चित्र भी मन को लुभाने वाला है।
एक अच्छी पुस्तक के प्रकाशन के लिए संपादक, प्रकाशक और सभी सम्मिलित रचनाकार बधाई के पात्र हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- साझा नभ का कोना
विधा- हायकु संग्रह (साझा संकलन)
संपादक- विभा रानी श्रीवास्तव
संस्करण- प्रथम, 2015 पेपरबैक
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशन- रत्नाकर प्रकाशन, इलाहाबाद

2 comments:

  1. हम सब आभारी हैं .... आप बहुत अच्छा समीक्षा लिखते हैं ....

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