'दहलीज़ का दिया' भाई वाहिद काशीवासी का पहला ग़ज़ल संग्रह है। बनारस के रहने वाले वाहिद काशीवासी का मूल नाम संदीप द्विवेदी है। हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू ज़बानों पर बराबर पकड़ रखने वाले संदीप पेशे से स्वतन्त्र अनुवादक हैं।
'दहलीज़ का दिया' जैसा कि मैंने बताया, इनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें इनकी कुल 51 ग़ज़लें संग्रहित हैं। संग्रह की दो ख़ूबियां हैं जो इसे अन्य पुस्तकों से थोड़ा अलग करती हैं-
1. प्रस्तुत संग्रह देवनागरी और नस्तालीक़ दोनों लिपियों में प्रकाशित हुआ है। मतलब एक ही साथ सभी ग़ज़लें दोनों ज़बानों में पढ़ी जा सकती हैं। पुस्तक के आगे का हिस्सा देवनागरी व पीछे का हिस्सा नस्तालीक़ लिपि में है।
2. इस संग्रह में प्रकाशित सभी ग़ज़लों की बह्रों के बारे में पुस्तक के अंतिम पृष्ठों पर विस्तार से जानकारी दी गयी है।
साथ ही मुझे इसकी ख़ूबी यह भी लगी कि पुस्तक में उर्दू ज़बान के शब्दों को बहुत ही सलीक़े से शुद्दता के साथ पेश किया गया है। हमारी मिली-जुली भाषा में प्रचलित हो चुके शब्दों जैसे- शुक्रिया, हिस्सा, ज़माना, तारीफ़ आदि को क्रमशः शुक्रिय: हिस्स: ज़मान: ता'रीफ़ लिखा गया है, जो इनका मूल स्वरूप है।
अपने माता-पिता की पावन स्मृतियों को समर्पित इस पुस्तक में शामिल वाहिद भाई की ग़ज़लों पर क्लासिक ग़ज़ल परम्परा का सीधा असर देखा जा सकता है। जदीद फ़िक्र के बावजूद भी अरबी-फ़ारसी के भारी शब्दों से इन्हें ज़्यादा लगाव है, यह पुस्तक की सभी ग़ज़लों में दिखाई देता है।
मैं इसे किसी तरह की ख़ामी न कहकर महज़ अपनी बात रखना चाहूँगा कि किसी भी साहित्यिक रचना की लोक में स्वीकृति तभी संभव है, जब उस रचना में लोक में प्रचलित भाषा के ज़रिए ही बात रखी गयी हो।
नई सदी के आरम्भ से ही शायरी में बुनियादी बदलाव नज़र आने लगे थे और अब डेढ़ दशक से ज़्यादा का वक़्त बीतने के बाद देखा ये जा रहा है कि आज के शायर कहन के साथ-साथ ख़यालों से भी शायरी में ताज़गी भर रहे हैं। ऐसे में ग़ज़ल विधा के नए रचनाकारों को अपने आपको स्थापित करने में कुछ और मेहनत की ज़रूरत तो है ही, साथ ही इस क्षेत्र में इन बदलावों पर भी गौर करना होगा और अपने आपको अपडेट करना होगा।
हालाँकि शुरूआती दौर के लिहाज़ से संदीप भाई की कड़ी मेहनत का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है। ऊपर बताई तीन भाषाओं की अच्छी जानकारी के अलावा शब्दों को बरतने का तरीका, शेर कहने का सलीका और स्वाध्याय जैसे इनके गुण पुस्तक से बा-ख़ूबी ज़ाहिर होते हैं।
ग़ज़लों में कहीं-कहीं अच्छी फ़िक्र के शेर भी मिलते हैं और आसान शब्दों में कहे शेर भी। शिल्प पर भी इनकी अच्छी-ख़ासी पकड़ की झलक भी देती है यह पुस्तक। कहीं-कहीं बह्र के मैदान में हाथ साधते दिखते हैं तो कहीं एहसासों की ज़मीन पर अच्छी फ़स्ल भी उगाते हैं। कुल मिलाकर एक अच्छे शाइर की संभावनाएँ दर्शाता यह ग़ज़ल-संग्रह संदीप भाई से सही दिशा में मेहनत करने की उम्मीद करता है।
पूरी किताब में जहाँ-तहाँ आपका राबता रचनाकार के फ़क़ीराना मिज़ाज से भी होता रहेगा। चूँकि संदीप भाई को बचपन से घर में अदब के साथ-साथ संगीत का भी अच्छा माहौल मिला, उसका असर भी इनके लेखन में दिखता है।
फ़ुतूर इसको कहो चाहे सनक या फिर मेरी आदत
किसी को कुछ न समझूँ मैं, किसी को सब समझता हूँ
यह चीज़ एक कलन्दर में ही मिलती है, जो दुनियादारी और सांसारिक मोह-माया से परे हो।
ज़माने की आबो-हवा की फ़िक्र करते शेर भी कई जगह मिलते हैं-
बन रही हैं कुछ सड़कें, शह्र में महीनों से
गर्द से है घुटता दम, यह तरक्क़ी पाई है
न मिल पाया बंद: कोई काम का
जो लफ़्फ़ाज़ ढूँढे सरासर दिखे
अपने-अपने झूट पर सब इस क़दर थे मुतमइन
सामने आया जो सच तो हर कोई हैरान है
हज़ारों झूट हाथो-हाथ बिक जाएँ यहाँ लेकिन
किसी बाज़ार में सच की कोई क़ीमत नहीं मिलती
कुछ अशआर, जिन्होंने मुझे प्रभावित किया-
ख़ाहिश कोई हो शर्तिय: होती है मुकम्मल
इंसान अगर गिर्द* से बेदार हुआ है
गिर्द- आसपास
बित्ते भर की विशाल बनती हैं
फुनगियाँ ही तो डाल बनती हैं
इस कड़ी धूप में वो झुलस जाएगा
नन्हे पौधे पे कुछ देर साया करो
रात इक पल तुम्हारी याद आई
उम्र गुज़री वो पल नहीं गुज़रा
पुस्तक में 'हैं बनारस वाले' रदीफ़ से एक रोचक ग़ज़ल मिलती है, जो बनारसवासियों की कई विशेषताओं का बखान करती है, तंज कसती है। यह एक मुरस्सा और मुसल्सल ग़ज़ल है। हास्य का पुट होने की वजह से कहीं-कहीं इसमें 'हज़ल' के दर्शन भी होते हैं।
सारी दुनिया को सिखाते हैं बनारस वाले
रूह को तन से मिलाते हैं बनारस वाले
गंग भी बहती है उल्टी ये जगह ऐसी है
हर नियम तोड़ के जाते हैं बनारस वाले
कोई चेला नहीं काशी में किसी का यारो
'का गुरु!' कह के बुलाते हैं बनारस वाले
एक शेर में संदीप भाई कहते हैं कि-
मैं ग़ज़ल कहता मुरस्सा मुझे हसरत थी बड़ी
पर अलग ही है मज़ा कहना फ़साहत* में यूँ
फ़साहत- सादे शब्दों में सुंदर ढंग से बात कहना
मैं यह कहूँगा कि सादे शब्दों में सुंदर ढंग से बात कहने का अलग ही मज़ा है संदीप भाई। हम आपसे अगले संग्रह में यही उम्मीद करेंगे।
आपको पहले संग्रह के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद। सुनहरे साहित्यिक भविष्य के लिए शुभकामनाओं सहित अपनी बात आप तक पहुँचा दी है। बाक़ी आप ख़ुद पुस्तक की भूमिका में लिख रहे हैं-
"चूँके ज़ाती तौर पर मेरा मानना है कि सीखना ता-उम्र लगा रहता है और हमें ये एहसास दिलाता है कि हम ज़िन्द: हैं।"
और वैसे भी आप चाहते हैं कि-
कहा जो उनके कानों तक ख़बर जाए तो अच्छा हो
हर इक ख़ूबी-ओ-ख़ामी पर नज़र जाए तो अच्छा हो
मेरी पूरी कोशिश रही है कि हर ख़ूबी-ओ-ख़ामी पर बात करूँ। और उम्मीद करता हूँ कि अपनी कोशिश पर खरा उतरा हूँ।
समीक्ष्य पुस्तक- दहलीज़ का दिया
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- वाहिद काशीवासी
प्रकाशक- संदीप द्विवेदी
गंगाबाग़ कॉलोनी, लंका
वाराणसी- 221005
संस्करण- प्रथम, 2017 (पेपरबैक)
मूल्य- 90 रूपये मात्र
No comments:
Post a Comment