Tuesday, December 19, 2017

समाज की चिंताओं पर चिंतन करता संग्रह: यह मुकाम कुछ और




'यह मुकाम कुछ और' कुंअर उदयसिंह 'अनुज' का हाल ही प्रकाशित दोहा-संग्रह है, जिसमें विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत अलग-अलग विषयों और सरोकारों के दोहे संकलित हैं। मध्यप्रदेश के धरगाँव (ज़िला- खरगौन) निवासी कुंअर उदयसिंह 'अनुज' ठेठ ग्रामीण जीवन से जुड़े हैं। इसीलिए बदलते दौर की विसंगतियाँ, मूल्यों का पतन, रिश्तों के बिखराव, परम्पराओं से पलायन, साम्प्रदायिक अलगाव से इनका कवि मन आहत दिखता है। पूरी किताब में हमें जहाँ-तहाँ एक टूटन-सी महसूस होती है।

एक सहकारी बैंक से शाखा प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत कुंअर 'अनुज' अपनी जड़ों से जुड़े हुए व्यक्ति हैं, परम्पराओं के प्रति समर्पित हैं, मिट्टी की महक से प्यार करते हैं और मानवीयता के पक्षधर हैं। ये बातें इस पुस्तक के दोहों ने उनके बारे में बताई हैं। इनके लेखन में गाँव, खेत, परिवार, रिश्ते, रीति-रिवाज़, ग्रामीण जन, उनकी समस्याएँ सबके लिए पर्याप्त जगह है। समाज की चिंताओं की इन्हें भी चिंता है। ख़त्म होते मूल्यों, सौहार्द और अपनत्व की कसक है इनकी रचनाओं में। वे सर्वजन के दु:खों में दुखी होने वाले कलमकार हैं।

दोहा छन्द, जो आदिकाल से अब तक अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम रहा है, 'अनुज' जी के यहाँ भी ख़ूब मुखर होकर बोलता है। इस छन्द ने इतने युगों में हर बार अपनी जगह को बनाये रखा, यह भी इस विधा की एक उपलब्धि कही जा सकती है। अब तो खैर छन्दों की ओर लौटने के समय है; मुक्त छन्द कविता और अकविता के दौर में भी इस छन्द ने अपने आपको ख़त्म होने से बचाये रखा, यह आश्चर्य से कम नहीं।
अलग-अलग युगों में अलग-अलग सरोकारों को आवाज़ देता हुआ यह छन्द आज समाज के दुखों और चुनौतियों के साथ न केवल मजबूती से खड़ा है बल्कि कुंअर 'अनुज' जैसे रचनाकारों के हाथों में सुरक्षित है।
"अध्यात्म, भक्ति, नीति, उपदेश, संदेश और श्रृंगार-विहार के अनेकानेक पड़ावों से होकर दोहा आज जिस लोकानुभवों की भीड़-भाड़ में आ खड़ा है, अनुज की कला उसे एक सामाजिकता प्रदान कर रही है।" अपनी भूमिका में कही; डॉ. विजय बहादुर सिंह की यह बात; पुस्तक पढ़कर पूर्णत: सार्थक जान पड़ती है।

देश के वर्तमान हालात से दुखी होकर वे इन हालात के विश्लेषण के बतौर कुछ छन्द रचते हैं-

भटका अपना कारवां, हासिल हुआ न ठौर।
जिस मुकाम पर आ गए, यह मुकाम कुछ और।।
आज़ादी के 70 साल बाद भी हमारा देश जिस मुकाम पर है, वहाँ यह कहना सही भी है कि 'यह मुकाम कुछ और'। फिर भी देश के रहनुमाओं से यह पूछने का साहस कौन करे कि-

कैसा सींचा आपने, कैसी करी सँवार।
उपजाऊ इस खेत की, फ़सलें हैं बीमार।।

हम बस अफ़सोस भर कर संतुष्ट हो जाते हैं और उधर संसद जैसी पावन जगहों में गुंडे-मवाली मौज करते हैं। तभी कुंअर अनुज जैसे रचनाकारों को कहना पड़ता है कि-
लोकतन्त्र के भाग में, यह कैसा संजोग।
संसद और तिहाड़ में, एक सरीखे लोग।।

मोबाइल और इन्टरनेट से ज्ञान बटोर रही नई पीढ़ी जब आदर्शों से विचलित होती और मूल्यों को नकारती दिखती है तो इस व्यवहार से आहत कवि मन कुछ यूँ रुदन करता है-

ढहे सभी ऊँचे शिखर, बिखर गए आदर्श।
जीवन के उत्कर्ष का, किनसे करें विमर्श।।

बुआ, मौसियाँ, चाचियाँ, रहे किताबी नाम।
नई नस्ल का चल रहा, अंटी जी से काम।।

दादाजी गुमसुम हुए, घर में ही अनजान।
कम्प्यूटर में फँस गयी, बच्चों की मुस्कान।।

नई पौध का नित नया, देख ढंग व्यवहार।
दादाजी अब सोचते, चुप रहने में सार।।

भारतीय जनमानस में चौतरफा बढ़ते धार्मिक वैमनस्य और साम्प्रदायिक अलगाव पर भी चिंतित; कुंअर 'अनुज' का रचनाकार मन अपनी पीड़ा कुछ यूँ व्यक्त करता है-

जुम्मन अलगू चौधरी, जो थे गाढे मीत।
मन के आँगन अब उगी, अलगावों की भीत।।

कुंअर अनुज का रचनाकार साझी संस्कृति का समर्थक है, जिसका पोषक हमारा देश सदियों से रहा है। वे किसी एक धर्म या समुदाय विशेष पर कटाक्ष नहीं करते बल्कि सभी को आड़े हाथों लेते हुए दिखावे और आडम्बरों पर निशाना साधते हैं-

नफ़रत की ठोकर लिखी, सद्भावों के भाग।
धर्म ध्वजाएं, साजिशें, लगा रही हैं आग।।

बड़े-बड़े मंदिर खड़े, मस्जिद आलिशान।
पत्थर ही पत्थर दिखे, नहीं दिखे भगवान।।

मंदिर गूंजे आरती, मस्जिद बोल अज़ान।
कैसी पूजा भाइयों, सड़कें लहू-लुहान।।

सन्नाटे में है शहर, सड़कें सारी मौन।
चला गया है पोतकर, लहू यहाँ पर कौन।।

कंगूरे सब ढह गये, ढही क़िला दीवार।
नहीं ढहा मूँछों बसा, ठाकुर का संसार।।

इस तरह के कटाक्ष कर वे अपने रचना-धर्म को कबीर की परम्परा से जोड़ते दिखते हैं। इस तरह का रचनाकर्म वर्तमान समय की बहुत बड़ी ज़रूरत है।
कुंअर अनुज के रचनाकार को कबीर की परम्परा से जोड़कर मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं कर रहा, यह मैं ख़ूब जानता हूँ। इनके दोहों में धार्मिक और सामाजिक आडम्बरों पर गहरा कटाक्ष मिलता है। ये अपने लेखनी के पैनेपन की धार से कुरीतियों पर व्यंग्य के माध्यम से सच्ची और अच्छी सीख देते हैं-

श्राद्ध-पक्ष में खीर से, कौओं का आह्वान।
जीवित रहते बाप पर, नहीं दिया कुछ ध्यान।।

जमता ख़ूब जमावड़ा, और उमड़ते लोग।
दुपहर भगवत जी कथा, संध्या मुर्गा भोग।।

दोहा छन्द और श्रृंगार का सदियों का नाता है। दो पंक्तियों में अपने मन की बात प्रियतम तक पहुँचाने में रचनाकार अथाह आनन्द अनुभव करता है। तो उन्हीं दो पंक्तियों में बिछड़न का सारा दर्द उंडेल कर राहत महसूस करता है। अनुज जी के यहाँ भी श्रृंगार के दर्शन ख़ूब होते हैं-

रूप का ऐसा बखान कि चौदवीं का चाँद भी फीका लगे-

चेहरा सूबा रूप का, चोरों की भरमार।
दो नयना मुस्तैद हैं, बनकर सूबेदार।।

गुनगुन सुनकर आपकी, बुझते जलें चिराग।
आप हँसें तो खिल उठे, फूलों के सौ बाग़।।

रूप, गंध की घाटियाँ, मुझको लगती रेत।
फ़ीके तेरे सामने, केसर के सब खेत।।

वियोग की ऐसी आह्ह कि मन बस कसक कर रह जाये-

पास नहीं अब कुछ रहा, थी दौलत भरपूर।
चले गए तुम लूट कर, मन का कोहिनूर।।

प्रीत चुनरिया पर टंके, हम ऐसे दो फूल।
ज्यों नक़्शे पर श्रीनगर, दूर कहीं बैतूल।।

संयोग-वियोग का ऐसा अनूठा सामंजस्य कि आह्ह और वाह्ह एक साथ उठे-

दूर हुए पर पास हो, मेरे मन को घेर।
रोज़ चहकती याद की, चिड़ियाँ बैठ मुंडेर।।

कवि अपने काव्य के माध्यम से जनमानस को सदियों से प्रेरित करता आया है, दिशा देता आया है। समाज में, वर्तमान परिदृश्य में या जीवन में चाहे कितनी ही नकारात्मकता क्यों न हो, आस और उम्मीद का दामन छोड़कर बैठ जाना कायरता है। इस पुस्तक में भी ऐसे ही ऊर्जा देते और हौसला बढाते बहुत से दोहे देखे जा सकते हैं-

कठिन पहेली ज़िन्दगी, बूझ सके तो बूझ।
हल्दीघाटी साँस की, तू राणा-सा जूझ।।

जला आग में तब मिला, कुंदन को यह रूप।
निखर गया वो आदमी, झेल दुखों की धूप।।

माँ-पिता ऐसे विषय हैं, जिन पर लिखना कतई आसान नहीं है। ये एक ऐसी जोड़ी है जिसके मेल ने सृष्टि लिख दी है, अब उन पर क्या लिखा जाय, क्या शेष बचा है कहने को! लेकिन फिर भी कुंअर अनुज जी यह दुस्साहस करते हैं और क्या ख़ूब करते हैं, देखिए-

गर्मी में ठण्डी हवा, जाड़े मीठी धूप।
बारिश में छत-सी तने, माँ के कितने रूप।।

शीश झुकाकर टाँकती, लुगड़ी में पैबंद।
अनपढ़ अम्मा लिख रही, संघर्षों के छंद।।

पिता पाणिनी-व्याकरण, जीवन अगर किताब।
सिखा गए हर प्रश्न का, लिखना सही जवाब।।

कुंअर उदय सिंह 'अनुज' अपने दोहों में कितने ही विषयों को, कितनी ही बातों को समेट लेते हैं। इनके पास शिल्प की जितनी कसावट है, कथ्य में उतनी ही विविधता और गहराई। पूरी किताब में हमें कितने ही लाजवाब करने वाले दोहे मिलेंगे।
मैंने पढ़ते समय कुछ उम्दा दोहों को चिह्नित किया था लेकिन यहाँ उन तमाम दोहों को शामिल कर पाना मुश्किल है। कितने ही दोहे मैं आपके सामने प्रस्तुत कर चुका हूँ लेकिन अभी कई दोहे हैं जो छूट रहे हैं। कुछ दोहे और पढ़ लें-

शीशे पर आ बैठती, चिड़िया कुछ पल मौन।
चोंच मार फिर पूछती, बता बहन! तू कौन?
एक दृश्य का कितना सुंदर चित्रण है!

बादल की छतरी तले, हवा करे है छेड़।
लड़की जैसे भीगते, सकुचाये-से पेड़।।
नाज़ुक-से भावों को समेटे इससे बेहतर प्रतीकात्मक दोहा क्या होगा!

जब कच्ची दीवार थी, पड़ती रही दरार।
अब दरार मन में पड़ी, पक्के हैं घर-बार।।
समय के बदलाव को बहुत बारीकी से उकेरा गया है यहाँ। एक वक्त वह भी था जब गाँव के हर बच्चे-बूढ़े के नाम मुँहज़बानी याद होते थे, एक वक्त यह भी है कि बगल के फ्लैट में कौन रहता है यह भी मालूम नहीं!

और अब वह दोहा, जिसे मैं किताब का हासिल कहूँगा। हालाँकि यूँ तो किताब के तमाम दोहे उम्दा हैं लेकिन इस दोहे ने मुझे कुछ देर रोक लिया, कई बार पढ़ा तो भीतर से आवाज़ आई कि यह दोहा इस किताब का हासिल है, क्यों है नहीं पता, देखिए-

जल तो कब का उड़ गया, रे मन! अब तो चेत।
रिश्तों की नदिया रही, रेत रेत बस! रेत।।

कुंअर उदयसिंह 'अनुज' जी का हृदय से आभारी हूँ, कि उन्होंने मुझे इतनी बेशकीमती किताब पढने का अवसर दिया। समीक्षा तो क्या! उल्लेखित दोहों ने ख़ुद-ब-ख़ुद ही किताब के बारे में सबकुछ बोल दिया है। मैं अनुज जी को सार्थक सृजन के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।





समीक्ष्य पुस्तक- यह मुकाम कुछ और
विधा- दोहा
रचनाकार- कुंअर उदयसिंह 'अनुज'
प्रकाशक- सुभद्रा पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2017 (हार्ड बाउंड)
मूल्य- दो सौ रूपये

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