गतिविधियों की रेल रवि खण्डेलवाल जी का दोहा संग्रह है। यह कुछ समय पहले श्वेतवर्णा प्रकाशन से छपकर आया है। रवि खण्डेलवाल जी हमारे समय के हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकारों में एक हैं। नवगीत, ग़ज़ल और नई कविता में भी इनका लेखन है और पुस्तकें भी प्रकाशित हैं। दोहों की यह इनकी पहली प्रकाशित कृति है।
दोहा विधा हिंदी कविता का अत्यंत प्रचलित प्रारूप है। इस विधा का सफ़र हिंदी भाषा की उत्पत्ति से भी पहले का है। हिंदी के अब तक के साहित्यिक सृजन में हर एक काल में इस विधा में रचनाएँ होती रही हैं। दो पंक्तियों में बड़ी-बड़ी बातें अपने भीतर समेट लेना इस विधा की बड़ी विशेषता है। हिंदी की सभी विधाओं में इसकी समाहार शक्ति सर्वाधिक है, यही कारण है कि हर दौर के कवि ने इस विधा में अपने आपको अभिव्यक्त करने का उद्यम किया है।
दोहे के इतने लम्बे समय तक अस्तित्व में बने रहने का कारण यह भी है कि यह अपने भीतर अपने समय को समाहीत करता आया है। अपभ्रंश से हिंग्लिश तक के क़रीब 25 सौ साल के समय के दौरान इस विधा ने हर समय, हर दौर की समकालीन परिस्थितियों एवं संवेदनाओं को अभिव्यक्ति दी है। आधुनिक दोहा यानी हमारे समय का दोहा, समकालीन सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्द है।
रवि खण्डेलवाल जी का लेखन भी समकालीन सरोकारों से संपृक्त है। ग़ज़ल, गीत, कविता अथवा दोहा कोई भी प्रारूप हो इनकी रचनाओं का स्वभाव हमेशा अपने समय के विविध और ज्वलंत मुद्दों पर केंद्रित रहा है। यह भी एक कारण है कि दोहा विधा का आधुनिक स्वरूप इन्हें प्रिय रहा है और इस विधा में इन्होंने सृजन भी किया है।
प्रस्तुत पुस्तक में अनेक विषयों पर आपको मारक और मार्के के दोहे पढ़ने को मिलेंगे। वर्तमान जीवन से जुड़ा शायद ही ऐसा कोई पहलु होगा, जिस पर इन्होंने अपनी कलम न चलाई हो। राजनीति से लेकर ग़रीबी, कोरोना त्रासदी से लेकर ग्लोबल वार्मिंग, किसानी चिंताओं से लेकर पर्यावरणीय चिंतन तथा सत्ता की निरंकुशता से लेकर आमजन की हड़ताल तक हमारे समय के लगभग समस्त विषय इनके दोहों के कथ्य में समाहीत होते हैं। इनके लेखन का स्वभाव जनवादी रहा है इसलिए आमजन से जुड़े वे सभी पहलु इस पुस्तक में उपस्थित हैं, जिनकी तरफ ध्यान इंगित किया जाना आवश्यक है।
हमारा समय विडंबनाओं का समय है। हर एक क्षेत्र में जिस तरफ भी हमारी सोच जाती है, एक विडंबना दिखाई देती है। संसद से लेकर देश के किसी भी कार्यालय तक आप देख आइए, योग्य व्यक्ति आपको धक्के खाते ही नज़र आएँगे और अयोग्य, नाकारा अथवा दिखावेबाज सम्मानित होते, पद पाते दिखेंगे। हालाँकि ये हालात दशकों से हम देखते आ रहे हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इनमें और वृद्धि हुई है। हिंदी की कविता परंपरा में रवि खण्डेलवाल जैसे रचनाकार समय-समय पर इन परिदृश्यों को उजागर करते आये हैं।
कलयुग में दुष्कर्म ने, पाया 'रवि' वरदान।
अभिशापित सत्कर्म हैं, सम्मानित अपमान।।
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जिनके माथे पर लिखे, एक नहीं दस खून।
संसद में वे बैठकर, बना रहे क़ानून।।
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सत्य कुटी में आज भी, गोबर रहता लीप।
बन बैठा छल-छद्म से, झूठ महल का दीप।।
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कलियुग में 'रवि' राम के, नामित मिले हज़ार।
कर्मों से पर एक भी, मिला न उस अनुसार।।
इसी क्रम में वे किसान जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्ति की भी हमारे यहाँ होती दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं-
कृषक बिना इस देश का, कोई नहीं वजूद।
फिर भी ऋण पर दे रहा, मनमाना 'रवि' सूद।।
अब हमें यह सोचना है कि हम ऐसी परिस्थितियों में क्यूँ घिरे हैं। किस तरह इन स्थितियों को बदला जा सकता है। देश अथवा समाज हित में सबसे पहले हमें हमारे भीतर की नैतिकता को पुनर्जीवित कर अपने यहाँ की व्यवस्था ठीक करने की ओर ध्यान देना होगा। रचनाकार अपने परिवेश की वस्तुस्थितियों को हमारे सामने रख, उनका हल भी सुझाते हैं-
ऐसा लगता है मुझे, शायद हम हर बार।
ख़ुद के दोहन के लिए, चुनते हैं सरकार।।
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अँधियारों को सौंप दी, सत्ता की सौगात।
कैसे फिर बतलाइए, बदलेंगे हालात।।
कुछ तथ्य ऐसे होते हैं, जो हर काल-परिस्थिति में वैसे ही रहते हैं। संसार की व्यवस्था में कुछ बातें उसके सृष्टा ने तय कर दी हैं। ये बातें एक यथार्थ का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं। दार्शनिक अथवा बुद्धिजीवी लोग उनकी तरफ ध्यान दिलाकर एक धारणा प्रस्तुत करते हैं। कवि इन तथ्यों अथवा धारणाओं में भी कवित्व पैदा कर बड़े रसात्मक ढंग से सामान्य पाठक को इनसे परिचित करवा देते हैं। पुस्तक में ऐसी ही कुछ यथार्थपरक रचनाएँ भी पाठक का ध्यान खींचने में समर्थ होती हैं-
कलाकार तो कर रहे, 'रवि' उनको जीवंत।
जिनकी गाथा का हुआ, सदियों पहले अंत।।
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जो कुछ करते ही नहीं, उनके क्या परिणाम।
ग़लती भी करते वही, जो कुछ करते काम।।
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माँ तपती चट्टान-सी, माँ पीपल की छाँव।
माँ बेचैनी का शहर, माँ धीरज का गाँव।।
दोहा नीतिपरकता के लिए जग प्रसिद्ध रहा है। इसके इतिहास में कुछ ऐसे महान रचनाकार हुए हैं, जिन्होंने अपनी नीति की रचनओं में दुनिया की रीत, उसके ढंग को हमारे सामने खोलकर रख दिया है। ये नीतिपरक रचनाएँ अपने भीतर गूढ़ और विशाल दर्शन समेटे हुए होती हैं तथा ये रचनाएँ सदियों से मानव-जीवन का मार्गदशन करती आयी हैं। इस संग्रह में रवि खण्डेलवाल जी भी अनेक नीतिपरक उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत करते हैं। ये छोटी-छोटी रचनाएँ पाठक-मन को सजग करने, प्रोत्साहित करने तथा दिशा देने में पूर्णत: सक्षम जान पड़ती हैं-
मन में बैर न पालिए, मन बैरी हो जाय।
मन के बैरी भाव से, हर पल मन बौराय।।
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काम, क्रोध, मद, लोभ, तज, संयम से ले काम।
चारों मन के शत्रु हैं, नाम करें बदनाम।।
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मन में किंचित भी नहीं, पालें 'रवि' संताप।
ख़ुद को स्वयं तराशते, रहिए प्रतिपल आप।।
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सुनी-सुनाई बात पर, कभी न दीजे ध्यान।
अपने ज्ञान-विवेक से, 'रवि' लीजे संज्ञान।।
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जल जाएगा एक दिन, ज्वाला में ख़ुद आप।
दूजे के घर को जला, हाथ कभी मत ताप।।
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आँखें दीं भगवान ने, अनुपम ज्ञान-विवेक।
समझ-बूझ क्या सत्य है, क्या असत्य, क्या फेक।।
समीक्षा लिखते हुए एक छोटी-सी घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। हमारे घर अक्सर आने वाले एक परिचित, जो पशु चिकित्सा विभाग में कार्यरत हैं, एक दिन हमारे साथ शाम की चाय पी रहे थे। उनके आने से पहले मैं कुछ पुस्तकें लेकर बैठा पढ़ ही रहा था। उनमें यह पुस्तक भी थी। बातचीत के बीच मैं कुछ देर किसी काम के लिए उठा था, उस बीच उनका ध्यान पास रखी इस पुस्तक पर गया। मेरे आने तक उन्होंने इसके कुछ दोहे पढ़ लिए थे। मेरे लौटने पर वे बोले कि भाईसाहब, किताब बड़ी अच्छी है। इसे पढ़कर स्कूल के दौर के कबीर-रहीम आदि के दोहे स्मरण हो आये। मैं इसे साथ लेकर जाऊँगा। मुझे यह सुन बहुत अच्छा लगा। दरअसल साहित्य वही अच्छा और सफल माना जाता है, जो उसके तकनीक, विधान आदि पक्षों से अनभिज्ञ एक सामान्य पाठक को आकर्षित कर सके। पुस्तक और उसकी रचनाएँ कैसी हैं, पठनीय अथवा संग्रहणीय है कि नहीं, इस घटना के उल्लेख के बाद इन पर कुछ बोलना ग़ैर ज़रूरी-सा हो जाता है। अंत में दोहा संग्रह 'गतिविधियों की रेल' के रचनाकार रवि खण्डेलवाल जी को उनके ही एक दोहे के साथ शुभकामनाएँ एवं बधाई प्रस्तुत करता हूँ-
मौसम का सिग्नल हुआ, आज अचानक फेल।
जस की तस ही थम गयी, गतिविधियों की रेल।।
समीक्ष्य पुस्तक- गतिविधियों की रेल
विधा- कविता (दोहा)
रचनाकार- रवि खण्डेलवाल
प्रकाशन- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नॉएडा
संस्करण- प्रथम, 2024
मूल्य- 249/- (पेपरबैक)
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