ये अँधेरों की पैरवी वाले हरिवल्लभ शर्मा 'हरि' जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है। श्वेतवर्णा प्रकाशन, नॉएडा से प्रकाशित इस संग्रह में इनकी कुल 115 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। हरिवल्लभ शर्मा जी उर्दू की प्रगतिशील भावधारा की शायरी के रचनाकार हैं। इस संग्रह में हमें इनकी परंपरागत स्वभाव की शायरी तो पढ़ने को मिलती ही है। इसके अलावा उर्दू शायरी के शृंगार तथा दर्शन के घेरे से बाहर निकलकर हरिवल्लभ शर्मा जी अपने वर्तमान को भी दर्ज करते हैं, ज्वलंत मुद्दों पर भी बात करते हैं। भाषा के लिहाज से भी इनकी ग़ज़लगोई संकुचित दृष्टिकोण नहीं रखती। जगह-जगह पर इनकी ग़ज़लों में हिंदी के शब्द भी देखने को मिलते हैं।
संग्रह की रचनाओं में दर्शन और जीवन की हक़ीक़त के साथ-साथ अपने समय की स्थितियों-परिस्थितियों पर चिंता व चिंतन भी भरपूर है। समाज में बढ़ता अलगाव, हमारे जीवन में राजनीति का दख़ल, किसानों की हालत, बुज़ुर्गों का अकेलापन, स्त्री सशक्तिकरण आदि अनेक ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन पर हरि शर्मा जी शेरों के माध्यम से अपनी राय रखते हैं, ध्यान दिलाते हैं।
इनकी अपनी एक प्रखर विचारधारा है, जिसमें ये देश और समाज को सर्वोप्परि रखते हैं। इन दोनों ज़रूरी घटकों को नुकसान पहुँचाते किसी भी तत्व को ये आड़े हाथों लेते हैं, चाहे वह अलगाव की भावना हो, राजनीति द्वारा पोषित विद्वेष हो या किसी की संकीर्ण मानसिकता। ऐसा करते हुए ये बेबाकी से काम लेते हैं। नीचे के दोनों शेरों में ये अपने दौर के उस इंसान को सम्बोधित कर रहे हैं, जो भले-बुरे का ख़याल किये बगैर अपनी ही धुन में मस्त है-
लगा के डुबकी जो अपने गुनाह धोते हैं
वे काश फेंकते अपने नक़ाब पानी में
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करे तू क़त्ल, ज़िना, लूट, जालसाजी सब
किसी गुनाह पे भी शर्मसार है कि नहीं
जीवन की हक़ीक़त के ज़रिए भी ये पाठक का मार्गदर्शन करते नज़र आते हैं। इनके पास उम्र और सेवा का अच्छा-ख़ासा तजुरबा है, उसी के दम पर ये अपने समय की नब्ज़ टटोलते हैं और इस दौर की हक़ीक़त पर हमारा ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करते हैं। इन शेरों में वे श्रम का महत्त्व, अस्ली ज्ञान की पहचान और भली-बुरी संगत का असर जैसी कुछ ज़रूरी बातों पर रोशनी डालते हैं-
शिद्दत की कोशिशों का मुकम्मल सिला मिले
कब कोहिनूर धूल में यूँ ही पड़ा मिले
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भरते गये जो इल्म से वो डूबते गये
ख़ाली घड़ा सुरूर में ही तैरता रहा
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किताबें धर्म की पढ़ लें, नसीहत सुन भी लें कितनी
दरिंदों की जो सोहबत हो तो शैतानी नहीं जाती
हरिवल्लभ शर्मा 'हरि' जी का ध्यान समाज के परिदृश्य में आये बदलाव पर बराबर है। शहर में अम्नो-सुकून की जगह खौफ़ का सिर उठाना, आदमी का आदमी से भयभीत होना, लगातार प्रेम का घटकर नफ़रत में बदलते जाना आदि बहुत चिंतनीय पहलु हैं। एक-दूसरे पर कम होते विश्वास के अलावा इस सबका कारण यह भी है कि हम ज़ुल्म को सहने के आदी होते जा रहे हैं। ये हालात रचनाकार को परेशान करते हैं और इसी कारण इस तरह के शेर उपजते हैं-
शहर में अम्न, जलसे थे, सुकूं था
हुआ क्या आज दहशत, ख़ामुशी है
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बस्तियाँ रात में जली हैं कुछ
लोग सहमें हैं शामियानों में
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दिखती नहीं है कोई किरण रोशनी की अब
सहने लगे हैं लोग भी ज़ुल्मात, हो न हो
इंसान की कभी ख़त्म न होने वाली इच्छाएँ भी धरती और आसमान के लिए चिंता का सबब है। उसने न केवल पशु-पक्षियों बल्कि चाँद-सितारों का भी जीना हराम करके रखा है। आये दिन हमारे पर्यावरण का कोई न कोई घटक इंसान की इच्छाओं की बलि चढ़ता है। ऐसे में रचनाकार सही अंदाज़ा लगाता है कि-
ज़मीं को रौंद डाला और उठाया आसमां सर पर
समझ आया ख़ुदा क्यूँ आदमी को पर नहीं देता
रचनाकार को मालूम है कि जितने भी काले कारनामे हम अपने आसपास देखते हैं, उसके पीछे कौन है। इस शेर के माध्यम से वो हमें भी उन तक पहुँचने का इशारा कर देता है। यह एक विडंबना है कि जिसे हमारी रखवाली करनी है, वही हमें लूट रहा है। इस शेर को हम अपने जीवन के कितने ही पहलुओं पर फिट होता पाएँगे-
ये अँधेरों की पैरवी वाले
चाँद की ख़ुद ज़िया चुराते हैं
देश-समाज की चिंताओं, परेशानियों में उलझा रचनाकार केवल इतना ही चाहता है और हमें भी समझाता है कि वास्तव में ज़रूरत किस चीज़ की है। हमें अपने उलजुलूल कामों से फ़ुर्सत निकालकर सोचना चाहिए कि किस तरह हम अपने मुल्क और इंसानियत का अच्छा सोच और कर सकते हैं। यह ख़ूबसूरत शेर बड़ा अच्छा संदेश भी हमें सौंपता है-
अमन हो, चैन हो, अखलाक़ हो, मुहब्बत हो
यही तो चाहिए बस मुल्क में ख़ुशी के लिए
संग्रह 'ये अँधेरों की पैरवी वाले' शायरी पसंद करने वाले लोगों के लिए अच्छी शायरी भी पेश करता है और समाज व पाठक को सही दिशा भी दिखाता है। आशा है पाठकों के लिए यह पुस्तक उपयोगी साबित होगी। अच्छे साहित्य सृजन के लिए रचनाकार हरिवल्लभ शर्मा जी को बधाई और शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- ये अँधेरों की पैरवी वाले
विधा- ग़ज़ल (उर्दू)
रचनाकार- हरिवल्लभ शर्मा 'हरि'
प्रकाशन- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नॉएडा
संस्करण- प्रथम, 2024
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