Wednesday, September 11, 2024

जीवन के विविध रूपों का कोलाज है 'शकुन सतसई'


छंदमुक्त कविता के एकछत्र साम्राज्य के लम्बे समय के बावजूद भी छान्दसिक विधाओं ने न सिर्फ़ अपना अस्तित्व बचाए रखा बल्कि देश-काल के अनुरूप ढलकर निरंतर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। छंदमुक्त कविता लोक के समीप तो शायद ही कभी गयी हो लेकिन अकादमियों और साहित्यिक उपक्रमों के सिर से अब, जब छंदमुक्त कविता का नशा लगभग उतर चुका है तो ऐसे में ग़ज़ल और दोहा ही वे विधाएँ हैं, जो आज के समय में सर्वाधिक चर्चित हो रही हैं। हालाँकि दोहा हिंदी के सदियों के इतिहास में लोक से कभी विलग नहीं हुआ है। आज भी नए-पुराने लोग इस विधा की कुछ रचनाओं को मुहावरों की तरह प्रयोग करते पाये जाते हैं। दोहे की इन उपलब्धियों का श्रेय उन रचनाकारों को जाता है, जिन्होंने अकादमियों, आलोचकों और संपादकों की भयंकर उपेक्षाओं के बीच इस विधा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और उसे लगातार तराशा।

हमारे समय में भी ऐसे अनेक नाम हैं, जिन्होंने इस विधा को अपनाया और उसके संवर्धन के लिए अपनी तरफ से भरपूर प्रयास किये। राजस्थान के भीलवाड़ा की कवयित्री शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' उन्हीं रचनाकारों में एक हैं। इनके अब तक तीन दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 'बाक़ी रहे निशान' और 'काँच के रिश्ते' संग्रहों के बाद शकुन सतसई इनका नया दोहा संग्रह है। यह जयपुर के साहित्यागार से वर्ष 2023 में प्रकाशित हुआ है। सतसई है तो स्पष्ट है कि इसमें इनकी सात सौ दोहा रचनाएँ सम्मिलित होंगी।

शकुंतला जी की पूर्व की दोनों पुस्तकें भी मैंने पढ़ी हैं, अतः इनके दोहा-लेखन से अच्छी तरह परिचित हूँ। इस पुस्तक तक आते-आते एक बात जान पड़ती है कि वे अपने निरंतर अभ्यास की बदौलत इस विधा में सिद्धहस्त होती जा रही हैं। इस पुस्तक के दोहों में सैकड़ों दोहे आपको मिल जाएँगे, जो आप रेखांकित करना चाहेंगे। इसके अलावा एक और गुण दिखाई देता है, यह कि अब इनके दोहों की पंक्तियाँ बहुत सरल वाक्य विन्यास के कारण बोलती-सी जान पड़ती हैं। कई दोहों की केवल एक पंक्ति ही उल्लेखनीय दिखाई देगी। यथा- 'जितना मिलता है हमें, उतनी बढ़ती प्यास' व 'आँखें हैं ये झील-सी, या आँखों में झील'। इनकी रचनाओं में विषयों की विविधता भी प्रभावित करती है। दहलीज़ के भीतर-बाहर दोनों तरफ इनकी दृष्टि बराबर जमी है। चाहे घर-परिवार, रिश्ते-नातों की बात हो या राजनीति, भ्रष्टाचार, देशप्रेम या खेती-किसानी जैसे सरोकार, हर जगह ये अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं।

अपने समय और परिवेश के प्रति सजग रहना एक साहित्यकार के लिए अनिवार्य है। वो स्थितियाँ-परिस्थितियाँ, जो हमारे आसपास घट रही हैं और हमारे देश-काल-समाज को प्रभावित कर रही हैं, उनका साहित्य में प्रतिबिंबित होते रहना ज़रूरी है। साहित्यकार अपनी दृष्टि से ऐसी स्थितियों के आर-पार देख-जान कर अपने समय के लोगों को उनके प्रति सचेत करता चलता है। शकुंतला अग्रवाल भी अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने इस दायित्व को बाख़ूबी अंजाम देती हैं। राजनीति, भ्रष्टाचार, बाज़ारीकरण, स्वच्छंदता, स्वार्थपरकता जैसे अनेक समकालीन विषयों पर ये अपनी क़लम चलाती हैं और उसके पीछे की वास्तविकता को उजागर करती हैं।

राजनीति, जो कभी जनसेवा का माध्यम हुआ करती थी। जिससे यह उम्मीद की जाती है कि वह जनता के भले के लिए समर्पित हो तथा अपने देश के विकास में भागीदारी सुनिश्चित करे, उसकी वर्तमान में हमारे देश में क्या स्थिति है, शकुंतला जी अपने दोहों में यह भली प्रकार प्रकट करती हैं-

चोरों ने जबसे पढ़ा, राजनीति का मंत्र।
मटमैले-से हो गये, सब सरकारी तंत्र।।

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गिरगिट बोला सांप से, थामो मेरा हाथ।
राज करेंगे हम तभी, सदा रहेंगे साथ।।

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गिरगिट ने हथिया लिया, राजनीति का मंच।
पंच बने हैं नेवले, सांप बने सरपंच।।

एक साहित्यकार का यह भी दायित्व है कि वह अपने समय के यथार्थ से टकराता रहे। उसे अपनी क़लम से दर्ज करता रहे। हम अपने समय के भले-बुरे यथार्थ से दो-चार होकर ही उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। एक रचनाकार अपने दौर के ग़लत कामों की आलोचना करता रहे और अच्छी बातों को प्रोत्साहित करता रहे, यह बहुत ज़रूरी है। शकुंतला जी अपने दोहों के माध्यम से अपने समय के यथार्थ को पूरी निष्पक्षता के साथ पाठक के सामने रखती हैं-

अडिग रहे जो सत्य पर, सहकर कष्ट अपार।
उसको ही देवत्व का, पद देता संसार।।

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कोई जूठन चाटता, कोई छप्पन भोग।
निज कर्मों के लेख ही, भोग रहे हैं लोग।।

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गुलमोहर की लालिमा, हर न सके ज्यूँ धूप।
विपदा करती कब मलिन, संतोषी का रूप।।

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जैसे पुष्प सुगंध से, महक उठे संसार।
नारी अपनी प्रीति से, पोष रही संसार।।

दर्शन का हमारी भारतीय मनीषा में बड़ा महत्त्व रहा है। दोहा विधा भी प्राचीन काल से अब तक दर्शन जैसे गूढ़ विषय को सरलता और सरसता के साथ हमारे जनमानस को परोसती व पोषती रही है। वह जीवन दर्शन ही है, जो हमें विकट समय में मज़बूत बने रहने का साहस देता है और अच्छे से अच्छे समय में विनम्र बने रहने में सहायक होता है। रचनाकार शकुंतला अग्रवाल जीवन के विभिन्न पक्षों में दर्शन को ढूँढती हैं और उसे बड़ी सरसता के साथ अपनी रचनाओं में उपस्थित करती हैं। इनके इस प्रकार के दोहे सर्वाधिक प्रभावित करते हैं-

प्रेमी चाहे प्रेमिका, अँधा चाहे नैन।
चातक स्वाती बूँद को, तरस रहा दिन-रेन।।

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चंचलता घातक बड़ी, मार्ग करे अवरुद्ध।
मन पर रखे नकेल जो, बन जाता है बुद्ध।।

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शकुन खरा जो बोलता, पाता कष्ट अपार।
लटकी रहती है सदा, गरदन पर तलवार।।

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जीवन रूपी नाव पर, नेकी की पतवार।
करवा देती है हमें, भव-सागर से पार।।

नीति भी शताब्दियों से दोहा विधा का प्रिय विषय रहा है। हिंदी के इतिहास में कितने ही धुरंधर दोहाकार हुए हैं, जिन्होंने दोहे में नीति जैसे विषय को प्रतिष्ठित किया है। रहीम, गंग तथा गिरधरदास को कैसे विस्मृत किया जा सकता है! ऐसे दोहे न केवल अपने समय में बल्कि आने वाली कितनी ही पीढ़ियों का मार्गदर्शन करने में सफल होते हैं। नीति की रचनाएँ जहाँ जीवन के विविध पक्षों की असलियत हमारे सामने रखती हैं, वहीं हमें आशा और प्रेरणा के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने का हौसला भी देती हैं। साथ ही ये पग-पग पर हमें सचेत किये चलती हैं। पुस्तक में रचनाकार की कुछ ऐसी ही रचनाएँ द्रष्टव्य हैं-

बुझने मत देना कभी, आशाओं के दीप।
बूँद तभी मोती बने, दर्द सहे जब सीप।।

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मित्र अगर हो लालची, रखें न उससे मेल।
खा जाती है पेड़ को, प्राय: विषमय बेल।।

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दुर्जन से दूरी भली, ज़हर सना यह तीर।
बिच्छू का काटा हुआ, कभी न माँगे नीर।।

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सीख लिया संसार में, जिसने रहना मस्त।
उसको कर पाती नहीं, विपदाएँ भी त्रस्त।।

पुस्तक में रचनाकार शकुंतला अग्रवाल की अनेक ऐसी रचनाएँ भी हैं, जो हमारे भीतर आशा और उत्साह का संचार करने में समर्थ हैं। हर एक मनुष्य अपने जीवन में ऐसे समय का ज़रूर सामना करता है, जब हर ओर उसे अंधकार तथा निराशा ही दिखाई देती है। यह वह कठिन समय है, जिसमें उसे किसी आसरे की दरकार होती है, जो उसे नैराश्य की छाया से हाथ पकड़कर उत्साह की तरफ खींच ले जाए। कई बार यह काम साहित्य भी करता है। साहित्य का इस तरह का होना बहुत ज़रूरी है, जो एक निराश मन में आशा की किरणें भर दे। शकुंतला जी के कुछ ऐसे ही दोहे देखिए-

दुख के आने पर मनुज, करता है क्यूँ शोर।
विपदाओं के अंक से, खिलती सुख की भोर।।

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सम्मुख देख चुनौतियाँ, मत घबराना मीत।
दीप कभी होता नहीं, झंझा से भयभीत।।

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हो जाए जब जीत का, हर दरवाज़ा बंद।
मत पड़ने देना शकुन, आशाओं को मंद।।

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देख हवा का रुख कभी, होना मत भयभीत।
जीवन में मिलती सदा, हिम्मत से ही जीत।।

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जीवटता से ही मिले, जग में नव उत्कर्ष।
सदा फूटतीं कोंपलें, करके ही संघर्ष।।

प्रेम हिंदी ही नहीं, विश्व साहित्य का सदाबहार एवं पसंदीदा विषय रहा है। जिस तरह हमारा जीवन प्रेम की उपस्थिति के बिना अपूर्ण है, इसी तरह साहित्य भी। सदियों से इस विषय पर ढ़ेरों लिखा जाता रहा है और लिखा जा रहा है लेकिन इस विषय की माँग हमेशा बनी रही है। बनी रहनी भी चाहिए। हम कभी भी जीवन को एक कोण से नहीं देख सकते। जीवन है ही बहुआयामी तो क्यूँ न उसका हर एक आयाम साहित्य में प्रतिबिंबित हो! इस पुस्तक में शकुंतला जी की शृंगारिक रचनाएँ अलग से ध्यान खींचती हैं।

महुए-सी महके प्रिया, इतराए सानंद।
साजन अधरों पर लिखे, प्रेम भरे जब छंद।।

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चूनर सरकी लाज की, टूट गये तटबंध।
मन अनुरागी हो गया, बिखरी प्रेम-सुगंध।।

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अमराई में कोकिला, छज्जे ऊपर काग।
प्रियतम जिसके पास है, उसके हैं बड़भाग।।

पुस्तक 'शकुन सतसई' मानव जीवन के समस्त पक्षों को दोहों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। इसमें जहाँ जीवन का यथार्थ है, दर्शन है, ऋतुएँ-पर्व-त्योहार हैं, अपने समय के सरोकार हैं, वहीं नीति, शिक्षा, आशा है, प्रेम एवं पर्यावरण है। कहा जा सकता है कि शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' अपने इस संग्रह के माध्यम से जीवन के विविध रूपों का एक कोलाज रचती हैं। इस पुस्तक के रूप में रचनाकार आधुनिक दोहों के संसार में बहुत कुछ नया और मूल्यवान जोड़ती भी हैं। उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ साधुवाद।




समीक्ष्य पुस्तक- शकुन सतसई
विधा- कविता (दोहा)
रचनाकार- शकुंतला अग्रवाल 'शकुन'
प्रकाशन- साहित्यागार, जयपुर (राजस्थान)
संस्करण- प्रथम, 2023

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