Tuesday, December 26, 2017

भोगा हुआ यथार्थ है: चेहरा रिश्तों का




ये मेरी रूह भारी है या हल्की
कहीं इसको डुबोकर देखते हैं

जाने किसकी उम्र चुराकर लाया था
शाम को सूरज होकर बूढा डूब गया

थके बादल लिबास अपना जहाँ जाकर बदलते हों
ज़मीं का यार वो हिस्सा कभी सहरा नहीं रहता

नयी सदी के दूसरे दशक में शायरी के क्षेत्र में बदलाव और ताज़गी अब महसूस की जाने लगी है। वक़्त हमेशा करवट लेता रहता है, इसलिए चीज़ें भी हमेशा एक जैसी नहीं रहतीं। बदलाव एक बहुत ज़रूरी प्रक्रिया है। बदलावों के साथ जिसने अपने आप को 'मॉडरेट' किया, वही टिका रहा और उसी की पूछ बनी रही। आज जब हर तरफ हम देखते हैं कि ग़ज़ल की शान में हर कोई क़सीदे पढ़े जा रहा है, इस विधा के भविष्य को बहुत उज्ज्वल बता रहा है तो उसके पीछे इन बदलावों की अहम भूमिका रही है। ग़ज़ल ने अपने आप को हमेशा लचकदार बनाये रखा है और वक़्त की ज़रूरत के हिसाब से इसने अपने आप को बार-बार मॉडरेट किया है।

आज के दौर की माँग है एक अलग तरह से बात कहना, जो पढ़ते/सुनते ही दिल में उतर जाये। एह्सास हमेशा वही रहे हैं लेकिन प्रतीक व बिम्ब हर दौर में बदलते रहे हैं। तो उन्हीं एहसासों के साथ अगर शायर अलग तरह से अपनी बात रखने में सफल हो जाये तो इस पीढ़ी के लोग उसे यक़ीनन कुबूल करेंगे। अगर हम सदियों पुराने एह्सास उन्हीं घिसे-पिटे तरीकों से कहते रहेंगे तो पाठक क्यों पढेंगे उन रचनाओं को और अगर पढेंगे तो क्यों याद रखेंगे!

इस समय नए शायरों की एक खेप अपनी बात को इस अंदाज़ में शायरी में ढाल रही है कि सुनकर या पढ़कर कोई भी उफ़्फ़ करके रह जाए। यही वजह है उनके इतने मक़बूल होते जाने की। जॉन एलिया को उनकी कहन की वजह से नयी पीढ़ी सिर-आँखों पर बिठा रही है। उनके पास हैरत में डालने वाली कहन है। इस समय की फिल्मों के गाने भी इसी वजह से इतने लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि उनमें ताज़गी भरी कहन है।

ऊपर कोट किये शेर भी कहन में कुछ अलग ही ताज़गी लिए हैं। इनमें प्रयुक्त भाव वही हैं, जो हम हमेशा से पढ़ते आये हैं लेकिन अलग ही कहन लिए हैं यह शेर और इसीलिए एकदम से ध्यान अपनी ओर खींच रहे हैं।
'चेहरा रिश्तों का' ग़ज़ल-संग्रह से लिए ये शेर यूसुफ़ रईस के हैं, जो शायरी के पाठकों के लिए अनजान नाम नहीं है। यूसुफ़ ग़ज़ल से मुहब्बत रखने वालों के बीच अपनी अलहदा कहन और वज़नदार शायरी की वजह से जाने जाते हैं।

राजस्थान के पिड़ावा (ज़िला- झालावाड़) से संबंध रखने वाले यूसुफ रईस सालों तक पत्रकारिता से जुड़े रहे। गद्य व पद्य में अपनी अभिव्यक्ति करते रहे और ख़ूब छपते भी रहे लेकिन फेसबुक पर आने के बाद कुछ साल पहले ग़ज़ल से रूबरू हुए और उसका दामन थाम बैठे। दो साल पहले अपने पहले ग़ज़ल-संग्रह 'इक तनहा सफ़र' के ज़रिए पाठकों के बीच आये और अब 'चेहरा रिश्तों का' से दूसरे संग्रह तक पहुँच गए हैं।
बोधि प्रकाशन, जयपुर से आये इस संग्रह में इनकी कुल 108 ग़ज़लें हैं, जो यह बता रही है कि यूसुफ़ अब एक परिपक्व शायर हो चुके हैं। हालाँकि अभी डगर बहुत लम्बी है लेकिन वे अब इस सफ़र के क़ाबिल मुसाफ़िर हैं।

यूसुफ़ परम्पराओं से जुड़े रहकर आधुनिकता का समर्थन करते हैं। उनके कलाम में शायरी का रिवायती रंग भी मिलता है तो जदीदियत भी साफ़ झलकती है। इनकी शायरी कोरी लफ्फाज़ी न होकर भोगा हुआ यथार्थ ज़्यादा है। वे आसमान में न उड़कर ज़मीन पर बने रहना पसन्द करते हैं। अम्न पसन्द शख्स हैं और इंसानियत का समर्थन करते हैं। वे अपने शेरों के ज़रिए अच्छे संदेश भी देते दिखते हैं, कुछ शेर देखिए-

हमारे बीच में झगड़े बहुत हैं
सुलह के भी मगर रस्ते बहुत हैं

जो बताये नफ़रतों के रास्ते
चाहे कोई हो वो मज़हब, झूट है

यूसुफ़ अपने मज़हबी और सामाजिक दायरों में रहना पसन्द करते हैं लेकिन किसी भी बात को आँख बंद कर सच मानने वालों में कतई नहीं। वे ख़ुदा की ज़ात पर पूरा भरोसा रखते हैं लेकिन धार्मिक आडम्बर और धर्म के ठेकेदार इन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते।

इनके शेरों में ज़िन्दगी की हक़ीक़त बयान होती है। इसी अनुभव के ज़रिए वे सामान्य जन को सचेत करते हुए दिखते हैं। दुनिया में इंसान की नहीं बल्कि उसके द्वारा पूरे होते स्वार्थों की एहमियत है, इस बात को समझाता यह शेर देखिए-

ये ढलती हुई शाम का ही असर है
जो साया मेरा मेरे क़द से बड़ा है

ज़िन्दगी में क़दम-क़दम पर होने वाली आज़माइश से होशियार करता यह मतला और एक शेर कितना सच्चा है, देखिए-

ये कश्ती आज़माएगी, समन्दर आज़माएंगे
चलेंगे जब सफ़र पर तो सभी डर आज़माएंगे

क्यों शीशे-सी सिफ़त लेकर चले आये हो बस्ती में
यहाँ हर मोड़ पर राहों के पत्थर आज़माएंगे

समाज व परिवार में रहते हुए तमाम दायित्व निभाने और संबंधों को ज़िन्दा रखने के लिए हमें अनेक बार अपने स्वाभिमान को एक तरफ रखना पड़ा है, अनेक बार समझौते करने पड़े हैं। इस भाव को कितनी ख़ूबसूरती से शेर की शक्ल दी है, देखिए-

कुछ रिश्तों की जान बचाने की ख़ातिर
अपने सर को रोज़ कुचलना पड़ता है

जीवन के यथार्थ से जुड़ी इनकी शायरी कई बार दार्शनिकता के नज़दीक पहुँच जाती है-

जिनपे कुछ मासूम परिन्दे रहते हैं
उन पेड़ों के फल भी मीठे होते हैं

बहुत ही सहजता से यहाँ इन्होंने परोपकार का महत्त्व समझा दिया। पेड़ों से ज़्यादा परोपकारी कौन होगा भला इस धरती पर! यदि इंसान उनसे सीखना चाहे तो कितनी ही बातें सीख सकता है और अपना जीवन सँवार सकता है।

इनके शेरों में कहीं-कहीं ख़राब होते पर्यावरण की फ़िक्र भी झलकती है-

जबसे जंगल बस्ती में तब्दील हुए
टूट रहा है तबसे दम ख़म बारिश का

जंगलों को काटकर जहाँ हम अंधाधुंध अपनी बस्तियाँ बसाने या कारख़ाने स्थापित करने पर तुले पड़े हैं, वहाँ बारिश के दम ख़म की फ़िक्र कौन करे! लेकिन शायर यहाँ लोगों को आगाह कर रहा है कि अगर इन चीज़ों पर गौर नहीं किया गया, तो नतीजे भी भुगतने होंगे।
ज़मीन पर सरहदों की लकीरें खींचने के बाद अब अंतरिक्ष, चाँद और मंगल को कब्जाने की जो होड़ लगी है, उस तस्वीर को यूँ कलम से क़ैद करते हैं यूसुफ़-

पहले सौदा किया ज़मीनों का
फिर दिया आसमान ठेके पर

हमारे सामाजिक जीवन से ख़त्म होती इंसानियत के प्रति भी बहुत फ़िक्रमंद है यह रचनाकार। वे समाज और आदमी से बहुत गहराई से जुड़े व्यक्ति हैं। अपने क्षेत्र में वे लोक-कल्याण के कार्यों में लगातार सक्रीय रहते हैं। कुछ इसी वजह से भी समाज में कम होते अपनत्व और आदमीयत के लिए दुखी होते हैं। अपने एक शेर में वे कहते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को अशरफुल-क़ायनात (सृष्टि में श्रेष्ठ) बनाया था लेकिन उस वक़्त के इंसान जैसा इस वक़्त का इंसान बिल्कुल नहीं है। सच कहा बिल्कुल, आज के इंसान की हरकतें देखकर इनका शेर बिल्कुल सटीक लगता है। शेर देखिए-

ख़ुदा ने जिसको ख़ुद अशरफ़ कहा था
उस आदम जैसा ये आदम नहीं है

अब तो हर तरफ इंसान की शक्ल में शैतान नज़र आते हैं जो मौक़ा मिलने पर वह सब कर बैठे, जहाँ तक सोच भी नहीं जाती। सच है हमारे बीच कई ऐसे दरिन्दे हैं, जो आदमी होने का भ्रम पैदा कर रहे हैं, अस्ल में उनमें आदमीयत है ही नहीं।

यहाँ वहशी दरिन्दे बस गए हैं
नज़र आते हैं जो सब आदमी-से

ऐसा ही एक और शेर देखिए-

ये बस्ती है या इंसानी जंगल है
इसमें तो आसान नहीं घर हो जाना

समाज और समय की फ़िक्र रचनाओं में होना बेहद ज़रूरी है और अगर फ़िक्र के साथ समस्याओं के हल भी हों तो सोने पे सुहागा। अपनी या औरों की ज़िन्दगी की मुसीबतों से सबक लेते हुए लोगों को सचेत करना एक अच्छे रचनाकार के लक्षण हैं। यूसुफ़ भी हमें इन हालात में फ़िक्रमंद होते हुए सचेत भी करते हैं।

यूसुफ़ रईस की शायरी दिल से निकलकर दिल तक पहुँचने वाली शायरी है। इनके शेर बिना किसी लाग-लपेट के सधे हुए लहजे में अपनी बात कहते हैं। हिन्दी-उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी भाषा में अपनी बात रखने वाले यूसुफ़ हर दिल अज़ीज़ शायर हैं। इन्हें किताब की क़ामयाबी के लिए मुबारकबाद और भविष्य में और अच्छी-अच्छी ग़ज़लों के लिए दुआएँ।

चलते-चलते कुछ शेर और-

रोशनी को क़ैद करके रख सकोगे कब तलक
इन चिराग़ों का उजाला आसमां तक जाएगा

शह्र में ये मुद्दतों चर्चा रहा
एक साया खो गया दीवार में

भूल बैठा हूँ ज़ायका सबका
रंज कैसा है और ख़ुशी कैसी

बस्तियों में शोर आख़िर थम गया
बच्चों की आँखों में दहशत रह गयी

सुनते-सुनते मेरी आँखें भीग गयीं
और वो अपनी कहते-कहते लौट गया

महक रही हैं अब तक साँसें
उसने बस इक बार छुआ था




समीक्ष्य पुस्तक- चेहरा रिश्तों का
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- यूसुफ़ रईस
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण- प्रथम, 2017 (पेपरबैक)
मूल्य- 120 रूपये

मँगवाने के लिए प्रकाशक को लिखें या 9829595160 पर संपर्क करें।

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