'कब आया बसंत' सिर्फ एक जुम्ला नहीं, एक सवाल है, एक टीस है। अपने आप में बहुत गहरा अर्थ समेटे यह पंक्ति शीर्षक है एक किताब का। राजस्थानी की चिर-परिचित लेखिका और पहली महिला उपन्यासकार बसंती पंवार जी की हिंदी कविताओं की यह पहली किताब है। कुल जमा 71 छोटी-बड़ी कविताओं की इस किताब में इंसानी ज़िंदगी के कई रंग, रूप और पहलुओं पर कविताएँ मौजूद हैं।
किताब की भूमिका राजस्थान की वरिष्ठ साहित्यकार सावित्री डागा जी ने लिखी है और प्रकाशन का काम किया है रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर ने। रॉयल पब्लिकेशन की कुछ किताबें देखने में आई हैं, बहुत अच्छा और सधा हुआ काम होता है इनका। बहरहाल हम बात करेंगे बसंती पंवार जी की कविताओं पर।
किताब की पहली ही कविता 'नारी' स्त्री मन के अंतस की खरी-खरी अभिव्यक्ति है। तमाम उम्र दूसरों के लिए घर-परिवार, चौके-बर्तन में खटती स्त्री के अकेलेपन में कोई भी उसके साथ खड़ा होने को नहीं होता। कुछ यही मूल भाव लिए कविता 'नारी' एक चर्चित विमर्श और अच्छे सरोकार को लेकर किताब की शुरुआत करती है।
एक अन्य कविता 'संघर्ष' स्वयं को स्वयं में खोजने के संघर्ष की कहानी कहती है। कवियत्री के अनुसार-
स्वयं को खोजना
स्वयं के भीतर तक
कठिन लगता है
यह स्वयं से संघर्ष है
यहाँ कवियत्री का दार्शनिक रूप खुलकर सामने आता है। जीवन में 63 सालों की गिनती कर चुकी बसंती पंवार जी जीवन की उस अवस्था में है, जहाँ दर्शन 'दुनियाभर के अनुभव' के साथ मिलकर मुखर हो उठता है।
संग्रह की अगली कविता 'मिट्टी की तरह' समय के हाथ से मिट्टी की तरह फिसलने की बात कहती है। अपने आप में सिमटते जा रहे लोगों को नसीहत देते हुए यहाँ कवियत्री कहती हैं कि समय मिलता नहीं, चुराना पड़ता है। इसकी अपनी नियति है, चलना बस चलते रहना।
एक कविता 'धूल और लहर' में कवयित्री अच्छी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती हैं। 'धूल', 'सागर' और 'लहर' के माध्यम से वे अपनी नियति से संवाद करती दिखती हैं।
एक और प्रतीकात्मक कविता 'घायल' आहत मन की अभिव्यक्ति है। कविता के अनुसार दर्द देने वाला उस दर्द की कसक कभी नहीं समझ सकता। जिस तरह समंदर में पत्थर मारना वाला यह नहीं जान पाता कि उस पत्थर ने समंदर के बदन को किस-किस जगह चोट पहुँचाई होगी, कितनी गहराई तक लगा होगा पत्थर, उसकी वजह से कितने लहरों रूपी सपने ख़त्म हो गये होंगे!
अपनी संतानों में अपने बचपन को खोजता भावुक मन, जो एक लम्बी उम्र के बाद थक कर बैठने को है, और दुनिया की तमाम कड़वी हक़ीक़तों से दो-चार हो फिर से बचपन की उसी मासूम-सी निश्छल दुनिया की और राहत ढूँढने के लिए भागता है, ऐसे में अगर उसे अपने पोते-पोती का साथ मिल जाए तो बात ही क्या!
पोते के सयाने प्रश्नों के उत्तर न देने पाने की वजह से निरुत्तर अपने 'उम्र के अनुभव' पर हैरान दादी उसे समझाती है-
हाँ मैं दादी हूँ तुम्हारी
पर तुम मेरे गुरु हो गये हो
गुरु गुड़ ही रहा
चेला शक्कर हो गया
मैं बुढ़िया गयी
कहते हैं 'साठी बुद्धि न्हाटी'
फिर कैसे दूँ तुम्हारे
कुछ प्रश्नों का उत्तर
कविता 'कहानी' बहुत कम शब्दों में जीवन की हर अवस्था की एक कहानी कहती है। बचपन, यौवन, प्रौढ़ता, बुढ़ापा आदि हर जीवन का हर हिस्सा अपने आप में एक सम्पूर्ण कहानी लिए होता है।
कविता 'दुःख' में कवयित्री अपनी अनुभवी दृष्टी से बुढ़ापे को ही जीवन का दुःख बताती है। इस समय में अगर देखा जाए तो यह बात काफ़ी हद तक ठीक भी लगती है। कविता छोटी-सी है लेकिन पठनीय है, आप भी देखिए-
मैं सुनती हूँ
दुःख ही जीवन है
सांझ होते-होते
अनुभवों की चाक से
भर गया है जीवन का ब्लैक बोर्ड
ब्लैक बोर्ड पर दिखाई दिये-
बालक, युवा, वृद्ध
तीनों बारी-बारी से
एक ही शरीर में जिये
मगर मैंने देखा
बुढ़ापा ही
जीवन का दुःख है
संग्रह की एक कविता 'भीगा-भीगा' बाहर के मेघों को देख भीतर के सावन के बरसने की बात कहती है। भरे-भरे मन की सहज अभिव्यक्ति इस कविता में अनायास ही लय आ गयी है, जो पाठक को दो पल के लिए रोक लेती है। संग्रह की अन्य कविताओं से भिन्न शैली की यह कविता अचरज पैदा करती है।
'बूंदे' कविता 'वसुंधरा की प्यास हरने', 'जीव-जीव का उदर भरने' की वजह से बारिश की बूंदों की सार्थकता बताती है और कवयित्री इसी को सार्थक दान कहती है।
कविता 'अंतर्मन' के अनुसार अंतर्मन की घुटन, वर्षा की घुटन से सुलग उठती है और यह अगन तमाम उम्र की दग्ध यादों को अपनी लपटों में समा लेती है, लेकिन कवयित्री के जीवन का बसंत इतना जीवट है कि वो इस आग में उसे नष्ट नहीं होने देता।
एक कविता 'आज की नारी' स्त्री विमर्श की बाढ़ के समय में आईना दिखाती रचना है। कविता 'समय के साथ' समय के साथ चलने का संदेश देती एक अच्छी रचना है। 'पड़ोसी' आज के पड़ोसियों की बे-वजह की होड़ और ईर्ष्या का चित्रांकन करती है और हमें सचेत भी करती है कि आख़िर हम भी एक 'पड़ोसी' ही हैं। 'समय के साथ' कविता से कुछ पंक्तियाँ देखिए-
वक़्त की तिजोरी में
चौबीस घंटे ही भरे हैं
तिजोरी खोलो तो
चौबीस घंटे ही मिलेंगे
इस तिजोरी के समय को
घटाना बढ़ाना असंभव है
किताब में माँ शब्द पर 4-5 कविताएँ हैं लेकिन यह सहज है कि माँ पर कुछ लिख रहा मन भावुकता में बह जाए। मेरी नज़र में इस विषय पर लिखा कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं हो सकता।
कविता 'एक बार फिर' में बड़ों और समझदारों की दुनिया से ऊबा हुआ मन एक बार फिर बचपन की ओर लौटने की चाह कर रहा है।
पुस्तक में कुछ छोटी-छोटी रचनाएँ भी हैं, जो अपनी बात पूरी मजबूती से रखती हैं। यहाँ इन्हें 'नन्हिकाएँ' कहा गया है, हालाँकि इन्हें क्षणिकाएँ भी कहा जा सकता था। क्षणिकाएँ हिंदी साहित्य में एक स्वीकार्य विधा है।
पूरी किताब में रचनाकार बसंती पंवार जी का अनुभव, दर्शन, संवेदनशीलता और जीवटता के साथ साथ जीवन के प्रति एक टीस देखने को मिलती है। हालाँकि कविताओं की पहली किताब होने की वजह से रचनाओं में कहीं-कहीं अपरिपक्वता भी देखने को मिलती है, लेकिन उनमें उपस्थित संवेदना इस तरफ ध्यान नहीं जाने देती। किताब में कुछ कविताएँ बहुत अच्छी और सार्थक हैं, जो अपनी उपस्थिति से किताब का उद्देश्य पूरा करती दिखती हैं।
बसंती पंवार जी को एक अच्छी कृति के लिए बधाई और पुस्तक की सफ़लता के लिए अग्रिम शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- कब आया बसंत
विधा- कविता
रचनाकार- बसंती पंवार
प्रकाशन- रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
संस्करण- प्रथम, 2016 (सजिल्द)
मूल्य- 150 रूपये
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