प्रेम वह अवस्था है, जहाँ आकर स्वार्थ, ग़रज़, लेन-देन, उम्मीद जैसी सारी चीज़ें बे-मानी हो जाती हैं। जिस दिल में प्रेम होता है; वहाँ सिर्फ और सिर्फ प्रेम होता है, इन चीज़ों के लिए कोई जगह नहीं होती। यह अनुभूत करने वाली शय है, कहने-बताने वाली नहीं इसलिए इसमें शब्दों का होना, न होना भी मायने नहीं रखता। जो प्रेम को समझता है, वह उसे 'शब्दों से परे' भी महसूसता है। यानी 'शब्दों से परे' प्रेम ज़्यादा मुखर होकर बोलता है। प्रेम में अव्यक्त, व्यक्त से कहीं ज़्यादा मायने रखता है।
मैंने तुम्हारे कहे शब्दों के
अल्पविरामों में
महसूस करके देखा है
बहुत कुछ
यह भाव और कवितांश जोधपुर (राज.) की कवयित्री प्रगति गुप्ता के कविता संग्रह 'शब्दों से परे' से प्रस्तुत है। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस कविता संग्रह में 'प्रेम की अनुपम अनुभूतियों से जुड़ी कविताएँ' सम्मिलित हैं। प्रगति गुप्ता के इस कविता संग्रह का मूल स्वर प्रेम है, जो समस्त कविताओं के ज़रिये कई-कई रूपों प्रकट होता है।
प्रेम एक स्वस्थ भाव है, जो जिस्मों से परे; रूहों के बीच गूंथा होता है। तभी तो जहाँ यह होता है, वहाँ किसी तरह की संकीर्णता, किसी तरह की सीमा का कोई औचित्य नहीं होता। यह दो रूहों के एकाकार होने की चरम अवस्था की वह स्थिति है, जहाँ पहुँच उन दोनों में कोई भेद नहीं बचता। सच है, "प्रेम जिस्मों से परे रूहों का मसअला है।
प्रगति गुप्ता ने अपनी कविताओं में प्रेम की कई तहें खोलते हुए उन्हें अलग-अलग कविताओं में अभिव्यक्त किया है। जहाँ संग्रह की पहली कविता 'ईश्वर', ईश्वर को सिर्फ प्रेममय बताती है और यह स्थापना करती है कि उसकी रची हर चीज़ में प्रेम ही प्रेम बसता है, वहीं कविता 'जीने की आस', प्रेम का वह रूप पाठक के सामने रखती है, जो उसे जीवन-ऊर्जा से भर देता है। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है, जो पत्थर में भी जान डाल सकती है। जिस मन में प्रेम का भाव जागृत हो जाता है, उसे अपने आसपास की हर चीज़ जीवन्त नज़र आने लगती है।
कविता 'क्या पुकारूँ तुझे', कुछ रिश्तों को सीमाओं में न बाँधने की सलाह देते हुए स्पष्ट करती है कि कभी-कभी एक रिश्ता, नाम से बहुत ऊपर हो जाता है। ऐसे में उसे कोई नाम देने की कोशिश करना, उस रिश्ते की क़ीमत घटाना हुआ। वहीं, 'हर दिन खोजूँ' कविता, प्रेम को एकदम पूरा जी लेने की बजाय थोड़ा-थोड़ा टटोलने की बात कहते हुए एक दार्शनिक भाव तक पहुँच जाती है। यह कहती है कि-
एक-दूसरे को
खोजने की चाहतें
जब तक ज़िन्दा रहती हैं
जीने के एह्सास भी धड़कतें हैं
दुनिया भर के रिश्तों को ढोते-ढोते एक उम्र गुज़रने के बाद किसी अपने जैसे ही के मिलने पर घड़ी भर अपने लिए जी लेने को मन में उठी कुछ उमंगें किस तरह उन पलों को थाम लेना चाहती हैं, यह 'मेरे जैसे तुम मिले' कविता में देखा जा सकता है। यहाँ कवि का मन कुछ वक्त के लिए ज़माने भर से बेसुध हो जाना चाहता है और अपने अलावा किसी को नहीं सोचना चाहता।
एक कविता 'रंग', कुछ ही पंक्तियों में जीवन का सार हमारे सामने रख देती है और एक बहुत बड़ी सीख दे जाती है-
बंद डिब्बी के रंग
बिखरे बगैर भला कब
नया कुछ रचते हैं!
"अनुभूतियाँ अच्छी हों या बुरी, उनकी व्याख्या कर पाना शब्दों से परे ही है।" मानने वालीं कवियत्री प्रगति गुप्ता ने अपनी अनुभूतियों को बहुत सहजता से शब्दबद्ध किया है लेकिन यहाँ ये अनुभूतियाँ व्यक्त से कहीं ज़्यादा अव्यक्त हैं और उसी अव्यक्त को शब्दों से परे जाकर महसूस कर पाना ही कविताओं के पढ़े जाने की सार्थकता होगी। कुछ पंक्तियाँ, जिन्हें बिना व्याख्या के रख रहा हूँ क्योंकि शायद व्याख्या के बिना भी आप वह सब महसूस लें, जो मैं महसूस रहा हूँ या कवयित्री ने कहना चाहा है-
कितनी ख़ूबसूरत होती है
वो छूटी हुई ख़ाली जगह
जहाँ कुछ भी,
बहुत मन का
भरने को जी करता है
अपनी एक कविता 'समय' में कवयित्री एक बेहद ज़रूरी सीख देती हैं कि 'रिश्तों में प्यार बनाये रखने के लिए उन्हें वक्त देना बेहद ज़रूरी है'। और इस दौर त्रासद बात यही है कि लोगों के लिए समय ही है जिसकी सबसे ज़्यादा क़िल्लत है। ऐसे में रिश्तों को ज़िन्दा रखने के लिए उन्हें समय की ख़ुराक देना ज़रूरी है, यह याद रखना होगा।
एक कविता 'गूढ़ रहस्य' में रचनाकार का एक भोला-भाला प्रश्न है कि 'इतना लुटाने के बावजूद भी मेरी झोली प्रेम से भरी की भरी रहती है, ख़ाली क्यों नहीं होती!' यही प्रश्न शायद मीरा के मन में भी रहा हो या यही प्रश्न एक माँ के मन में भी उठता हो शायद। मुझे यह कविता पढ़ते हुए कवि वृन्द का एक दोहा याद आता है-
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घटि जात।।
मतलब फिर यह कहना ठीक होगा कि विद्या और प्रेम जितना खर्च करेंगे, उतने ही बढ़ेंगे और बिना खर्च किये घट जाएँगे! शायद ऐसा ही कुछ हो।
एक प्रश्न और है रचनाकार का कि जब हम सब प्रेम की ही उपज हैं तो क्यों हर समस्या का हल प्रेम से नहीं निकाल पाते! सवाल वाजिब है और विचारणीय भी। इस प्रश्न का उत्तर कविता में ही छिपा है। कविता का शीर्षक है- 'बस भरोसा करना होता है'। रचनाकार स्वयं कहता है-
हर रिश्ते के पनपने
और मजबूती देने में
दो जनों को अहम छोड़
एक-दूसरे के सुपुर्द कर
बस-
भरोसा करना होता है
और यह भरोसा ही हम नहीं कर पाते किसी पर, इसीलिए सारी समस्याएँ पड़ी रह जाती हैं बिना हल के।
इनकी कविताओं में असीमित प्रेम की तरह रचनाकार की दृष्टि भी असीमित है। जहाँ लौकिक से अलौकिक प्रेम के दर्शन हैं, प्रेम के ज़रिये समस्याओं के हल हैं, प्रेम में जीवन का उत्साह है। वहीं सिर्फ प्रेमी या मानव ही नहीं; परिन्दे, हवाएँ, फूल, तितली, बादल, बारिश, धूप आदि की भी कहीं न कहीं उपस्थिति है इनके शब्दों में। कवयित्री एक कविता 'सूरज' में सूरज, साँझ और सुबह को प्रतीक लेकर उनका मानवीकरण कर जीवन का अर्थ बड़ी ख़ूबसूरती से समझाती हैं। वहीं कविता 'पंछियों की तरह' पंछियों से प्यार का पाठ सिखाने वाली रचना है।
संग्रह 'शब्दों से परे' में प्रगति गुप्ता की रचनाएँ परिपक्व तो नहीं, लेकिन परिपक्वता की ओर जाती हुई कविताएँ कही जा सकती हैं। ये रचनाएँ छोटे-छोटे वाक्यों में आसान भाषा के साथ अपनी बात रखती हैं। इनके यहाँ अधिक जटिलता या दुराव, संशय नहीं हैं। जो है, स्पष्ट है। जबकि रचनाओं में दृष्टिगत सोच अत्यधिक प्रभावी है। अपने दूसरे कविता संग्रह के लिए कवयित्री को बधाई और सफल साहित्यिक जीवन के लिए शुभकामनाओं के साथ उनकी कुछ और पंक्तियाँ दे रहा हूँ, जो मुझे ख़ास पसन्द आयीं।
प्रिय देख!
इस होली पर
तेरी हो-ली मैं
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शब्द रूठे तो खोकर
मौन हो जाये,
शब्द मुस्कुराकर बहे
तो कविता बन
संबंधों को जीवन दे जाये
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सिर्फ मिलने को
आया था मुझसे वो
मिलकर जाने को,
पर मिलते-मिलते
मिला कुछ यूँ
कुछ छूट गया वो मुझमें
कुछ ले गया
मुझको अपने साथ
जाने ही अनजाने में
समीक्ष्य पुस्तक- शब्दों से परे
विधा- कविता
रचनाकार- प्रगति गुप्ता
संस्करण- 2018 (हार्ड बाउंड)
मूल्य- 250 रूपये
प्रकाशन- अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110 030
ayanprakashan@rediffmail.com
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