कुछ रोज़ पहले कानपुर (उ.प्र.) निवासी ग़ज़लकारा अलका मिश्रा जी का नवप्रकाशित ग़ज़ल संग्रह 'बला है इश्क़' मिला। यह इनका पहला ग़ज़ल संग्रह है। संग्रह की 80 ग़ज़लों से गुज़रने पर हम पाते हैं कि अलका जी की शायरी परम्परा का निर्वाह करते हुए आधुनिकता की तलाश करती है। एक तरफ मज़बूत शिल्प के साथ रवायती शायरी पढ़ने को मिलती है तो दूजी तरफ कहन और कथ्य में ताज़गी भी दिखायी पड़ती है।
अलका जी से मेरा परिचय '101 महिला ग़ज़लकार' के संपादन के दौरान हुआ था और उस समय पढ़ी इनकी 4-5 ग़ज़लों ने मुझे ख़ासा प्रभावित किया। इनके ग़ज़ल लेखन में एक ठहराव है, एक संजीदगी है, जो इन्हें विशिष्ट बनाती है। अगर 20 महिला ग़ज़लकारों की एक सूचि बनायी जाये जो शिल्प, कहन, भाव आदि पैमानों पर मज़बूत ग़ज़ल लेखन कर रही हैं तो मैं अलका जी का नाम उसमें रखना चाहूँगा।
आज की ग़ज़ल चाहती है कि ग़ज़लकार पुराने ढर्रों को तोड़ते हुए उसे कुछ अलग तरह से सँवारे लेकिन उसमें उसके नाज़ुक स्वभाव का बहुत ज़िम्मेदारी के साथ ख़याल रखा जाय। उसके शेरों में बेशक वर्तमान हो, जीवन की बुनियादी बातें हों मगर हो-हल्ला न हो। बहुत नफ़ासत से इशारों-इशारों में चोट की जाए। हो-हल्ला करना बहुत आसान है, इशारों में मारक क्षमता के साथ चोट करना बहुत मुश्किल। इसीलिए ग़ज़ल कहना इतना आसान भी नहीं, जितना हम समझते हैं।
अलका जी ग़ज़ल में प्यार मुहब्बत की बातें भी करती हैं, जीवन की जद्दोजहद को भी उकेरती हैं तो विसंगतियों पर तंज़ भी कसती हैं। इनकी शायरी में जीवन के कई रंग देखे जा सकते हैं। इनके मख़मली एहसासों के कुछ शेर देखिए-
उसकी आँखों के रास्ते होकर
दिल का ज़ीना उतर रही हूँ मैं
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ये तेरी याद ना! सच कह रही हूँ
मेरी नींदों की दुश्मन है अभी तक
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जान की बाज़ी लगा बैठा है फिर
फिर कोई आशिक़ जुआरी हो गया
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जो उसने जान भी माँगी तो हँस के दे देंगे
ज़रा-सी बात का शिकवा नहीं करेंगे हम
ज़िन्दगी के सबके अपने-अपने तज्रिबे होते हैं। इसे जीने और इससे लड़ने के अपने-अपने तरीक़े होते हैं। अलका जी के पास भी अपने तज्रिबे और अपने तरीक़े हैं। आइए देखते हैं कि जीवन को लेकर ये क्या कहती हैं-
ज़मीं पे आने से साँसों के रूठ जाने तक
रहे सफ़र में मुसलसल क़ज़ा के शाने तक
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सभी हैरान हैं इस ज़िन्दगी के स्वाद को लेकर
कभी खट्टी, कभी मीठी, कभी नमकीन लगती है
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जिसे बैसाखियाँ लेकर गयी हों उसकी मंज़िल तक
कभी उस शख्स़ के हिस्से में ख़ुद्दारी नहीं आती
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घर की क़ीमत कोई उससे ही पूछे
जो इक छत का ख़्वाब सजाता फिरता है
एक ज़िम्मेदार रचनाकार अपने समाज और उसकी व्यवस्था को लेकर हमेशा सजग रहता है। समाज में रहते हुए कई ऐसी चिंताएँ होती हैं, जो उसे हर सामान्य व्यक्ति की तरह बल्कि उससे कुछ ज़्यादा ही प्रभावित करती हैं। ऐसे में उसके लेखन में भी यह फ़िक्र साफ़ झलकती है। यहाँ भी इसकी झलक है-
अपने, अपनों से कट रहे हैं क्यों
दायरों में सिमट रहे हैं क्यों
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जान होती है हथेली पे जो घर से निकलें
दौर-ए-हाज़िर में फ़सादात से डर लगता है
(फ़सादात= फ़सादों)
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अब मेरा मुल्क किसी तौर न तोड़ा जाए
आओ मिल-जुल के इसे प्यार से जोड़ा जाए
कुछ ऐसे शेर भी इनके यहाँ मिलते हैं, जो एक महिला ग़ज़लकार होने के नाते कहे जाने ज़रूरी हैं। यानी कुछ ऐसे अनुभव जो दुनिया से केवल एक महिला को ही मिलते हैं। इन शेरों में एक शेर जो बहुत आम-सा ख़याल लिए हुए है, आज तक लाखों महिलाएँ इस भाव से दो-चार हुई हैं लेकिन शायरी में ढलकर शायद ही हमारे सामने कभी आया हो। इस शेर को अगर मैं किताब का हासिल कह दूँ तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जितना ज़रूरी यह कथ्य है उतनी ही संजीदगी से इसे कहा भी गया है, देखिए-
जब तक न मेरी कोख से कोंपल कोई फूटी
लोगों की नज़र में किसी बंजर-सी रही हूँ
इसी स्वभाव के कुछ और शेर-
वो समुन्दर से कुछ नहीं कहते
हैं नदी के उफ़ान पर बातें
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तोड़ देती हैं बेड़ियाँ अक्सर
क़ैद में रह के बेटियाँ अक्सर
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हालात ने मज़बूत मुझे इतना बनाया
मिट्टी से बने जिस्म में पत्थर-सी रही हूँ
केवल 80 ग़ज़लों में ही अपनी शायरी से अलका जी पाठक के मन में छाप छोड़ने में सफ़ल रहती हैं। इनके लेखन में हर मिज़ाज के शेर मिलना सुखद है। पुस्तक के अलावा इनकी रचनाएँ रेख्ता और कविताकोश पर भी पढ़ी जा सकती हैं। सोशल मिडिया और पत्रिकाओं के साथ-साथ अलका जी मंचों पर भी बराबर सक्रिय हैं। इनकी यह सक्रियता बढ़ती रहे और ग़ज़ल लेखन समृद्ध होता रहे, शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- बला है इश्क़
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- अलका मिश्रा
प्रकाशक- गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद (उ.प्र.)
संस्करण- प्रथम, 2019
मूल्य- 200 रूपये (हार्डबाउंड)
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