'चुप्पियों के बीच' किताबगंज प्रकाशन से हाल ही में आया हिन्दी ग़ज़ल का एक महत्वपूर्ण संग्रह है। यह संग्रह डॉ. भावना द्वारा रचित है। डॉ. भावना हिन्दी ग़ज़लकारों और पाठकों के लिए एक सुपरिचित नाम हैं। आज की ग़ज़ल के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर उस्ताद ग़ज़लकार डॉ. दरवेश भारती कहते हैं कि-
"डॉ. भावना आज की महिला ग़ज़ल-लेखन में सबसे अधिक सफल ग़ज़लकारा हैं।......इनकी ग़ज़लों में यथार्थवाद का वह रूप मिलता है, जो निश्चय ही शुभ और स्वस्थ है।..... इनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनैतिक और दैनिक जीवन के यथार्थ चित्रों से परिपूर्ण हैं। सुलगते यथार्थ को सूत्रबद्ध और व्यवस्थित करना और उनमें प्राण डालना इनकी ख़ास विशेषता है।"
जब दरवेश भारती जैसा जीनियस किसी ग़ज़लकार के लिए ऐसी घोषणा कर दे तो इसका महत्व हम समझ सकते हैं कि उस ग़ज़लकार में क्या क्षमता होगी। बिहार के मुज़फ्फरपुर निवासी डॉ. भावना का यह तीसरा ग़ज़ल संग्रह है। इससे पहले आया इनका ग़ज़ल संग्रह 'शब्दों की क़ीमत' भी ख़ासा चर्चित रहा है। जैसा कि दादा दरवेश भारती जी ने बताया कि डॉ. भावना ग़ज़ल लिखते समय अपने दौर को ज़ेहन में रख; समाज, राजनीति और हमारे दैनिक जीवन की घटनाओं पर बारीकी से नज़र रखती हैं। इनके लिए अपने निजी अनुभव जितने ज़रूरी हैं, उतने ही ज़रूरी हैं- समाज और आम इंसान की जद्दोजहद। इनकी ग़ज़लों में कपोल-कल्पनाएँ और उक्ति वैचित्र्य बहुत कम मिलता है। ये सीधी-सादी भाषा में अपनी बात रखना पसन्द करती हैं।
डॉ. भावना के ग़ज़ल लेखन में ज़मीनी सच मुखर होकर आता है। लेकिन इस अंदाज़ में कि वह कविताई के मर्म को ज़िन्दा रखे रहे। कुछ शेर देखें-
एक इमारत जुग्गी पर इठलाएगी
कोई बंदा घर से बेखर हो तो हो
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कहोगे तुम नहीं जितना वो अब उतना समझता है
समय की नब्ज़ को अब पेट का बच्चा समझता है
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हमेशा घर की बहुओं में हज़ारों दोष होते हैं
हमेशा अपनी बेटी ही हमें शालीन लगती है
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यहाँ खरगोश को भी मात दे जाता है इक कछुआ
विजय की हर कसौटी तो लगन पर आके रुकती है
अपने समय से मुख़ातिब इन कुछेक शेरों से ही यह आभास और विश्वास हो जाता है कि वर्तमान इनकी ग़ज़लों में किस तरह मज़बूती से आता है। एक प्रतिबद्ध रचनाकार की यह ख़ूबी होती है कि वह अपने दौर में जीता है, अपने दौर को रचता है।
भाषा की बात की जाय तो वे आम व्यक्ति की सामान्य बातचीत की भाषा में अपना रचनाकर्म करती हैं। इनके यहाँ भाषा को लेकर न किसी प्रकार की दुरुहता मिलती है न पूर्वाग्रह। ये हिन्दी परिवेश में रहते हुए आम हिन्दुस्तानी पाठक के लिए सृजन करती हैं। इनके लेखन की सहजता देखिए-
भला बनने की ऐसी क्या ज़रूरत
हो जैसे भी, यहाँ वैसे रहो तुम
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बिना बोले ही कह जाते बहुत हैं
ये आँसू लफ़्ज़ों से अच्छे बहुत हैं
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पल में सो जाता है आँचल में बिलखता बच्चा
माँ को क्या ख़ूब सुलाने का हुनर आता है
समाज के सरोकारों पर भी इनकी पैनी नज़र रहती है। इनके यहाँ का यथार्थ ग़ज़ल के बाक़ी तमाम पहलुओं पर भारी पड़ता है। और इसी एक वजह से ये अपने समय की महिला ग़ज़लकारों से बहुत आगे खड़ी मिलती हैं। यथार्थ की आँखों में आँखें गढ़ाने का साहस इन्हें विशिष्ट बनाता है। यही साहस पूरे हिन्दी परिवेश की ग़ज़लों की विशेषता है।
भूख का रूप आप क्या जानें
आपने पेट भर के खाया है
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बड़ी बिल्डिंग, बड़ी सड़कों के ही क़िस्से सुनाती है
शहर की तितलियाँ जब गाँव में भूले से आती हैं
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चार चूल्हे थे मगर अम्मी रही भूखी
घर के भीतर घर को कैसे ढो रहे थे हम
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जिसे पढ़ने को जाना है उसे नौकर बनाती है
हर इक छोटू के बचपन को ग़रीबी लील जाती है
एक महिला हमारे समाज में कितनी ही उथल-पुथल लेकर जीती है या यूँ कहिए कि अपने आपको बचाए रखती है। क़दम-क़दम पर वह न चाहते हुए भी कई-कई समझौते करती है, हालत से मुक़ाबला करती है। ऐसे में एक महिला के दृष्टिकोण से महिलाओं के जीवन और अनुभवों पर कहे गये ये शेर उनके महिला ग़ज़लकार होने की सार्थकता सिद्ध करते प्रतीत होते हैं-
कितना अजब कमाल है पुरखों की जीन का
नानी की शक्ल लेके मैं धरती पे आ गयी
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खिड़की, आँगन, गलियाँ रोयीं
पीहर से जब रिश्ता छूटा
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इस पड़ोसन को क्या कहूँ आख़िर
कब की खुन्नस निकाल बैठी है
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कभी हँसती, कभी रोती, कभी चुप्पी लगाती है
ये औरत रोज़ छल-बल की लड़ाई हार जाती है
पेशे से शिक्षिका, शौक़ से लेखिका एवं संपादक डॉ. भावना का व्यक्तित्व और कृतित्व अनुकरणीय है। उन्हें पढ़कर यह जाना जा सकता है कि ग़ज़ल जैसी पारम्परिक और समृद्ध विधा में किस तरह अपने समय की आधुनिकता का समावेश किया जाता है। इस ग़ज़ल संग्रह के लिए उन्हें और किताबगंज को आत्मीय शुभेच्छाओं के साथ बेह्तर साहित्यिक भविष्य के लिए मंगलकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- चुप्पियों के बीच
रचनाकार- डॉ. भावना
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान)
संस्करण- प्रथम (मई 2019)
पृष्ठ- 96
मूल्य- 195 रुपये
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