Friday, February 14, 2020

बेहतरीन अंदाज़ की परंपरागत शायरी: रग-रग का लहू


'रग-रग का लहू' सरफ़राज़ अहमद 'आसी' का हालिया प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। शेरी अकादमी, भोपाल से प्रकाशित इस संग्रह में इनकी कुल 104 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उर्दू की रवायती शायरी को पसन्द करने वाले पाठकों को इस संग्रह की ग़ज़लें बहुत प्रभावित करेंगी।

'आसी' साहब से मेरा परिचय इनकी एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल के ज़रिये हुआ। परिचय तो शायद पहले का था लेकिन वह ग़ज़ल पढ़ने के बाद 'आसी' साहब का नाम मेरे ज़ेहन में अटक-सा गया। यह ग़ज़ल मेरे संपादन में आयी 'समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें' किताब में भी शामिल हुई। यह ग़ज़ल मेरे लिए आज भी किसी संग्रह से बढ़कर है। यह पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब है। इसकी कहन, क़ाफ़ियों और रदीफ़ का निबाह बेह्तरीन है। जब इस ग़ज़ल की बात निकली है तो आप भी इसके कुछ अशआर पढ़िए-

उसकी फ़ितरत है ज़माने से लिपट कर रोना
मुझको आता नहीं तहज़ीब से हट कर रोना

काश मिल जाए वो रोने का ज़माना मुझको
माँ से फिर रूठ के बादल-सा वो फट कर रोना

उसके रोने का था अन्दाज़ निराला 'आसी'
कभी सीने से, कभी पीठ से सट कर रोना

हालाँकि मेरा मन तो आपको यह पूरी ग़ज़ल पढ़वाने का है, लेकिन यहाँ यह सम्भव नहीं। यह ग़ज़ल इस संग्रह में भी शामिल है।

ग़ाज़ीपुर ज़िले के यूसुफ़पुर निवासी सरफ़राज़ अहमद 'आसी' परंपरागत शायरी करते हुए बेहतरीन अल्फ़ाज़ में अपनी बात रखते हैं। इस संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रने के बाद इनकी शायरी के और भी कई रंग मुझ पर खुले। इनके पास आम इंसान की ज़िन्दगी से जुड़े तमाम तरह के अनुभव हैं और ये अनुभव ही इनके अशआर को गहराई देते हैं। कहीं-कहीं इनकी कहन अलग ही रंग में मिलती है और तब यह जान पड़ता है कि यह कहन इनको एक अलग तरह का शायर बना सकती है। हालाँकि विषयों की विविधता होते हुए भी इनका बंधे-बंधाये ढर्रे में शायरी करना अखरता है। लेकिन जहाँ भी आसी साहब लीक से ज़रा-सा हटकर बात कहते हैं, बेह्तरीन होते दिखते हैं।

मुझको मालूम है इक रोज़ ज़बां खोलेगी
माँग ले ज़िन्दगी मुझसे तू अभी जो लेगी
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मेरे मौला मेरी आँखों की तमन्ना है यही
मैं जिसे देख रहा हूँ उसे दुनिया देखे
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मेरी बस्ती में कई ऐसे ज़मींदार भी हैं
एक कमरे से निकालें तो कई घर निकले
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तोते की काविशों की वो खाता है रोटियाँ
देखेगा हाथ मेरा मुकद्दर बताएगा

ये कुछ ऐसे अशआर हैं, जो आपको मेरी उपरोक्त बात का समर्थन करते दिखेंगे।

इनके मरहूम दादा हुज़ूर भी शायर हुए हैं और वालिद साहब भी अदब से जुड़े रहे, इसलिए यह कह सकते हैं कि शायरी इनकी रगों में खून के साथ बहती है। साथ ही इनके क़स्बे में और आसपास बेह्तरीन शायरों की फ़ौज मौजूद है, जिनकी संगत इन्हें और इनके कलाम को बेह्तर से बेह्तरीन बनाती है। यह तराश इनकी ग़ज़लों में ख़ूब नज़र भी आती है और यही वजह है कि इनका शेर कहने का सधा हुआ ढंग दिल छूता है। कुछ अशआर देखिए-

वो हाथों में लिए काग़ज़ की गुड़िया बेचने वाले
गली में अब नहीं आते खिलौना बेचने वाले
यह शेर स्मृतियों की गूँज लिए हुए है और साथ ही बदलते ज़माने में चीज़ों के बदल जाने की एक टीस भी रखता है अपने भीतर।
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उम्र गुज़री तो यह अह्सास हुआ
मैं न बदला, मेरी सूरत बदली
बदलाव का अलग ढंग से प्रस्तुतिकरण देखिए।
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ग़ैरत पसन्द आदमी का है यही उसूल
दुनिया से अपने आप को कमतर बताएगा

इनकी शायरी में वर्तमान समय का अक्स भी दिखाई पड़ता है। देश और समाज की चिंताएँ, पीड़ाएँ, उलझनें आदि इनके लेखन में स्पष्ट दिखाई देती हैं। भ्रष्टाचार, दोगलापन, पत्रकारिता का पतन, धार्मिक कट्टरता जैसी चिंताएँ इनके लेखन में दिखलाई पड़ती हैं। यह एक साहित्यकार का फ़र्ज़ होता है कि वह अपने आसपास घटने वाली घटनाओं का मूल्याँकन करे और उनकी अस्ल वजहों और प्रभावों को आम लोगों तक पहुँचाये।

इज़्ज़त के साथ उसको बरी कर दिया गया
होता रहा अवाम में जिसकी सज़ा का ज़िक्र
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आज ख़ुशबू की हिमायत में खड़ा है वो भी
जिसको पैरों से कभी फूल मसलते देखा
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मेरी निगाह में कारे-सवाब है 'आसी'
किसी ग़रीब के बच्चे को रोटियाँ देना

देश के नफ़रत भरे मौजूदा हालात की झलक इनकी शायरी में कुछ यूँ मिलती है-

रंज था लेकिन गिला ऐसा न था
नफ़रतों का सिलसिला ऐसा न था
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हम में तुम में दूरियाँ तो थीं मगर
आज है जो फ़ासिला ऐसा न था
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इक तरफ तो सच को भी सच बोलना दुश्वार है
इक तरफ कुछ भी कहो आज़ादी-ए-इज़हार है

इन ख़राब हालात से परेशान एक शायर मिज़ाज इंसान इसका हल केवल मुहब्बत में तलाश करता है। आसी साहब भी आपसी सद्भाव और भाईचारे की हिमायत करते दिखते हैं और एक ऐसा रस्ता तलाश करने को कहते हैं, जो दरमियान का हो-

खेलने दो अपने बच्चों को मेरे बच्चों के साथ
इस बहाने दोस्ती का रास्ता बाक़ी रहे
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वो रंग जिसपे किसी को भी इख्तिलाफ़ न हो
चलो तलाश करें कोई दरमियान का रंग
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फिर धमाकों में कोई और न मरने पाये
अमन की राह में अब कोई कबूतर निकले

समृद्ध शायर सरफ़राज़ अहमद 'आसी' का यह संग्रह न केवल पठनीय है अपितु संग्रहणीय भी है। ख़ासकर उन नए ग़ज़लकार साथियों के लिए जो शायरी का सलीक़ा सीखना चाहते हैं। आसी साहब को उनके ही इस शेर के साथ इस संग्रह के लिए मुबारकबाद और आने वाले तमाम संग्रहों के लिए शुभेच्छाएँ कि आपकी ग़ज़ल यूँ ही बोलती रहे-

मैंने रग-रग का लहू देके सँवारा है इसे
मैं अगर चुप भी रहूँगा तो ग़ज़ल बोलेगी





समीक्ष्य पुस्तक- रग-रग का लहू
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- सरफ़राज़ अहमद 'आसी'
प्रकाशक- शेरी अकादमी, भोपाल
संस्करण- अक्टूबर, 2019
पृष्ठ- 136, मूल्य- 300 रूपये

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