हिन्दी के छन्द काव्य में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम एक जाना-पहचाना नाम हैं। ये कवि, ग़ज़लकार, गीतकार, लेखक और प्रसिद्ध छन्द शास्त्री हैं। हिन्दी साहित्य की तमाम छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ पढ़ी जा सकती हैं। आने वाले अक्टूबर माह में अपने जीवन का 80वां बसन्त देखने जा रहे डॉ. ब्रह्मजीत आज भी नव-जवान पीढ़ी के साथ क़दम से क़दम मिलाकर प्रिन्ट एवं सोशल मीडिया पर बराबर सक्रिय हैं। यह हम नई पीढ़ी के रचनाकारों का सौभाग्य है कि इनके सरीखे वृद्ध और समृद्ध रचनाकार हमारे मार्गदर्शन के लिए मौजूद हैं।
इनकी एक और ख़ासियत जो मुझे मोहती है, वह यह है कि ये अन्य स्वयंघोषित बड़े रचनाकारों की तरह आम पाठक और सामान्य रचनाकारों से दूर नहीं रहते बल्कि बहुत ही सहजता और सरलता के साथ सदा हर एक के सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं। साहित्य लेखन में इतना समय बिताने और जगह बनाने के बावजूद भी डॉ. ब्रह्मजीत आज तक नवरचनाकार की तरह अपने आपको परिष्कृत करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। यह गुण बड़े रचनाकार होने के साथ-साथ इनके बड़े व्यक्तित्व को दर्शाता है।
पिछले दिनों डॉ. ब्रह्मजीत गौतम का एक दोहा संग्रह प्रकाशित होकर आया है। 'बेस्ट बुक बडीज' प्रकाशन से प्रकाशित हुए इस संग्रह 'दोहे पानीदार' में इनके 520 दोहे और दोहा छन्द पर आधारित एक बहुत महत्वपूर्ण लेख सम्मिलित है। यह लेख दोहा छन्द के विविध पहलुओं पर विस्तार से बात करते हुए इस लोकप्रिय छन्द में अक्सर होने वाली त्रुटियों पर प्रकाश डालता है। इस लेख में डॉ. ब्रह्मजीत दोहे के कथ्य, शिल्प और भाषा तीनों पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हैं। कुल चौदह पृष्ठों के इस लेख में वे दोहा छन्द के तमाम पहलुओं को बारीकी से समझाते हैं।
पुस्तक में सम्मिलित किये गये इनके 520 दोहों में लगभग सभी समसामयिक और ज़रूरी विषयों को अपना कथ्य बनाते हैं। दोहा वैसे भी समाज में व्याप्त विसंगतियों के ख़िलाफ़ एक कारगर हथियार की तरह रहा है। उस पर आधुनिक दोहा तो पूर्णत: सरोकारों से लेस है। इस पुस्तक के सभी दोहे आधुनिक दोहा का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने समय को बा-ख़ूबी उकेरते हैं। भ्रष्टाचार, स्तरहीन राजनीति, घृणा का वातावरण, धार्मिक वैमनस्य, पर्यावरण का अत्यधिक दोहन और बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन आदि तमाम तरह के चिंताजनक मुद्दे इनकी रचनाओं में प्रमुखता से स्थान पाते हैं। एक सजग रचनाकार हमेशा अपने आसपास की चिंताओं पर चिंतन करना अपना धर्म समझता है। डॉ. ब्रह्मजीत भी अपना यही धर्म निभाते हैं।
अपराधी, क़ानून के, बने हुए हैं बाप।
सब सुविधाएँ जेल में, मिलतीं उनको आप।।
जातिवाद, क्षेत्रीयता, मज़हब, भाषा-भेद।
लोकतंत्र की नाव में, देखो कितने छेद।।
नारे, भाषण, रैलियाँ, जाम, बंद, हड़ताल।
इनमें दबकर रह गया, लोकतंत्र का भाल।।
स्वयं मालियों ने किया, अपना चमन तबाह।
दोष आँधियों पर मढ़ा, वाह सियासत वाह।।
अपनी गंभीर और सटीक कहन से विसंगियाँ उकेरते डॉ. ब्रह्मजीत कभी-कभी उन पर व्यंग्य बाण भी छोड़ते हैं और तब उनके दोहा रूपी तीर और ज़्यादा पैने हो जाते हैं-
कुर्सी में वह ताप है, वह ऊर्जा, वह आर्ट।
बूढा भी पाकर जिसे, बन जाता है स्मार्ट।।
कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।
नेताओं के स्वाद की, देनी होगी दाद।।
इनकी रचनाओं में दर्शन भी जहाँ-तहाँ देखने को मिलता है। जीवन का एक लम्बा अरसा साहित्य को देने के बाद और जीवन को नज़दीक से समझने के बाद इनकी दृष्टि बहुत समर्थ हुई दिखती है।
ख़ुशी-ख़ुशी जो झेलते, हर मौसम की मार।
पेड़ वही बनते सबल, वे ही छायादार।।
पहले झेला शीत को, फिर पतझड़ की मार।
तब बसंत को मिल सका, फूलों का उपहार।।
मिलें फूल ही राह में, मिले न कोई ख़ार।
ऐसा तो सम्भव नहीं, जीवन में हर बार।।
दर्शन के साथ ही इनकी रचनाओं में सकारात्मक ऊर्जा का संचार मिलता है। इनके कई दोहे शिथिल पड़ चुकी सोच में नई जान फूँकने की सामर्थ्य रखते हैं।
एक दीप ने हर लिया, रजनी का तम-तोम।
जिसके मन विश्वास है, छू लेता है व्योम।।
ज्ञान, ध्यान, विज्ञान का, एक यही है सार।
जो हिम्मत हारे नहीं, उसका बेड़ा पार।।
वर्तमान में हमारे राष्ट्रीय परिदृश्य पर मुखर हो रहे धार्मिक अलगाव पर चिंता होना लाज़िमी है। भारतीय संस्कृति हमेशा से ही विविध-वर्णी रही है और यही लोच इसके इतनी प्राचीन होने के बावजूद सजीव बने रहने की वजह है। मनुज-मनुज के बीच उपजते अलगाव पर डॉ. ब्रह्मजीत भी चिंतित होते हैं। फलस्वरूप वे ऐसी रचनाओं का सृजन करते हैं, जो पाठक को सार्थक चिंतन की ओर प्रेरित करती हैं। धर्म और ईश्वर पर वे अपना अनुभव कुछ यूँ रखते हैं-
अल्लाह या ईसा कहो, या फिर कह लो राम।
करता 'वही' सहायता, जब पड़ता है काम।।
पानी, छाया, धूप से, पूछो उनका रंग।
तब तुम लड़ना बेझिझक, जाति, धर्म की जंग।।
हिंदू, मुस्लिम, सिख खड़े, देता सबको छाँह।
पेड़ नहीं है थामता, किसी धर्म की बाँह।।
वे अनेकता में एकता को ही भारतीय संस्कृति का मूल आधार मानते हैं-
भाषा, सूबे, जातियाँ, मज़हब विविध प्रकार।
इन सबका एकत्व है, भारत का आधार।।
पर्यावरण का संतुलन बनाये रखना हमारे समय का एक ऐसा ज़रूरी मुद्दा है, जो हर मुद्दे से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा विषय है, जिससे पूरे विश्वभर का सरोकार है। पूरी दुनिया के इंसानों को अपने आपको और अपनी धरती को बचाए रखने के लिए एक जंग लड़ने की ज़रूरत है। ऐसी जंग जो अपने ही ख़िलाफ़ है और जो पर्यावरण संरक्षण के लिए लड़ी जानी है। यह वह क्रिटिकल समय है जब हमें अपनी आने वाली नस्लों के जीवन को जीने लायक बनाए रखने के लिए आत्ममंथन कर आत्मसंयम का परिचय देना है और प्रकृति में उसके आवश्यक तत्वों का संतुलन सुधारना है। इस महत्वपूर्ण विषय पर डॉ. ब्रह्मजीत गौतम कुछ यूँ विचारते हैं-
ऊँचे भवनों की लगी, गाँव शहर में भीड़।
गौरैया है सोचती, कहाँ बनाऊँ नीड़।।
चादर के अनुसार ही, अपने पैर पसार।
रे मानव! तू प्रकृति से, व्यर्थ बढ़ा मत रार।।
पुस्तक 'दोहे पानीदार' जीवन के लगभग हर विषय को छूने की कोशिश करती है। तत्सम शब्दावली युक्त भाषा में प्रतीक और बिम्ब योजना का बहुत सुंदर ढंग से प्रयोग हुआ है। इन दोहों से दोहा छन्द में भाषा और शिल्प किस तरह बरता जाना चाहिए, यह सरलता से सीखा जा सकता है। पुस्तक के समस्त दोहे आधुनिक हिन्दी छन्द को ख़ूब समृद्ध करते हैं। संग्रह के सृजन एवं प्रकाशन के लिए डॉ. ब्रह्मजीत गौतम को हार्दिक शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- दोहे पानीदार
विधा- दोहा
रचनाकार- डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
प्रकाशक- बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2019
पृष्ठ- 120
मूल्य- 200 रुपये मात्र (पेपरबैक)
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