Thursday, August 6, 2020

हिन्दी ग़ज़ल के परिवेश को मज़बूती से हमारे सामने रखता संग्रह 'चाँद छूने तक'


हिन्दी ग़ज़ल की एक ख़ासियत यह भी है कि यह ग़ज़ल विधा के दायरों में रहते हुए हिन्दी कविता-सा परिवेश रचती है। अपने रचाव में इसकी भाषा, कहन और शैली इस तरह अपने परिवेश को समाहीत करती है कि इसका अपना एक वातावरण निर्मित होता है। हिन्दी ग़ज़लकार यह वातावरण रचने में कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करते बल्कि यह उनकी कविताई के स्वभाव में है। बोलचाल के शब्दों से अपने आसपास के परिवेश को शब्दबद्ध करते हुए कब ग़ज़ल; हिन्दी कविता के आँगन में आकर अठखेलियाँ करने लगती है, स्वयं इन ग़ज़लों के रचयिता यह अहसास नहीं कर पाते।
पिछले दिनों पढ़े गये ग़ज़ल संग्रह चाँद छूने तक को पढ़ते हुए यह विश्वास और मज़बूत हुआ। जोधपुर (राजस्थान) के बेह्तरीन रचनाकार दिनेश सिन्दल का यह संग्रह हिन्दी ग़ज़ल के अपने परिवेश को मज़बूती से हमारे सामने रखता है।

दिनेश सिन्दल राजस्थान सहित पूरे देश में मंच का एक प्रतिष्ठित नाम है। मंच पर इनके गीत, कविता और दोहों को धूम मचाते मैंने स्वयं देखा है। ग़ज़लों के अलावा इनके गीत और अन्य विधाओं की रचनाएँ भी उतनी ही सशक्त हैं। इसके साथ ही वे मंच और पत्रिकाओं/पुस्तकों में भी बराबर संतुलन बनाए रखते हैं। हाल ही वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़ल आलोचक हरेराम समीप जी द्वारा उन्हें हिन्दी ग़ज़ल के अब तक के प्रमुख 104 नामों में भी शुमार किया गया है।

जहाँ इनकी ग़ज़लों की भाषा और परिवेश आकर्षित करता है, वहीं इनके शेरों के कथ्य में उपस्थित चिंताएँ तथा चिन्तन आश्वस्त करते दिखते हैं। इनकी ग़ज़लें आम इंसान की आसान-सी बोलचाल की भाषा में अपने समय का आईना बनकर उभरती हैं। इनके पास शब्द चयन और शब्द संयोजन की बहुत अच्छी समझ है, जो इनकी रचनाओं का ज़ायका बढ़ाती नज़र आती है। इनकी ग़ज़लों की भाषा के कुछ उदाहरण देखिए, मुहावरेदार भाषा और उत्कृष्ट प्रतीक योजना इनके शेरों को विशिष्टता प्रदान करती है-

पेड़ ने सुनकर लुटाये फूल-फल दो हाथ से
घाटियों में गा रही थी गीत संन्यासी नदी
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कौन सुनेगा नीचे स्वर में कुछ तो ऊँचा बोल ज़रा
तू भी इन नक्कारों के घर तूती के स्वर ले आया

भाषा के साथ-साथ एक अच्छी बात इनकी शायरी में यह देखने को मिलती है कि इनकी कहन प्रभावी है। अमूमन हिन्दी परिवेश की ग़ज़लों में सपाटबयानी अधिक देखने को मिलती है और इसे ग़ज़ल, जो 'इशारों का आर्ट' है, में एक बड़ी कमी माना जाता है। लेकिन दिनेश सिन्दल की कहन इनकी ग़ज़लों को और अधिक आकर्षक बनाती है। ये मुहावरों और प्रतीकों का प्रयोग करते हुए अपने शेरों को बहुत सलीक़े से रचते हैं।

मछलियों को ये पकड़ खा जाएँगे
चन्द बगुले ध्यान में डूबे हुए
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कैक्टस तो आप जब चाहे उगा लेंगे मगर
हाथ में काँटें चुभेंगे फूल इक बोते हुए
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अँधियारे ने सूरज को ये पाठ पढ़ाया कैसा है
तुम जब डूबो तो दुनिया पर पहले कुछ लाली करना

सामाजिक यथार्थ इनकी ग़ज़लों में यत्र-तत्र बिखरा मिलता है। ये अपने आसपास को बहुत बारीकी से देखते हैं और उसी बारीकी से उसे अपनी ग़ज़लों के शेरों में बाँधते भी हैं। इनकी लगभग हर एक ग़ज़ल में कोई न कोई सरोकार ज़रूर दिखाई पड़ता है। इस प्रकार दिनेश सिन्दल का रचनाकार अपने समाज के सरोकारों से गहराई से जुड़ा है।

एक चिड़िया ने लिखी सारी ज़मीनें आपकी
आपने चिड़िया को है क्या पंख भर अंबर दिया
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न जाने ज़िन्दगी ने क्या लिखा इनकी किताबों में
ये बच्चे वक़्त से पहले बहुत कुछ जान लेते हैं
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बच्चों की मनुहारें, पति की फटकारें
रूप बहुत हैं उस औरत के नर्तन के

दिनेश सिन्दल की ग़ज़लों में हमारा समय और समाज अपनी पूरी चकाचौंध के साथ उपस्थित मिलते हैं। इनकी लेखनी कभी अपनी परम्पराओं पर गर्व करती है तो कभी अतिवाद एवं विसंगतियों से मुठभेड़ करती दिखती है। एक साहित्यकार का यह दायित्व होता है कि वह ख़राब व्यवस्था तथा विसंगतियों के ख़िलाफ़ मज़बूती से खड़ा रहे और सामान्य जनमानस को उनके भले-बुरे के प्रति सचेत करता रहे। दिनेश सिन्दल अपनी ग़ज़लों में यह काम बाख़ूबी करते हैं।

बारिश, झरना, नदी, समुन्दर तेरे-मेरे जैसा सब
ज़िक्र नहीं पर तेरा-मेरा राजा की कविताओं में

आम आदमी चबा रहा है चने यहाँ पर लोहे के
और लिखा है समय सुनहरा राजा की कविताओं में
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है रियायत धर्म भी देता रहा इतनी यहाँ
आदमी कटना जहाँ था मैमना रखा गया

पहले जननी की ज़ुबां को खींच कर गूँगा किया
फिर यहाँ ऐ दोस्त 'वन्दे मातरम्' गाया गया

मुझे सिन्दल जी के आसपास रहने का भी मौक़ा मिला है और काफ़ी क़रीब से इन्हें जानने के प्रयास भी किये मैंने लेकिन इनके ग़ज़लकार और वह भी इतने प्रभावी ग़ज़लकार रूप का परिचय इस संग्रह के ज़रिये ही हुआ। कुछ समय पहले जब इनका संग्रह मिला और मैंने सरसरी तौर पर इसे देखा तो आश्चर्य हुआ। इसी उत्सुकता में व्यस्त दिनचर्या से समय चुराते हुए मैंने कई बार यह संग्रह पढ़ लिया। इस आश्चर्य की एक वजह यह भी है कि दिनेश सिन्दल जी अन्य साहित्यकारों की तरह आत्मप्रचार से दूर हैं। इतने समय के परिचय में इन्होंने कभी अह्सास नहीं होने दिया कि वे इतनी अच्छी ग़ज़लें कहते हैं। बल्कि इनके गीतों की स्तरीयता के बारे में मुझे बहुत पहले भान हो गया था और इस संबंध में मैंने इनसे बात भी की थी, शायद इन्हें याद हो। खैर देर से ही सही लेकिन एक अच्छे हिन्दी ग़ज़लकार के बारे में जानकार प्रसन्न हूँ। इनके पास कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जिनकी हिन्दी ग़ज़ल को ज़रूरत है। जैसे भाषा की मिठास और कलात्मकता के माध्यम से यथार्थ की अभिव्यक्ति।

सिन्दल जी के अब तक छः ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। यह इनका नवीनतम संग्रह है। जोधपुर के रॉयल पब्लिकेशन से आयी इस पुस्तक में इनकी 114 ग़ज़लें सम्मिलित हैं। संग्रह की भूमिका में उर्दू ग़ज़ल के लोकप्रिय शायर राहत इन्दौरी कहते हैं- "दिनेश सिन्दल मुझे इसलिए अज़ीज़ हैं कि वो अपनी बिसात भर शेर जो अदब, ख़ास तौर पर हिन्दी ग़ज़ल की दशा और दिशा पर बात करते हैं। इसे सजाने-सँवारने और इसकी नौक पलक दुरुस्त करने की ख़्वाहिश और कोशिश में मसरूफ़ नज़र आते हैं।"

सचेत करते अनुभवजनित शेरों के साथ सिन्दल जी को इस पुस्तक के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ-

सतह पर तैरते हैं स्वार्थ सारे
बहुत गहरे कहीं पर भावना है
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अनुभवों की दौलतें पायीं मगर
एक सिक्का उम्र का खोना पड़ा
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सौंप कर जाएँगे आँखें हम उन्हें
पेड़ कुछ यूँ भी हरे रह जाएँगे
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अँधियारे से लड़ना है तो केवल मन्दिर में ही क्यों
मन के आँगन में भी हमको दीप जलाना पड़ता है




समीक्ष्य पुस्तक- चाँद छूने तक
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- दिनेश सिन्दल
प्रकाशक- रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर (राज.)
संस्करण- प्रथम, 2019
मूल्य- 300 रुपये (हार्डबाउंड)

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