इन ग़ज़लकारों में एक नाम बारां (राजस्थान) निवासी अश्विनी त्रिपाठी का भी शुमार किया जा सकता है। अश्विनी त्रिपाठी अपने पहले ग़ज़ल संग्रह 'हाशिये पर आदमी' से ही अपनी आमद का अह्सास करवाते हैं। बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित इस संग्रह में इनकी कुल 84 ग़ज़लें संगृहीत हैं, जो इनके लेखन के स्वभाव से परिचय करवाने में पूर्णत: समर्थ हैं।
अश्विनी त्रिपाठी अपनी ग़ज़लों की भाषा आम-जन द्वारा बोली जाने वाली बातचीत की भाषा के आसपास रखते हैं, जो हिंदी की प्रकृति के बहुत समीप दिखती है बल्कि वे कभी-कभी ठेठ हिंदी शब्दों का भी अपनी ग़ज़लों में बड़ी सुंदरता से इस्तेमाल करते हैं।
नदी के रुदन की क हानी कहेगा
तसल्ली से जाकर मुहाने से पूछो
जो आँगन की उपयोगिता पूछनी है
नए से नहीं, कुछ पुराने से पूछो
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शब्दजालों के लिए कुछ वर्ण चुनती मकड़ियों से
वर्णमाला प्रेम के आखर बचाना चाहती है
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धीरज रख सब देख रहा है वह ऊपर वाला
मेहनतकश को मेहनत का फल जमकर देता है
इन शेरों में वे मुहाने, उपयोगिता, शब्दजाल, वर्ण, धीरज तथा मेहनतकश जैसे शब्दों का प्रयोग सलीक़े से करते हैं और साथ ही ग़ज़ल के नाज़ुक स्वभाव को भी क़ायम रखते हैं।
ग़ज़ल को अपने मूल स्वभाव के साथ लिख लेने के अलावा अश्विनी जी अपने शेरों में प्रतीकात्मकता का भी इस्तेमाल करते हैं। प्रतीकात्मकता कविता का एक प्रमुख गुण है, जो उसके प्रभाव को कई गुणा बढ़ा देता है और उसे कई आयाम देता है। इस संग्रह में रचनाकार परंपरागत प्रतीकों के साथ अपने दौर को उकेरता है-
छाँव याद है पेड़ों की, फल याद रहे
भूल गये हम बीजों की क़ुर्बानी को
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समंदर को भी कमतर आँकते हैं
कुएँ से जो निकल पाते नहीं हैं
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जिस नदी ने शहर से होकर गुज़रना तय किया
उस नदी के साथ सागर तक कई नाले गये
अश्विनी त्रिपाठी जी की ग़ज़लों का सबसे मज़बूत पक्ष उनका समकालीन कथ्य है। वे अपनी लगभग हर ग़ज़ल में अपने समय, अपने परिवेश को उकेरते देखे जाते हैं। वह कविता, जिसमें अपना काल तथा उससे जुड़े संदर्भ न दिखते हों, वह केवल शब्दों का पुलिंदा मात्र है। ऐसी कविताएँ मन को घड़ी भर छू तो सकती हैं लेकिन किसी मन पर अपने दस्तख़त नहीं कर पातीं। यहाँ ग़ज़लकार के अपने समय का संदर्भ देते कुछ शेर द्रष्टव्य हैं-
प्यार में अभिव्यक्तियों का दौर है
प्यार में एह्सास कम है इन दिनों
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हमको औज़ार की ज़रूरत थी
हम तो हथियार तक चले आये
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भाइयों की आपसी तकरार से डरने लगे हैं
घर के आँगन आजकल दीवार से डरने लगे हैं
खेत और किसान हमारे देश के लिए हर समय में महत्वपूर्ण रहे हैं। ये आज भी उतने ही ज़रूरी हैं, जितने सदियों पहले हुआ करते थे। भले ही हम सुविधाभोगियों को अब इस बात का आभास न होता हो। अश्विनी जी की ग़ज़लों में हमें कहीं-कहीं खेत-खलिहान और खेती-किसानी की महक भी मिलती है। रचनाकार का स्वयं देहात से जुड़ाव होना यहाँ इनके शेरों में और धार पैदा करता है। कुछ शेर देखिए-
मेरी बरसात पर लिखी ग़ज़ल को दाद क्या देता
डरा-सहमा हुआ था जो कृषक बरसात को लेकर
यहाँ रचनाकार ने अतिवृष्टि को लेकर किसान-मन की कसक का मार्मिक चित्रण किया है।
सिकुड़ती हुई खेत की मेड़ के थे
कई प्रश्न जिनके मैं हल लिख न पाया
दो भाइयों और पड़ोसियों की लालच तथा रंजिश के अलावा अर्थाभाव का भी कोण इस शेर से निकलता है। इस शेर को कई आयामों से पढ़ा जा सकता है।
खेत में गेंहूँ की पकती बालियों को देखकर
खेतिहर के घर में ढेरों ख़्वाहिशें पलने लगीं
यह उम्मीद व आकाँक्षाओं का शेर बन पड़ा है, जो ग्रामीण परिवेश के सांस्कृतिक परिदृश्य का एक छोsssटा-सा पहलू हमारे सामने रखता है।
दुनिया के सामने बीते की मिसालें रखते हुए भले-बुरे की समझ देना एक रचनाकार का दायित्व माना जाता है। जिस तरह दृश्य के आर-पार एक रचनाकार देख पाता है, वैसे एक सामान्य व्यक्ति नहीं देख पाता। कहा भी तो गया है- जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। प्रस्तुत संग्रह में ग़ज़लकार कुछ ज़रूरी नसीहतें लिए मिलता है-
अगर हम प्यार करना सीख लेते
अना पर वार करना सीख लेते
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सिसकियों को ढालकर मुस्कान में
ज़िंदगी को और प्यारा कीजिए
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जीवन को आसान रखो
अपनी हद का ध्यान रखो
ये छोटे-छोटे और सहज-सरल सूत्र बेशकीमती हैं।
अमूमन यह पाया जाता है कि एक कवि थोड़ा-बहुत दार्शनिक भी हुआ करता है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह जीवन को औरों से ज़्यादा क़रीब से महसूस करता है। दूसरा यह कि जो जीवन के इम्तिहान ज़्यादा देता है, वह अनुभव भी उतना ही बटोरता है और कवि तो अधिक संवेदनशील होने के कारण वैसे ही क़दम-क़दम पर इम्तिहान देते हैं। जब कभी दर्शन शेरों में ढलते हैं, तो वे शेर दीपक बन जाया करते हैं, जो अनेक राहों को रोशन करते हैं। अश्विनी जी के कुछ 'दीपक' देखिए-
जो गहराई तलक जाते नहीं हैं
वो ऊँचाई कभी पाते नहीं हैं
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विफलताओं ने तोड़े हैं सदा ही दंभ के पर्वत
सफलताओं ने सिखलाया हमें मग़रूर हो जाना
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जिस पीपल ने जितना ज़्यादा ताप सहा
वह उतनी ही ज़्यादा छाया करता है
प्रेम इंसानी ज़िंदगी का एक ऐसा घटक है, जिसने जीवन या कहिए सभ्यताओं को गतिमान रखने में सबसे अधिक योगदान दिया है। यह आज भी सृष्टि को चलायमान रखे हुए हैं। ऐसे समय में जहाँ प्रेम और आपसी सामंजस्य रिश्तों, समाज और यहाँ तक की घरों के भीतर से ग़ायब होता जा रहा है, तब इसका कविताओं में होना बहुत ज़रूरी हो जाता है। प्रेम कविता को शुष्क होने से बचाता है इसलिए हिंदी ग़ज़ल के लिए यह और ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हिंदी ग़ज़ल अपने समय के यथार्थ को उकेरते-उकेरते अनेक जगह एकरस होने का आभास देने लगती है। हाँ, यह ज़रूरी है कि अब प्रेम नए संदर्भों में हो तथा आटे में नमक जितना ही रहे अन्यथा स्वाद ख़राब होने की भी संभावना बनी रहती है। इस संग्रह में शृंगार ज़रूरत भर का है, जो मन को भाता है-
माँगता हूँ मैं यही भगवान से
प्यार हो इंसान को इंसान से
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अँधेरे सफ़र में उजालों से होकर
गुज़रता हूँ तेरे ख़यालों से होकर
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फूल चुनने के लिए तुमने शजर को क्या छुआ
एक मीठी-सी लचक सब डालियों में आ गयी
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जिस दिन साँझ पड़े मिलने आती हो तुम
उस दिन सूरज धीरे-धीरे ढलता है
आरम्भ से अंत तक आम आदमी के जीवन से जुड़ा यह ग़ज़ल संग्रह हाशिये के आदमी के साथ खड़ा मिलता है, इसी कारण इसका शीर्षक 'हाशिये पर आदमी' उचित भी लगता है और आकर्षक भी। हिंदी ग़ज़ल की इस युवा आहट के विषय में वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कुँवर बेचैन अपनी भूमिका में कहते हैं- "अश्विनी त्रिपाठी का यह संग्रह अपने आप में इस कारण महत्वपूर्ण है क्योंकि वह ग़ज़ल के छंद-विधान और भाषा के मुहावरे की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त है और कथ्य की दृष्टि से भी। इनकी अपनी सोच, समाज के प्रति इनके कविरूप का दायित्व, भारतीय और विश्व-सन्दर्भ में इनकी जागरूकता, मानव मूल्यों को स्थापित करने की छटपटाहट आदि ये सब कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण इन्हें ग़ज़ल-साहित्य में उचित स्थान मिलेगा।
समीक्ष्य पुस्तक का नाम- हाशिये पर आदमी
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- अश्विनी त्रिपाठी
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ- 96
मूल्य- 120 रूपये
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