Saturday, June 5, 2021

ज़मीनी आदमी के जीवन/समाज के भले-बुरे को शब्दबद्ध करती ग़ज़लें




कुछ समय पहले सुरेश पबरा 'आकाश' जी का ग़ज़ल संग्रह 'वो अकेला' मिला। यह उनका पहला प्रकाशित संग्रह है, जो पहले पहल प्रकाशन, भोपाल से आया है। इस संग्रह में कुल 68 ग़ज़लें संग्रहित हैं। सुरेश पबरा जी दुष्यंत कुमार की ग़ज़लगोई से प्रभावित हैं और उन्हीं की तरह आम आदमी के दुःख को अपनी ग़ज़लों में बाँधने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार, "हिन्दी ग़ज़ल केवल मनोरंजन ही नहीं कर रही, बल्कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है।" बात सोलह आने सच है।

यह संग्रह पढ़ने बाद कहा जा सकता है कि इनकी ग़ज़लें वर्तमान समय की बेबाक अभिव्यक्ति है। पुस्तक के रचनाकार सुरेश पबरा जी कभी सत्ता, कभी समाज तो कभी ख़ुद को अपनी कमियों के लिए लताड़ते हैं। यानी एक रचनाकार के रूप में वे पूरी तरह से सजग हैं। समाज और अपने आसपास को सचेत करते रहने का गुण ही तो हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख गुणों में एक है। सुरेश पबरा जी अपनी ग़ज़लों के ज़रिए यह काम बा-ख़ूबी करते हैं-

शराफ़त से सहना ग़लत बात को
मियां बुज़दिली है शराफ़त नहीं

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तुम ग़लत हो इसलिए सहमे हुए हो
वो नहीं डरता किसी से जो सही हो

इनकी ग़ज़लें सामान्य आदमी की अपनी भाषा और परिवेश की ग़ज़लें हैं। बिना किसी भारी शब्द का इस्तेमाल किये; वे एक सामान्य आदमी के जीवन से जुड़े अनुभवों और भावों को अपने शेरों में पिरोते हैं।

होते हैं आदमी के जैसे दिन
वैसा उसका लिबास होता है

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आज अगर थम जाए बारिश तो धनिया को काम मिले
काम नहीं कल मिल पाया था भटका दिन भर बारिश में

अपनी ग़ज़लों में पबरा जी कहीं-कहीं मुहावरों का भी ख़ूबसूरती से प्रयोग करते हैं। 'दुखों का दादरा गाना', 'चुल्लू भर पानी में डूबना', 'पंगा लेना' जैसे मुहावरे हमें उनके शेरों में दिखाई पड़ते हैं। हिंदी ग़ज़लों की पहचान ही यही है कि उसमें हिंदी कविता के भाषाई संस्कार दिखलायी पड़ते हैं।

सुरेश पबरा 'आकाश' जी की सीधी-सपाट अभिव्यक्ति की ग़ज़लों में कहीं-कहीं प्रतीकात्मकता के भी दर्शन होते हैं। प्रतीकात्मकता ग़ज़ल ही नहीं, सम्पूर्ण कविता का महत्वपूर्ण गुण है। हालाँकि हिंदी की ग़ज़लें अक्सर ही बहुत सपाट होती दिखती हैं। कविता के इस दौर में सपाटबयानी भी ज़रूरी है लेकिन प्रतीकात्मकता की अपनी अहमियत है।

क्या बर्फ थी गर्मी मिली फ़ौरन पिघल गयी
मौका मिला तो आपकी नीयत बदल गयी

तू ही बता दे किस तरह पाएगा वो पतंग
जब डोर उसके हाथ से कब की फिसल गयी

आज हर ओर स्वार्थ हावी है। चाहे वह समाज का कोई भी क्षेत्र हो, पूछ पैसे और पद की है। व्यक्तित्व और भावनाओं से किसी को सरोकार नहीं। हर कोई स्वार्थवश समर्थ व्यक्ति के आसपास इस उम्मीद से मंडराता है कि किसी तरह उसकी कोई साध पूरी हो जाए। मधुमक्खियों को फूलों की रंग-सुगंध से क्या सरोकार! उन्हें केवल रस चाहिए होता है। वह मिल गया फिर जय राम जी की। समाज में दिखलाई पड़ते इस तरह के दृश्यों को शब्द देकर रचनाकार कुछ इस तरह यथार्थ बयान करते हैं-

कितना छोटा आदमी था वो मगर
कितना ऊँचा कर दिया पद ने उसे

अक्सर यह देखा गया है कि इंसान के लिए अच्छी आदतों को अपनाना बहुत मुश्किल होता है। वह चाहकर भी अच्छे इरादे, अच्छे काम नहीं कर पाता लेकिन ख़राब आदतें तुरन्त जीवन का हिस्सा हो जाती हैं और साथ ही उन्हें अपनाने में आनंद भी बहुत आता है। जबकि इंसान यह जानता है कि अमुक आदत उसके लिए नुकसानदायक है लेकिन वह अपनी इच्छाओं के आगे बेबस बना रहता है। यहाँ रचनाकार हमें सचेत करते हुए कहते हैं-

चीज़ जो हमको मज़ा देती है
ज़िंदगी में वो सज़ा देती है

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मालूम है ये चीज़ सज़ा देगी किसी दिन
पर आज तो हम उसमें मज़ा ढूँढ रहे हैं

सुरेश पबरा जी की ग़ज़लें निम्न वर्ग और वंचितों की आवाज़ बनती दिखती हैं। इनके लेखन में सभी के कल्याण का भाव दृष्टिगत होता है, अम्न की चाहत दिखाई देती है। इनकी ग़ज़लें आज के समय का चित्रांकन करती हैं। यानी इनके लेखन में वे गुण हैं, जो उत्कृष्ट साहित्य की माँग होते हैं लेकिन अभी पबरा जी को अपनी ग़ज़लगोई पर और मेहनत की ज़रूरत है। एक रचनाकार समय के साथ धीरे-धीरे सीखता जाता है और इस तरह वह संपूर्णता की ओर बढ़ता है। पबरा जी को भी इस संपूर्णता के लिए अपना सफ़र जारी रखना चाहिए। अभी इनकी ग़ज़लों में कहीं-कहीं शिल्प ख़राब होता मिलता है तो कहीं क़ाफ़ियाबंदी दिखाई देती है। कहीं-कहीं कहन को तराश की ज़रूरत महसूस होती है।

ज़मीनी आदमी के जीवन/समाज के भले-बुरे को शब्दबद्ध करती ये ग़ज़लें अपने समय की अभिव्यक्ति है। यह संग्रह ग़ज़लकार की एक ईमानदार कोशिश है और इसीलिए यह पुस्तक सराहना के कुछ शब्दों की हक़दार है।




समीक्ष्य पुस्तक- वो अकेला
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- सुरेश पबरा 'आकाश'
प्रकाशन- पहले पहल प्रकाशन, भोपाल
पृष्ठ- 68
मूल्य- 200 रुपये (हार्डबाउंड)

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