Monday, January 24, 2022

जन सरोकार से जुड़ी हिन्दी ग़ज़लें: यह नदी ख़ामोश है


 

हिन्दी ग़ज़ल के कुछ नाम, जिनके सरोकार सीधे-सीधे आम आदमी से जुड़े हैं, उन नामों में एक महत्वपूर्ण नाम 'हरेराम समीप' भी है। पिछले कुछ सालों में जबसे मैं इनके परिचय में आया तबसे इन्हें हिन्दी ग़ज़ल के लिए लगातार पूरी लगन और समर्पण के साथ कार्यरत पाया है। कभी संपादन तो कभी आलोचनात्मक कार्यों के माध्यम से ये निरंतर हिन्दी ग़ज़ल को समृद्ध करते आ रहे हैं। इस सबके बीच इनका रचनात्मक लेखन भी ख़ूब सामने आता रहा है। वह चाहे दोहा संग्रहों के रूप में हों, ग़ज़ल संग्रहों अथवा कविता के रूप में।
समीप जी के अब तक कुल छः ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। आज हम जिस संग्रह की चर्चा करने जा रहे हैं, वह इनका सातवाँ ग़ज़ल सग्रह है। जयपुर के बोधि प्रकाशन से वर्ष 2021 में आयी इस पुस्तक में समीप जी की कुल एक सौ ग़ज़लें संग्रहीत हैं। इनके पिछले संग्रहों में से अंतिम दो संग्रह भी मेरे पढ़ने में आये हैं और अब तक मैंने इनकी जितनी ग़ज़लें पढ़ी हैं, उसके आधार पर यह कहना समीचीन समझता हूँ कि समीप जी अपनी विधा के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध रचनाकार हैं।
इनकी रचनाओं में अपने समय का सच आईने में दीखते प्रतिबिम्ब की तरह नज़र आता है। जन सरोकार इनकी लेखनी की नज़र में हर समय मौजूद रहते हैं। अपने दौर और उसमें हो रही हर तरह की हलचलों पर इनका ध्यान बराबर रहता है और समय-समय पर यही हलचलें इनके मन-सरोवर में लहरें पैदा कर जनवादी ग़ज़लधर्मिता को जन्म देती रही हैं।
प्रस्तुत संग्रह यह नदी ख़ामोश है' भी पूर्ववत जनवादिता की ग़ज़लों से परिपूर्ण नज़र आता है। हालाँकि इनके पिछले संग्रहों से मुझे यह संग्रह दो मायनों में थोड़ा अलग दिखाई पड़ता है। पहला यह कि इस संग्रह तक आकर इनकी ग़ज़लों का स्वर थोड़ा मधुर हुआ है, सरसता पैदा हुई है। पिछले संग्रहों तक यथार्थ को शेर करने में कुछ शोर-शराबा होता मिलता था लेकिन यहाँ वही यथार्थ संयंत होकर आया है। दूसरा, इनकी अब की ग़ज़लों में कथ्य का और अधिक विस्तार हुआ है। या यूँ कहूँ कि इन ग़ज़लों में जीवन का हर रंग देखने को मिला है।
कुछ महीनों पूर्व कोरोना महामारी की दूसरी लहर में जिस समय पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था, उसी समय अधिकतर अस्पतालों में खुली लूट मची हुई थी। इंसान इंसान नहीं, कमाई की वस्तु हुआ जा रहा था। इसके हम सभी प्रत्यक्ष गवाह हैं। ऐसा नहीं कि यह लूट केवल कोरोना महामारी के समय ही दिखी, हर समय आम दिनों का भी यही हाल है। देश के प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी के शिकार लगभग हम सभी हैं। ऐसे में रचनाकार की केवल ये दो पंक्तियाँ ही देखिए, कितना कुछ कह जाती हैं-
दवाख़ाने को दौलत की पड़ी है
हमारी साँसें खोती जा रही हैं


कुछ दिनों पहले राजस्थान के बहुत दूरस्थ जगह स्थित अपने गाँव जाना हुआ था। वहाँ कुछ दिन रहने के दौरान ऐसी घटनाएँ सुनने में आयीं कि नेशनल हाईवे पर स्थित दुकानों में लगातार छोटी-मोटी चोरियों की घटनाएँ हो रही हैं। अधिक जानकारी जुटाने पर पाया कि नौजवान लड़के हैं, जो स्मैक के आदी हो जाते हैं और फिर इस लत के चलते कुछेक रुपयों के लिए ऐसी चोरियाँ करते हैं। यह हाल केवल इस एक गाँव का नहीं; हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड के छोटे-छोटे क़स्बों-शहरों का भी है। इस गंभीर मुद्दे पर भले ही हमारा, हमारी सरकार का या प्रशासन का ध्यान न जाता हो, शायर का ध्यान ज़रूर गया है। चिंतन को विवश करता समीप जी का यह शेर देखिए-
कबाड़ बीनते बच्चों की ज़िंदगी देखो
कबाड़ बेच के वो फिर चरस खरीदेंगे


पिछले कुछ समय से हमारे देश में अनेक उपक्रमों के बेचे जाने की ख़बरें आती रही हैं। वह कोई बैंक हो, एल आई सी हो या एयरलाइन्स सब बिकाऊ हो चला है। रचनाकार हम सबकी ही तरह अपने देश को एक दुकान में बदलते देख आहत होता है और यह शेर कह जाता है-
सबकुछ बिकाऊ हो गया है आजकल यहाँ
तब्दील हो गया है वतन इक दुकान में

इधर दिनोंदिन विज्ञान प्रगति कर रहा है और उधर मानव-मन से संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं। दुनिया के सभी देश चन्द्रमा, मंगल, अंतरिक्ष आदि पर अधिकार जमाने की फ़िराक में हैं और लगातार ऐसे एक्सपेरिमेंट किये जाते हैं कि जिसके ज़रिए वे इन सब पर हावी हो सकें लेकिन दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग तथा संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी के अस्तित्व पर आफ़त आयी पड़ी है। इस सच्चाई को अपनी ग़ज़ल में शेर करते हुए ग़ज़लकार कहता है कि-
क़ब्ज़े की जंग चल रही है आसमान पर
आई हैं मुश्किलें यहाँ धरती की जान पर

वहीं संवेदनाओं से रिक्त होते जा रहे मानव के लिए रचनाकार चिंतित होते हुए विचारता है कि-
कहाँ से हम गुज़रते जा रहे हैं
सभी एह्सास मरते जा रहे हैं

ये कुछ ऐसे शेर हैं, जो कहीं न कहीं हमारी भी भावनाएँ, हमारी भी उथल-पुथल अपने भीतर संभाले हुए हैं। हमारे जीवन के और हमारे समय के वर्तमान हालात  जिस छटपटाहट का अनुभव कराते हुए गुज़र रहे हैं, उसमें आज हर चिंतनशील व संवेदनशील व्यक्ति के भाव कुछ इसी तरह सुलगते तवे पर रखे हैं। यहाँ ऐसे मुश्किल दौर में बहुत कम लोग हैं, जो कुछ बोल पा रहे हैं और उन कम में भी बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो प्रश्न कर पा रहे हैं। आज के दौर में प्रश्न कर पाने वालों को तो बहादुर ही कहा जाना ठीक लगता है। प्रस्तुत संग्रह के रचनाकार भी उन बहादुरों में एक हैं, जो इस नफ़रत और घुटन के माहौल में हमारी तरह केवल दुखी या परेशान नहीं, निरंतर प्रश्नरत हैं-

आपका नारा है 'सबका साथ और सबका विकास'
है अगर यह साथ सबका इसमें यह 'सब' कौन है
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सबसे ज़्यादा आप मुखर थे वैचारिक चौपालों में
ऐसा क्या परिवर्तन आया, आज निरुत्तर बैठे हैं
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जो भूख है तो सब्र करो और चुप रहो
हाकिम के साथ-साथ चलो और चुप रहो

ऐसा नहीं कि इस संग्रह का रचनाकार केवल सत्ता और सरकार के ख़िलाफ़ मुखर है, उसी से सवाल करता है बल्कि वह अपने समाज और उसमें बसे हर ग़ैर ज़िम्मेदार व्यक्ति के रवैये से ना-ख़ुश है। ये हम ही हैं, जो अपने देश को, अपने समाज को इन ख़राब स्थितियों तक लाये हैं।

न सूरज ने बदले, न तारों ने बदले
ये मंज़र हमारे हमारों ने बदले
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जहाँ मिल-जुल के रहना है ज़रूरी
वहाँ अब बढ़ रही आपस की दूरी
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कुछ यहाँ भेदभाव से ख़ुश हैं
कुछ शहर के तनाव से ख़ुश हैं

हरेराम समीप जी की ग़ज़लें, ग़ज़ल के पारंपरिक ढर्रे पर चलती बिलकुल भी नहीं दिखतीं बल्कि इनकी ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़ल की अवधारणा को मज़बूत करती हैं।  इनकी ग़ज़लें भले ही क्लासिक का आभास न दें लेकिन ये अपने समय के जन सरोकारों को अपने शेरों के माध्यम से बा-ख़ूबी बयान करती हैं। यहाँ हमें इनकी ग़ज़लों में हिन्दी कविता वाला वह स्वभाव स्पष्ट दिखाई देता है, जो अपने शब्दों में समाज और अपने आसपास की उथल-पुथल को पाठक के सामने रखकर उसे हक़ीक़त का आभास कराता है और उसे सोचने पर विवश करता है। सीधे-सीधे यह कि इनकी ग़ज़लें अपने समय के ज़रूरी मुद्दों पर चिंतन करती हुई पाठक को विमर्श करने के लिए आमंत्रित करती हैं।
जब वे कहते हैं कि-
ज़ुल्म सहकर भी अगर वो आदमी ख़ामोश है
ये समझ लो इक दबा ज्वालामुखी ख़ामोश है

तो इन दो पंक्तियों में वे एक सच्चाई सामने रखते हैं, जो पाठक के ज़ेहन को किसी दलित व्यक्ति या एक प्रताड़ित नारी से होते हुए उन तमाम लोगों का अक्स बनाने पर विवश करते हैं, जो एक विस्फ़ोट के साथ जागे हैं। उनके जागने से समाज ने नयी करवट ली है। यह शेर यह नसीहत भी हमारे सामने रखता है कि किसी को भी ज़रूरत से ज़्यादा परेशान नहीं करना चाहिए अन्यथा परिणाम घातक होते हैं।
ख़्वाहिशें फिर ख़्वाहिशें फिर ख़्वाहिशें
आप गिर जाएँगे इतने भार से

इस शेर के माध्यम से समीप जी आज के भागमभाग समय में बहुत कम अवधि में बहुत ज़्यादा बटोर लेने की चाहत रखने वाले इंसान की इस फ़ितरत पर एक चुटकी लेते हुए उसे आगाह करते हैं कि ये 'अति' कहीं सर्वनाश न कर दे। इसके साथ ही यहाँ रचनाकार पाठक को यह समझाने का प्रयास करता है कि उससे पहले कि ख़्वाहिशें उसे खा जाएँ, वह सब्र करना भी सीख ले। इसी सीख को वह इस तरह शेर में व्यक्त करता है-
जहाँ संतोष है, परिवार ख़ुश है, प्यार है घर में
वहाँ थोड़ी कमाई में गुज़ारा ख़ूब चलता है

अपने समय की समस्याओं, परेशानियों तथा विसंगतियों को उकेर कर हमें सोचने के लिए उकसाता, हमारी समन्वयवादी प्रकृति तथा एकता की ताकत का एह्सास करवाकर हमें नफ़रत के ख़िलाफ़ खड़े होने को प्रेरित करता, शक्ति और व्यवस्था को अपनी ग़लतियों का आभास कराता-लताड़ता, आम जन से जुड़े सरोकारों वाली हिन्दी कविता को आगे बढ़ाता यह संग्रह निश्चित रूप से हिन्दी ग़ज़ल एवं पाठकों को समृद्ध करेगा, इसे पढ़कर यह विश्वास होता है।




समीक्ष्य संग्रह- यह नदी ख़ामोश है
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- हरेराम समीप
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण- प्रथम, 2021

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