इस समय की कविता में ग़ज़ल का आकर्षण लगभग हर रचनाकार को अपनी ओर खींच रहा है। ग़ज़ल एक ऐसी छांदस विधा है, जो अपने शायर को अपनी गिरफ़्त में लेकर उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए भावों का खुला आकाश देती है ताकि वह अपनी रचनाओं से हर ख़ास और आम के दिल को छू आये। ग़ज़ल के शेरों में सचमुच एक खिंचाव होता है, जो पाठक को भी बाँधता है।
झज्जर (हरियाणा) निवासी ग़ज़लकार मित्र सत्यवान सत्य जी भी ग़ज़ल में प्रेम में गिरफ़्तार हैं, जो स्कूली दिनों से लेखन का शौक़ रखते हैं। बीच में काफ़ी समय तक जीवन की जद्दोजहद में उलझकर लेखन रुका तो सही लेकिन परिस्थितियों के नियंत्रण में आते ही फिर यह शौक़ परवान चढ़ निकला। इस बार इंटरनेट एक मज़बूत सहारे के रूप में इन्हें मिला और नेट के ज़रिए इन्होंने अनेक उस्तादों और शायरों की संगत में अपने लेखन को ग़ज़ल की दुनिया में प्रवेश कराया।
कुछ समवेत संकलनों के बाद ग़ज़ल विधा की इनकी यह पहली पुस्तक है। 'अधूरी हसरतें' नामक इस संग्रह में संग्रहीत इनकी 101 ग़ज़लें रचनाकार का शुरुआती लेखन होने के बावजूद इनके भीतर छिपी प्रतिभा का साक्षात्कार करवाने में सक्षम हैं। आरम्भ के समय के हर ग़ज़लकार की तरह सत्यवान सत्य जी भी हालाँकि पारंपरिक ग़ज़ल लेखन एवं उर्दू भाषा के आकर्षण में बँधे दिखते हैं लेकिन कुछ शेर ऐसे मिलते हैं, जो इनके वास्तविक स्वभाव से परिचय करवाते हैं। यह एक ऐसे रचनाकार का स्वभाव है, जो हमारे आसपास घटित होते हर भले-बुरे के लिए चिंतित एवं सचेत है। इन शेरों में ये अपने समय की ज़रूरी अभिव्यक्ति देते हुए अपनी रचनाधर्मिता का दायित्व वहन करते हैं। इनके शेरों में कहीं-कहीं हिन्दी के शब्दों का भी बहुत सुंदर प्रयोग मिलता है।
कोरोना महामारी के दौरान जब सारा देश रुका हुआ था। भागती-दौड़ती दुनिया अचानक ठहर गयी थी। बाहर निकलना, मिलना-जुलना सब बंद था। ऐसे में पाबन्दियों के दिनों की एक वास्तविक अभिव्यक्ति देखिए, जो यह स्पष्ट करती है कि रचनात्मक लोग ऐसे बुरे दौर में भी किस तरह आज़ाद रहे-
दर भले ही ज़िंदगी के बंद हैं
पर ख़यालों से तो हम स्वच्छंद हैं
कोरोना-समय की बंदिशों पर ही लगभग झुंझलाहट भरा यह शेर, उस दौरान हर एक शख्स़ की भावनाएँ होकर सामने आता है। सच है, पाबंदियाँ भी एक हद तक झेली जा सकती है।
बला जाने ये कब उतरेगी सर से
निकलना हो गया मुश्किल ही घर से
इसी समय पर एक समझदारी भरी बात कहते हुए, एक बहुत अच्छी नसीहत देते हुए सत्यवान सत्य जी कहते हैं-
बचेंगे तो कहेंगे हाल यारो
अभी सर पर है अपने काल यारो
गुज़र कर लो जो कुछ रक्खा है घर में
उड़ाएँगे कभी फिर माल यारो
रचनाकार अपने जीवन से हासिल अनुभवों को ही मथकर अपनी रचनाओं का सृजन करता है। ये रचनाएँ एक सामान्य इंसान तथा पाठक को अपने जीवन में सजग रहने के लिए सचेत भी करती हैं और कुछ अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित भी करती है। यदि एक रचनाकार अपने समग्र लेखन के ज़रिए केवल एक इंसान को ही प्रभावित कर उसका जीवन बना सके तो यह उसकी उपलब्धि होगी। हमारे बीच भी ऐसे कई-कई लोग होंगे, जो कुछेक पंक्तियों से प्रोत्साहित हो, अपने लक्ष्य तक पहुँचे होंगे। सत्यवान जी की ग़ज़लों में भी अनुभव जनित कई शेर देखने को मिलते हैं। कुछ शेर देखिए-
हज़ारों आबले पैरों में बनकर फूट जाते हैं
मुसाफ़िर तब कहीं जाकर किसी मंज़िल से मिलता है
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यकीं ख़ुद पर अगर करता, मशक्कत जारी रखता तो
किसी इंसान के हाथों में फिर कासा नहीं होता
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ज़ुल्म के ये सिलसिले बस बर्फ के पर्वत-से हैं
बह चलेंगे सामने इनके अगर डट जाएगा
अनुभव जनित एक और शेर देखिए, जो जीवन का फ़लसफ़ा बहुत आसान-से, बातचीत के लहजे में समझाता है-
जीवन क्या है उससे पूछो
जो दुख से दो-चार हुआ है
ऐसे लोग, जो जीवन में किसी भी क्षेत्र में असहमति दर्ज नहीं करवा पाते और हर बात में हामी भरने वालों को उकसाते हुए उन्हें गुलाम की संज्ञा देते हुए अतिवाद का विरोध जताने के लिए प्रेरित करते हैं, अपने इस शेर के माध्यम से-
सिर्फ हामी सिर्फ हामी सिर्फ हामी
कब तलक बोलो करोगे यूँ गुलामी
चारों तरफ बढ़ते हुए आपसी वैमनस्य, अलगाव पर चिंतित होते हुए रचनाकार यह बताते हैं कि अगर इसी तरह हम एक-दूसरे से धर्म, जाति, भाषा आदि के नाम पर दूर होते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब धरती क्या, आसमान तक नफ़रतों से पट जाएगा। सीधे-सीधे रचनाकार यह कहना चाहते हैं कि आख़िर कब तक हम इस तरह लड़ते रहेंगे! इस नफ़रत का अंत कब होगा!
आदमी से आदमी गर इस तरह कट जाएगा
नफ़रतों की धूल से फिर यह फ़लक पट जाएगा
आये दिन हम देखते हैं कि हमारे देश में प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं के समय जब आम इंसान अपनी जान बचाने के लिए संघर्षरत होता है। ऐसे में भी हमारे देश के राजनेता तथा अन्य कुटिल लोग अपनी राजनीति चमकाने में लगे होते हैं। ऐसी स्थिति पर दुखी होकर एक संवेदनशील रचनाकार इससे अधिक भला क्या कह सकता है-
जो मुसीबत में सियासत कर रहा है
वो यक़ीनन होगा आदमखोर कोई
उपरोक्त संग्रह की कई रचनाएँ अपनी भाषा, शैली तथा वर्ण्य विषय के आधार पर हिन्दी की जन सरोकार की कविता का आभास कराती है। लेकिन अधिकतर रचनाएँ ग़ज़ल की पारंपरिक रचनाओं से प्रभावित दिखती है या अभ्यास के उद्देश्य से कही गयी रचनाएँ दिखती हैं। मुझे यह विश्वास है कि रचनाकार का जन सरोकार से गहरा नाता है और वही उन्हें आम बोलचाल की भाषा की प्रभावशाली ग़ज़लें लिखने के लिए प्रेरित करता है। यदि रचनाकार हमारे यहाँ की कविता की परंपरा का कुछ अध्ययन कर सकें तो सार्थक लेखन में अच्छा स्थान बना सकते हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- अधूरी हसरतें
रचनाकार- सत्यवान सत्य
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशक- जिज्ञासा प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद
संस्करण- प्रथम
मूल्य- 200 रुपये
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