Tuesday, March 29, 2022

जीवन जीने का सलीक़ा सिखाता संग्रह: काँच के रिश्ते



'गागर में सागर भरना' उक्ति का एक सटीक उदाहरण है- दोहा लिखना। इस विधा में केवल दो पंक्तियों में अपनी बात को इस तरह रखना होता है कि भाव पूरी तरह प्रकट हो जाए और पढ़ने वाला वाह भी कर उठे। दोहा हिन्दी साहित्य का प्राचीनतम छन्द होने के साथ-साथ यह गौरव भी रखता है कि हिन्दी के कई महानतम कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति इसी विधा में की। इनमें कबीर, बिहारी, रहीम और तुलसी जैसे प्रतिष्ठित नाम शामिल हैं।

अचरज होता है कि लगभग तेरह सौ साल लम्बी यात्रा में यह छन्द कभी भी अपनी आभा नहीं खोता बल्कि लगातार परिष्कृत होता रहता है। आधुनिक समय में भी इस विधा के प्रति रचनाकारों की आसक्ति बिलकुल भी कम हुई नहीं दिखती। वर्तमान समय में भी हिन्दी के बहुत सारे कवि-कवयित्रियाँ इस विधा में उल्लेखनीय सृजन कर रहे हैं।

शकुन्तला अग्रवाल 'शकुन' उन्हीं रचनाकारों में शामिल एक नाम हैं। शकुन जी के आधुनिक स्वभाव के दोहे अपने भीतर अनेक महत्वपूर्ण विषय समेटे हुए हैं। विषयों की व्यापकता के साथ-साथ इनके दोहों का शिल्प भी बहुत सुगढ़ मिलता है तथा ये अपने दोहों में प्रयोगात्मक होती हुई भी दिखती हैं। इनकी दोहा विधा की रचनाओं में भक्ति भाव, सामयिकता, सामाजिक अलगाव, घटती संवेदनशीलता, परिवार और रिश्तों का बिखराव, मूल्यों का अवमूल्यन, प्रेम भाव का विघटन आदि अनेक ज़रूरी बिंदुओं पर विमर्श देखा जा सकता है। पुस्तक 'काँच के रिश्ते' इनका दूसरा दोहा संग्रह है। अपने इस संग्रह में 700 दोहों को लेकर शकुन जी साहित्यागार, जयपुर के माध्यम से प्रस्तुत हुई हैं। इस पुस्तक में विविध दोहों के साथ दोहों में सरस्वती वन्दना, गुरु की महिमा, दोहों का विधान, सिंहावलोकित दोहे, दुमदार दोहे तथा ड्योढ़ा दोहे सम्मिलित हैं।

पुस्तक में जगह-जगह भक्तिपरक दोहे देखे जा सकते हैं। ये दोहे रचनाकार के धार्मिक स्वभाव का उद्घाटन करते हुए उनके भगवान शिव का आराधक होने की पुष्टि करते हैं। अपनी इन भक्तिपरक रचनाओं में रचनाकार कहीं अपने आराधक के नाम स्मरण को ही उसके धाम की प्राप्ति का साधन बतलाती हैं तो कहीं सत्संग को सुखमय जीवन का आधार कहती हैं। कहीं वे परम-पिता शिव को तारणहार बतलाते हुए भवसागर को पार करने का सत्य समझाती हैं तो कहीं वे मोह त्यागने पर अपने ईष्ट द्वारा टोह लिए जाने का विश्वास दिलाती हैं।

पापों की गठरी लिये, बैठी तेरे द्वार।
तेरी मर्जी साँवरे, दुख दे चाहे प्यार।।
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अपनी किस्मत को कभी, मत देना तू दोष।
दाता ने जितना दिया, कर उसमें संतोष।।

नारी को हमारे भारतीय समाज में सदियों से घर जोड़ने वाली एक शक्ति के रूप में सम्मान दिया जाता रहा है। परिवार, समाज और यहाँ तक कि पुरुष को भी नारियों द्वारा ही व्यवस्थित रखे जाने का सत्य सर्वविदित है। ऐसे में वर्तमान समय में परिवारों में टूटते रिश्ते, घटता विश्वास, गिरते मूल्य परिवार को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाली नारी को सर्वाधिक दुःख देते होंगे, यह समझा जा सकता है। शकुन्तला जी के दोहों में भी कुछ इस तरह की अभिव्यक्तियाँ मिलती हैं, जो परिवारिक टूटन का दृश्य सामने रखती हैं। इस टूटन के लिए वे स्वार्थ भावना को ज़िम्मेदार ठहराती हैं।

धागे उलझे स्वार्थ के, माँग रहे अधिकार।
अपनी-अपनी सब करें, टूट गया परिवार।।
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निज हित के चलते यहाँ, होते रोज़ विवाद।
जली रोटियों-सा लगे, अब रिश्तों का स्वाद।।

बिखराव की इस समस्या का चित्रण करने के साथ-साथ वे आपसी प्रेम को इस समस्या का समाधान भी बतलाती हैं और आपसी प्रेम की महत्ता उजागर करते दोहों का भरपूर सृजन भी करती हैं। सही भी है, जहाँ प्रेम उपस्थित होता है, वहाँ स्वार्थ, अविश्वास, ईर्ष्या तथा ऐसे ही सभी विभाजक कारक स्वत: ही नदारद हो जाते हैं।

जीवन पतझड़ बन गया, खोई मधुर बयार।
फूटेंगी नव कोंपलें, तनिक लुटाओ प्यार।।
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प्रेम अँकुरित जहाँ हुआ, हार गया है वैर।
पल में अपने बन गये, लगते थे जो ग़ैर।।

हमारे समय में रचे जा रहे दोहों में समकालीनता एक महत्वपूर्ण तत्व है। समकाल की ज़रूरी हलचलों और सरोकारों को अपने दोहों में पिरोकर आज के दोहाकार अपने समय की सटीक अभिव्यक्ति कर रहे हैं। शकुन्तला जी के दोहों में भी वर्तमान की अनेक ज्वलन्त समस्याएँ, अहम मुद्दे कई ज़रूरी विमर्श करते देखे जा सकते हैं।

देश में लगातार बढ़ते जा रहे भ्रष्टाचार पर चिन्ता व्यक्त करते हुए वे यह सच प्रस्तुत करती हैं कि इस दानव की वजह से हमारे यहाँ योग्य व्यक्ति को उसकी जगह न मिलकर उस पर पहुँच वाले अयोग्य लोगों का क़ब्ज़ा होता जा रहा है। यह दुःखद स्थिति है। और जब यह भ्रष्टाचार राजनीति में शामिल हो जाता है तब तो स्थिति और भयावह हो जाती है।

राजनीति में बढ़ रहा, जब से भ्रष्टाचार।
मूरख को कुर्सी मिली, ज्ञानी पहरेदार।।

इस तरह का एक और दोहा रचकर वे स्पष्ट करती हैं कि यह ऐसा ख़राब समय है कि जिसमें झूठों और मक्कारों का बोलबाला है। सच्चे लोग ऐसे समय में भयभीत हुए रहते हैं और झूठे लोग साम-दाम के रास्ते लाभ उठाते रहते हैं।

सिक्का झूठों का चले, झूठों का ही ज्ञान।
कलियुग का दस्तूर है, झूठा पाता मान।।

शकुन्तला जी अपने आधुनिक भावबोध के दोहों में इस समय के ज़रूरी विषय पर्यावरण के प्रति भी अपनी चिन्ता प्रकट करती दिखती हैं। विकास के नाम पर लगातार किये जा रहे पर्यावरणीय विनाश के प्रति आगाह करते हुए वे मार्मिकता से अपनी बात पाठकों तक पहुँचाती हैं।

निशि-दिन जंगल चढ़ रहे, हैं उन्नति पर भेंट।
पशु-पक्षी कैसे भरें, बोलो अपना पेट।।
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नित उन्नति के नाम पर, तरुवर लगते दाँव।
ढूँढे भी मिलती नहीं, अब पीपल की छाँव।।

ज़ाहिर-सी बात है कि एक सामान्य व्यक्ति वह सब नहीं देख पाता, जो एक दूरदृष्टा और विशेष प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति देख लेता है। ऐसे में समाज और देश की समस्याओं को समझना और उन्हें अपनी रचनाओं में उजागर कर पाठकों को सचेत करना एक साहित्यकार का धर्म होता है। शकुन्तला जी भी अपने दोहों में जगह-जगह अपने पाठकों को सजग करती दिखती हैं।

समय फिसलता हाथ से, ज्यों फिसले है रेत।
पछताएगा बाद में, चेत सके तो चेत।।
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चहुँ-दिश लूट-खसोट है, चौकस रहना मीत।
अपने ही, विश्वास की, तोड़ रहे हैं भीत।।

आशा एक इंसान का बहुत बड़ा सम्बल है। उम्र और समय के हर दौर में आशा ही है, जो एक हताश मन को थामे रहती है। ख़राब समय में तो यह बहुत अच्छा मार्गदर्शक बन जाती है, जो क़दम-क़दम पर इंसान को सम्भाले रखती है और हौसला देती रहती है कि बस! बहुत जल्द सुख या सफलता मिलेगी, थोड़ी और हिम्मत रख ले। कई बार कविता की कुछ पंक्तियाँ ही एक निराश व्यक्ति के लिए बहुत बड़ा सम्बल बन जाती हैं। ऐसी ऊर्जावान रचनाएँ हर दौर की ज़रूरत रहेंगी। प्रस्तुत संग्रह में भी कुछ आशा जगाते हुए दोहे मिलते हैं, जो एक हारे का सहारा बनने के लिए पूरी तरह समर्थ दिखते हैं।

लड़ जाती है मौत से, जब जीने की चाह।
मुश्किल पथ में भी हमें, मिल जाती है राह।।
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फूल खिलाने की रखी, जिसने मन में चाह।
शूल भरी चाहे डगर, करता कब परवाह?

संग्रह 'काँच के रिश्ते' आध्यात्मिक चेतना, परिवार और रिश्तों के प्रति हमारी निष्ठा, आपसी प्रेम और सामंजस्य की आवश्यकता, समाज और उससे जुड़े सरोकारों का अंकन करती एक सुंदर कृति है। पुस्तक में आदि से अन्त तक रचनाकार का अनुभव और उसका जीवन दर्शन पाठक को जीवन जीने का सलीक़ा सिखाता है।



समीक्ष्य कृति- काँच के रिश्ते
विधा- दोहा
रचनाकार- शकुन्तला अग्रवाल 'शकुन'
प्रकाशक- साहित्यागार जयपुर
संस्करण- प्रथम, 2020
पृष्ठ- एक सौ
मूल्य- 200 रुपये (सजिल्द)

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