Thursday, November 17, 2022

जीवन मर्म से पगी सशक्त कविताओं का संग्रह: अप्राप्य क्षितिज


कविता मनुष्य की आधारभूत प्रवृत्ति है
 डॉ० जयप्रकाश पण्ड्या 'ज्योतिपुंज' द्वारा प्रस्तुत कविता की यह परिभाषा 'जीवन को दार्शनिकता के अंदाज़ में विचारने' वाले कवि सुनील पण्ड्या जी के काव्य संग्रह अप्राप्य क्षितिज की भूमिका से उद्धृत है। अप्राप्य क्षितिज सुनील जी का नवप्रकाशित काव्य संग्रह है, जिसमें कुल 61 छंदमुक्त कविताएँ संगृहीत हैं। सुनील जी अपनी कविताओं में जीवन को दार्शनिक अंदाज़ में देखते पाये जाते हैं। दर्शन के साथ जब कवि की गहन सम्वेदना एवं अनुभव जुड़ते हैं तो उसका रंग अधिक गाढ़ा हो उठता है। सबसे पहले इनकी ये छोटी-छोटी उक्तियाँ देखिए, जो बेहद प्रभावी हैं-

"मैं वर्षों पहले लिखा गया छंद विहीन संवाद हूँ"
"प्रश्न पत्रों-सा है जीवन"
"आँख की बदनामी प्रतिष्ठित विज्ञपति है"
"मृत्यु कृतज्ञ साँस का पूर्णविराम है"

इनकी रचनाओं में गाँव-शहर, घर-परिवार-रिश्ते, खेत-किसान, नदियाँ-झरने, जीवन के सुलझे-अनसुलझे रहस्य, प्रेम और उसकी स्मृतियों की गूँज, प्रकृति तथा सृष्टि के साथ मानव का तादात्म्य यानी वे समस्त वस्तुएँ बिम्बित होती हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति के जीवन और रोज़मर्रा से जुडी हुई हैं। इन सबके बीच एक चीज़ जो उभर कर दिखाई देती है, वह यह कि एक कोई 'विशेष' इनके कहे-अनकहे में हर समय उपस्थित रहता है। महत्त्वपूर्ण यह कि ये उपस्थिति कवि के व्यक्तित्व को अपने आसपास के संसार से विलग नहीं करती बल्कि ख़ुद उसके आसपास कण-कण में समाहित हो जाती है।

तुम्हारा इंतज़ार मुझे/ बटुली में अन्न की/ सौंधी ख़ुशबू की तरह है
जिसकी महक/ रोम-रोम को पुलकित कर देती है
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तुम्हारी याद का मतलब/ परिंडे पर पानी पी रहा/ गौरेया का जोड़ा
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तुम्हीं हो/ मेरी विलुप्त हुई/ लहर की मानिंद
जिसमें घुल-मिलकर
इस जीवन की/ मैं संज्ञा बन जाता हूँ

प्रेम के जीवित रहने के सन्दर्भ में कवि का यह कवितांश भी देखिए, जो प्रेम के एक अलग रंग के साथ प्रस्तुत होता है-

वो रखती है/ रोज़ाना शाम का दीया/ मेरे हाथ से छूने के बाद
वो घर के मंदिर में/ घण्टी
मेरे स्पर्श के साथ/ पकड़कर बजाती है

बात सिर्फ काम की नहीं/ वरन
इस बहाने स्पर्श ज़िन्दा रहता है
प्रेम ज़िन्दा रहता है

सुनील पण्ड्या की कविताओं में इनके आसपास का परिवेश हर समय उपस्थित रहता है। ये अपनी सम्वेदनाओं को कविता करने के लिए एकान्त नहीं तलाशते बल्कि एकान्त इन्हें अपने परिवेश से और अधिक मजबूती के साथ जोड़ता है। इनके एकान्त में 'शुष्क खेत में पपड़ी बिछायी शाम', 'किसान के हल की नोंक', 'गेंहूँ की बालियाँ', 'पक्षियों का झुण्ड', 'माँ-बाप की आँखों में घर चलाने का हिसाब-किताब', 'नीम के पेड़ के तले बस का इंतज़ार कर रहे यात्री', 'राशन की लम्बी लाइन में खड़े आदमी', 'शादी की शहनाई', 'लोहार की भट्टी से निकली चिंगारी' जैसी आम जीवन से जुड़ी न जाने कितनी क्रियाएँ-संज्ञाएँ कविताओं की शक्ल धारण करती हैं। वे कहते भी हैं-

कल्पनाओं को मैं/ सहेजकर रखना चाहता हूँ
इन्द्रधनुषी इच्छाओं की तरह
ताकि कल्पनाओं में/ शब्दों को भरकर
जीवन के आकाश के ख़ालीपन में
संवाद भर सकूँ

प्रकृति इनकी सम्वेदनाओं में स्वत: स्फुरित होती है। जिस तरह रोटी सेंकने के क्रम में अग्नि से निकला ताप सर्द मौसम को अनायास एक सुखद गर्माहट से भर देता है, कुछ वैसे ही सुनील जी के सृजन में प्रकृति अनायास ही उपस्थित होकर पाठक मन को उद्वेलित करती दिखती है। विलियम हैज़लिट कहते हैं- "हम प्रकृति को अपनी आँखों से नहीं, बल्कि अपनी समझ और अपने दिल से देखते हैं", सुनील भी शायद ऐसा ही करते हैं-

पेड़ कभी कुछ बोलते नहीं/ जब भी कोई पक्षियों का झुण्ड
बैठता है डालियों पर/ कलरव करता है
तब उसे भी/ कुछ बतियाने की इच्छा हो जाती है

जब मादा पक्षी अपने/ घोंसले में अण्डे देती है
तब वो भी पालता है उन्हें
एक सृष्टि के रचयिता की तरह
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ये नदी/ आसमान/ बादल/ दरख़्त
बस इन्हीं के/ इर्दगिर्द मैं हूँ

प्रस्तुत काव्य संग्रह की भाषा सहज, सरल तथा हिन्दी की ग्राह्य शब्दावली लिए हुए है। हाँ, कहीं-कहीं ये ठेठ हिन्दी अथवा लोक प्रचलित देशज शब्द का प्रयोग कर सम्प्रेष्ण को अधिक प्रभावी तथा सशक्त बनाते दिखते हैं। रचनाओं में कई-कई जगह ताजे बिम्ब और प्रतीक भी देखने में आते हैं। इस काव्य संग्रह से गुज़रते हुए यह सहज ही जान पड़ता है कि रचनाकार का अध्ययन एवं अभ्यास निरन्तर बना हुआ है। ये अध्ययन के माध्यम से अपने आपको तथा अपने सृजन को लगातार संवर्धित करते चलते हैं।

जीवन के/ इस दौर में
'संवेदना-यात्रा' पर/ निकले आँसू
अपने ही हमशक्ल/ पानी पर नाराज़ हैं
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ज़िंदगी/ अपनी ही फूँकनी को तरह-तरह से
फूँक-फूँक कर/ धुआँ करती लकड़ियों में
नयी चिंगारी भर देती है

कवि का प्रथम संग्रह होने के उपरान्त भी इसकी कविताएँ जीवन मर्म से पगी सशक्त रचनाएँ बनकर पाठक मन पर प्रभाव छोड़ने में सफल होती हैं। आशा है रचनाकार सुनील पण्ड्या जी अपनी कविताओं में जीवन सत्य और जीवन सत्व का उद्घाटन करते रहेंगे तथा अपने कवि को और समृद्ध बनाते रहेंगे। कविता के मर्म को समझाते इनके ही एक कथन के साथ इनके लिए मगलकामनाएँ-

कविता प्रेम और संन्यास की सन्धि नहीं
वरन् मर्म को अवतरित करने का
सशक्त माध्यम है




समीक्ष्य पुस्तक- अप्राप्य क्षितिज
विधा- कविता
रचनाकार- सुनील पण्ड्या
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण- प्रथम 2022
मूल्य- 200 रुपये (हार्ड कवर)

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