Friday, December 2, 2022

समाज की हलचलों एवं आम आदमी की परेशानी पर बात करता संग्रह: ज़ेह्न में कुछ शेर थे



ज़ेह्न में कुछ शेर थे हिंदुस्तानी ज़ुबान के युवा शायर अवधेश प्रताप सिंह 'संदल' का पहला ग़ज़ल संग्रह है। यह वर्ष 2021 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होकर आया है। अवधेश 'संदल' के ग़ज़लकार रूप से कुछ 4-5 साल पहले ग़ज़ल एप पर काम करते समय अवगत हुआ था। संभवतः उसी समय उनसे पहली बार परिचय भी हुआ होगा। उसके बाद लम्बे अरसे तक वे निजी जीवन की आपाधापी में व्यस्त रहे और अब इस ग़ज़ल संग्रह के साथ प्रस्तुत हैं। अवधेश 'संदल'; डॉ. गजाधर सागर के शिष्य और दाग़ परम्परा के शायर हैं। ग़ज़ल के अलावा इनकी व्यंग्य रचनाएँ भी पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं।

प्रस्तुत संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रने पर पाया कि इनकी ग़ज़लें परम्परा और आधुनिकता के बीच का सेतु बनकर उभरती हैं। जहाँ कहन और भाषा पारम्परिक ग़ज़लों का प्रतिनित्व करती हैं, वहीं इनकी ग़ज़लों का कथ्य इन्हें आधुनिकता का वाहक रचनाकार घोषित करता है। ग़ज़ल की सॉफ्टनेस को बनाए रखते हुए ये अपने ख़ूबसूरत शेर बुनने का प्रयास करते दिखते हैं।

इनका ग़ज़लकार समकालीन यथार्थ से पूर्णत: अवगत जान पड़ता है। हमारे समाज में उपस्थित विभिन्न चुनौतियाँ, विसंगतियाँ इनके शेरों में ढलकर पाठक से रूबरू होती दिखती हैं। उर्दू ग़ज़ल के शृंगार तथा दर्शन के घेरे से बाहर आकर वे समाज की हलचलों एवं आम आदमी की परेशानी पर भी बात करते हैं। अलहदा कहन, ग़ज़ल की नज़ाकत का रखरखाव और समकालीनता का संगम इनकी ग़ज़लों में दृष्टिगोचर होता है।

वर्तमान में इंसानी व्यस्तता और समय की क़िल्लत यहाँ तक बढ़ चुकी है कि उसके लिए अपने बहुत नज़दीक के लोगों के लिए भी वक़्त नहीं है। गाँव-मोहल्ले की हलचल और खैर-ख़बर का तो दौर कब का ही बीत चुका। आज तो हालात यह हैं कि कॉलोनियों और फ्लैटों में अपने डिब्बेनुमा घरों में सिमटा आदमी पड़ौस के क्रियाकलापों से भी अवगत नहीं हो पाता। ग़ज़लकार अवधेश 'संदल' के शब्दों में आज अगर कोई व्यक्ति अपने पड़ौसी के नाम से परिचित भी है तो यह बड़ी बात है-

किसे फ़ुर्सत है इस मसरुफ़ियत के दौर में 'संदल'
ग़नीमत है पड़ौसी को अगर पहचानते हैं हम

इन दिनों का माहौल यह है कि सिनेमा, साहित्य, भाषा हर जगह नंगापन हावी होता जा रहा है। मर्यादा एक शब्द ही नहीं, सीमा-रेखा है; हर उस अति के लिए जिससे आसपास का परिवेश ख़राब होने का ख़तरा हो। आज आप टीवी शोज़ देखें या वेब सिरीज, अपना आसपास देखें या साहित्यिक रचनाएँ; आपको हर कहीं मर्यादा का उल्लंघन होता मिलेगा। ऐसे में यह शेर अपने समय का अक्स बनकर उभरता है-

जो परदे में रखा जाता था अब तक
वो परदे पे दिखाया जा रहा है

अपने दौर तथा देशकाल की चिंता एक रचनाकार को होना लाज़िमी है। जब तक साहित्यकार अपने लेखन के ज़रिये विमर्श करता हुआ नहीं दिखाई पड़ेगा तब तक उसका लेखन मुख्यधारा से बाहर ही घूमता रहेगा। मुख्यधारा की परिधि के भीतर प्रवेश करने के लिए उसे अपने समकाल को जीना पड़ेगा, उससे टकराना पड़ेगा। अवधेश 'संदल' के लेखन में यह टकराव आरम्भिक अवस्था में देखने को मिलता है। कुछ शेर द्रष्टव्य है-

किसी-किसी को मयस्सर नहीं है दाना भी
पड़ा-पड़ा ही कहीं पर अनाज सड़ता है

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आदमी क़ाबू में रहता है अगर वो हो अकेला
भीड़ में हर शख्स़ बे-क़ाबू दिखाई दे रहा है

इनकी ग़ज़लों में आम आदमी का संघर्ष भी बराबर दिखाई देता है। राजनेताओं के वादों से छला गया वोटर हो, चाहे सुविधाओं की चाहत संजोये मजदूर या घर के तमाम काम-काज निपटाने के बाद फटकार सुनती हुई स्त्री; इनकी ग़ज़लों में सामान्य पात्र भी जगह पाते हैं। कहने का आशय यह कि अवधेश 'संदल' का ग़ज़लकार समाज के सामान्य व्यक्ति के लिए भी चिंतित होता है-

राह संसद की हमारे झोंपड़ों से दूर है
किस तरह जाएँ बताने हम हमारी खैरियत
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कोई एक ऐसा तरीक़ा तो निकाला जाये
झोंपड़ों तक भी ग़रीबों के उजाला जाये

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अजब औरत है कुछ कहती नहीं है
कहाँ किसने उसे कितना सताया

हमारे समाज में इस समय में पिछले कुछ 30-40 सालों की तुलना में बहुत कुछ बदल चुका है। यह बदलाव चाहे तकनीक के स्तर पर हों, दिनचर्या के स्तर पर या भाषा के स्तर पर, बहुत कुछ पुराना छूट-सा गया है और नया निरंतर जुड़ता जा रहा है। ऐसे उथल-पुथल के समय में विकास और तरक्की के साथ-साथ संवेदना तथा मूल्यों ह्रास परेशान करने वाला है। मशीनी होते जा रहे इंसान में जितनी संवेदनशीलता बची रह गयी है, वह हताश करने वाली है। परिवार तथा विवाह संस्था का विघटन, संबंधों का बिखराव, बुज़ुर्गों की उपेक्षा तथा युवा पीढ़ी का ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया भविष्य के अच्छे संकेत नहीं देता। इस सब पर ग़ज़लकार अवधेश 'संदल' भी नज़र बनाए हुए हैं और बहुत सख़्त लहजे में ये हमें आगाह करते हैं-

इस कदर संदल ज़माने को है दौलत का नशा
अब इसे अपना-पराया कुछ नज़र आता नहीं

लगातार होते जा रहे इंसानियत के लोप के बारे में जब वे यह खरा-खरा शेर कहते हैं तो संस्कृत के एक श्लोक 'साहित्यसंगीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:।' की याद दिलाते हैं-

बिना इंसानियत के आदमी है जानवर जैसा
भले इंसान लगता हो वो चेहरे की बनावट से

इस मनुष्यता के ह्रास को देखते हुए वे दुनिया की तमाम बच्चियों को इस शेर के माध्यम से एक ज़रूरी सलाह देते हैं-

अब यकीं करना नहीं ऐ बेटियो! तुम
आदमी ये आदमी है कौन जाने

समाज की चिंता, मनुष्यता की चिंता, ख़राब होते परिवेश की चिंता, आम आदमी की चिंता उर्दू शायरी की परम्परा से होते हुए भी अवधेश 'संदल' की शायरी में इन सब सरोकारों का होना प्रभावित भी करता है और उर्दू की युवा पीढ़ी के शायरों के प्रति आश्वस्त भी।

इनकी ग़ज़लों में कहन का अलहदा अंदाज़ भी जगह-जगह देखने को मिलता है। समय की नब्ज़ पकड़कर अवधेश जी आज की बातचीत के लहजे को अपने मिसरों में रखकर शेर को अलग तरह का स्टाइल देते हुए दिखते हैं। ग़ज़ल जैसी लोकप्रिय विधा में कुछ अलग करने की कोशिश लगातार देखी भी जाती रही है और देखी भी जानी चाहिए। इसी से विधा का सतत विकास संभव है और ग़ज़लकार के कौशल का भी। अलग तरह की कहन के कुछ शेर देखें-

मेरे कहने पे कर यकीं पगली
क्यूँ किसी के कहे में लगती है

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यूँ न ख़तरों से खेलिए 'संदल'
जान है तो जहान है भैया

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या तो हम ही हो जाएँगे ठोकर खाकर चकनाचूर
या अपनी हिम्मत के आगे होगा पत्थर चकनाचूर

उम्दा ग़ज़लगोई से अगवत करवाता तथा रचनाकार के सरोकारों के प्रति आश्वस्त करता यह ग़ज़ल संग्रह निश्चित रूप से पठनीय है। आशा है ग़ज़लकार का यह पहला संग्रह उनकी लेखकीय यात्रा में एक उल्लेखनीय पड़ाव साबित होगा।



समीक्ष्य पुस्तक- ज़ेह्न में कुछ शेर थे
रचनाकार- अवधेश प्रताप सिंह 'संदल'
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2021
मूल्य- 250 रुपये (सजिल्द)

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