Monday, December 19, 2022

हिन्दी कविता और उर्दू ग़ज़ल के बीच का संतुलित सृजन: बिखरे हुए पर


 

हिन्दी की कवयित्री एवं लेखिका डॉ० कविता विकास ने पिछले कुछ सालों में ग़ज़ल लेखन में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। पिछले कुछ समय से बड़ी-छोटी अनेक पत्रिकाओं में इन्होंने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से उपस्थिति दर्ज करवायी है। इनका ग़ज़ल लेखन का सफ़र लगभग मेरी आँखों के सामने रहा है इसलिए यह कह सकता हूँ कि इन्होंने बहुत कम अरसे में न केवल ग़ज़ल की नब्ज़ को पकड़ा बल्कि इस मुश्किल विधा में अपनी लेखनी को बा-ख़ूबी साधा भी है।

इंडिया नेट्बुक्स प्राइवेट लिमिटेड से हाल में इनका पहला ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होकर आया है। बिखरे हुए पर नामक इस ग़ज़ल संग्रह की ख़ासियत यह है कि इसमें हिन्दी कविता और उर्दू ग़ज़ल के बीच का संतुलित सृजन मिलता है। कविता जी चूँकि छंदमुक्त कविता तथा आलेखों से होते हुए ग़ज़ल लेखन की तरफ आती हैं इसलिए इनके पास लेखन से सम्बंधित एक स्पष्ट नज़रिया पहले से विकसित रहा है। ग़ज़ल से जुड़कर वहाँ के ज़रूरी तत्त्वों को बरक़रार रखते हुए ये जब उसके साथ हिन्दी कविताई का सामंजस्य करती हैं तो इनकी ग़ज़ल में एक अलग रंग दिखता है। हालाँकि अभी यह शुरुआत भर है, इसलिए इनकी ग़ज़लगोई का यह अलहदा रंग आरम्भिक स्थिति में ही है।

कविता जैसी विधा से आते हुए वे कथ्य का विस्तार भी अपने साथ लेकर आती हैं। इस कारण इनके पास ग़ज़ल की परम्परा से इतर भी बहुत सारा कथ्य है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न समसामयिक विषयों पर, पर्यावरण और ग्रामीण परिवेश पर तथा प्रेम के उद्दात स्वरूप पर भी अनेक शेर मिलते हैं। इनकी ग़ज़लों में हिन्दी कविता का परिवेश; हिन्दी ग़ज़ल के विकास में महत्त्वपूर्ण अंशदान करता है। यहाँ हम देखेंगे कि किस तरह ग़ज़ल विधा का केवल प्रारूप लेते हुए उसमें हिन्दी कविता का कंटेंट रखा जाता है। ऐसा करते हुए ग़ज़ल की आत्मा को बचाए रखना बहुत आवश्यक होता है। कविता जी यह काम कुशलता से करती हैं-

वर्जनाएँ और केवल वर्जनाएँ लिख रही हूँ
बंदिशों की, एह्तियातों की कथाएँ लिख रही हूँ

सभ्यताओं के पतन का तुम भी तो इतिहास देखो
फिर न कहना काल्पनिक-सी मैं बलाएँ लिख रही हूँ
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निति नियम बेकार गये
मन साधा तो पार गये

प्रभु की याद तभी आयी
जब जीवन से हार गये
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गुलाब, चम्पा, पलाश, गेंदा महक रहे हैं, टहक रहे हैं
कहीं पे मोहन सँवर रहे हैं, कहीं पे राधा लजा रही है

इनकी ग़ज़लों में गाँव, घर, समाज, परिवार, पर्यावरण आदि जीवन के बहुत ज़रूरी भाग बड़ी सहजता से उपस्थित होते हैं। इस संग्रह में गाँव के परिवेश और पर्यावरण पर भी अच्छे शेर पढने में आये। ये शेर जहाँ एक तरफ प्रकृति और समाज के इन महत्त्वपूर्ण अवयवों की उपयोगिता समझाते हैं, वहीं इनसे जुड़े ज़रूरी विमर्श भी हमारे सामने उपस्थित करते हैं।

खेत, पर्वत, पेड़, झरने और समुंदर देखकर
रश्क होता है मुझे धरती के ज़ेवर देखकर
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झूमे-नाचे, शोर मचाये बादल को देखे जब आते
बैठ हवा के झूले पर लहराता जाए पत्ता-पत्ता
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खेत, मेघ, दरिया की बात अब पुरानी है
खोयी गाँव ने अस्मत, थम गयी रवानी है

अब न सजतीं चौपालें, पेड़ कट गये सारे
आम, नीम, पीपल की अब कहाँ निशानी है

महिला ग़ज़लकारों के लेखन में एक बात बहुत निराश करने वाली है कि अभी भी उनकी रचनाओं में समसामयिकता का अभाव पाया जाता है। यह बात मैं केवल हवा में नहीं कह रहा। पिछले 5-6 सालों में अध्ययन के दौरान यह पहलू मेरे सामने आया। महिला रचनाकारों की ग़ज़लों के कथ्य पर अगर गौर करें तो हम पाते हैं कि आधे से अधिक रचनाकार तो अभी भी 80-90 के दशक की शैली की ग़ज़लें कहकर ही संतुष्ट हैं। उनके पास अब भी वही फूल-पत्तियों, हवा-चिराग़, कलम-ख़त वाले सन्दर्भों के शेर ही अधिकता में मिलेंगे। हालाँकि यह स्थिति पुरुष ग़ज़लकारों की ग़ज़लों में भी मिलेगी लेकिन तुलनात्मक रूप से महिला रचनाकारों की ग़ज़लें कथ्य में अधिक पिछड़ापन लिए है। हाँ, पिछले कुछ दिनों से स्थिति में सुधार होता दिख रहा है। अब कुछ नयी रचनाकार बदलाव लेकर आ रही हैं। ग़ज़ल के कथ्य में यही बदलाव सीमित ही सही लेकिन कविता विकास जी के पास मिलता है। इनके कुछ सरोकार संपन्न समसामयिक शेर देखें-

आदमीयत भी आदमी में हो
आजकल बस इसी की किल्लत है

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मुझे संकल्प ऐसा दो, कभी सच से न डिग पाऊँ
मिटा दूँ मन से रावण को, जिगर में राम हो जाए
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सोचने की जा रही हैं आदतें
जबसे गूगल ज्ञान का दाता हुआ
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आ गया ज़िंदगी में कंप्यूटर
ढंग जीने का आज बदला है

नारी विमर्श यूँ तो बीते दिनों की बात होता जा रहा है। अब तो हिन्दी के साहित्यिक परिवेश कई-कई नए और ज़रूरी विमर्श आ चुके हैं लेकिन ग़ज़ल में अब भी नारी विमर्श के शेरों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं हैं। शायद यथार्थ के खुरदुरेपन का डर हिन्दी ग़ज़लकारों को ऐसा करने से रोकता रहा हो। वर्तमान समय में ज़रूर यह विमर्श कुछ आगे बढ़ा है। यहाँ कविता विकास जी के पास न केवल नारी विमर्श के शेर मिलते हैं बल्कि नारी दृष्टिकोण के शेर भी ख़ूब पाये जाते हैं। नारी दृष्टिकोण के शेर कहने की ओर तो दो-एक महिला ग़ज़लकारों को छोड़कर किसी का ध्यान ही नहीं है। डॉ० कविता विकास का नारी विमर्श देखिए पहले-

जुडती हैं, टूटती हैं, निशाने पे हैं सदा
हर गाम इम्तिहान में रहती हैं औरतें
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हमें अपने लहू से सींचकर जो जग में लाती है
उसे ही लोग किस्मत की सदा मारी दिखाते हैं
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छूने निकल पड़ी है लो आसमान बिटिया
पग-पग पे दे रही है सौ इम्तिहान बिटिया
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परों में भर के हिम्मत आज बेटी
फ़लक छूने के क़ाबिल हो गयी है

समाज में महिलाओं की स्थिति-परिस्थिति को लेकर कविता जी के पास चिंताएँ भी हैं और गर्व भी। यही शायद हम सबका हाल हो।
अब इनके नारी दृष्टिकोण के कुछ शेर देखते हैं। सवाल उठता है कि नारी दृष्टिकोण, पुरुष दृष्टिकोण! क्या बला है यह? हर चीज़ का विभाजन! सवाल और हैरानी जायज़ है लेकिन आपने बाल साहित्य तो पढ़ा ही होगा, जी वह भी बाल दृष्टिकोण का ही साहित्य है। यानी जैसा एक मन दुनिया को देखता है, समझता है या उसके द्वारा बरता जाता है, उसी से तो वह दुनिया या समाज की इमेज बनाता है। अब बताइए कि क्या एक पुरुष और एक महिला हमारे समाज, हमारे आसपास के द्वारा एक ही तरह से 'ट्रीट' किये जाते हैं! न। महिला के अनेक भाव अलग होते हैं, महिला के प्रति अनेक भाव अलग होते हैं, उनकी समस्याएँ अलग होती हैं, उनसे निपटने का तरीका अलग होता है। यानी पूरा एक परिदृश्य अलग होता है। हाँ, संवेदनशील पुरुष रचनाकार उसे अनुभव कर लेता है, महसूस लेता है बल्कि अभिव्यक्त भी करता है लेकिन जिस शिद्दत के साथ एक महिला रचनाकार यह कर सकती है, पुरुष नहीं कर सकता। एक उदाहरण के तौर पर दलित अथवा आदिवासी साहित्य की तरह समझ सकते हैं इसे।

ज़िंदगी है हम औरतों की क्या
काम ही काम ही है किस्मत में
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दब रही वक़्त के मलबे में हैं यादें सारी
पर न भुला है मेरे ज़ेहन से पीहर मेरा
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न मैं हक़ ही चाहूँ, न हिस्सा कभी
मगर घर से बाबा विदाई न दे
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टूट जाती हूँ कभी तो कभी जुड़ जाती हूँ
ज़िंदगी जब भी मुसीबत लिए घर आती है

कविता विकास का ग़ज़ल लेखन बहुत तेज़ी से निखरता गया है, इसकी एक वजह शायद इनका बहुत विनम्रता के साथ सुझावों को स्वीकारते हुए लगातार मेहनत किये जाना रहा हो। इनके पास मैं शुरू से अन्य ग़ज़लकारों से 'बहुत कुछ अलग' देखता आया हूँ और अच्छी बात यह है कि इन्होंने उस कुछ अलग को सलीक़े से साधा व सँवारा है। इबके ग़ज़ल लेखन से हिन्दी ग़ज़ल को बहुत संभावनाएँ हैं। आशा है वे अपनी ग़ज़ल को लगातार सजगता और संजीदगी के साथ तराशती रहेंगी।



समीक्ष्य पुस्तक- बिखरे हुए पर
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशन- इंडिया नेट्बुक्स प्राइवेट लिमिटेड
संस्करण- प्रथम, 2022
मूल्य- 225/- (पेपर बेक)

6 comments:

  1. इतनी अच्छी समीक्षा के लिए बहुत शुक्रिया जी।

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    1. बहुत ही शानदार समीक्षा आप दोनों को बहुत बहुत बधाई

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  2. एक लाजवाब संग्रह की बेमिसाल समीक्षा।डॉ. कविता विकास जी के साथ-साथ के.पी अनमोल जी को भी अशेष बधाइयाँ व शुभकामनाएं।

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