मेरी माँ में बसी है हिन्दी की महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकार डॉ० भावना का चौथा प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। ग़ज़ल लेखन के अब तक के सफ़र में डॉ० भावना ने अपने आपको समकालीन ग़ज़ल के एक ज़रूरी नाम के रूप में स्थापित कर लिया है। अपने समसामयिक और मज़बूत कथ्य के कारण इनकी ग़ज़लें, अपने समय के अन्य ग़ज़लकारों से बहुत अलग दिखाई पड़ती हैं।
प्रस्तुत संग्रह में इनकी कुल 79 नयी ग़ज़लें संग्रहीत हैं। ये सभी ग़ज़लें डॉ० भावना के ग़ज़ल लेखन का अगला पड़ाव जान पड़ती हैं। संग्रह की समस्त ग़ज़लें हिन्दी परिवेश और आम जनजीवन की सहज अभिव्यक्ति हैं। इन ग़ज़लों में 'छत पर पानी पीने को अधीर चिड़िया', 'खेतों में गेंहू की कटाई', 'दफ़्तर के काम का बोझ', 'एल्बम में नानी की तस्वीर', 'दादा की खड़ाऊ, लाठी व छाता' जैसे हमारे सामान्य जीवन के दृश्य बिखरे पड़े हैं।
जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट हो जाता है कि इसमें माँ और उनकी स्मृतियों से जुड़ा कुछ ख़ास ज़रूर होगा, बहुत कुछ है भी लेकिन यह जुड़ाव केवल माँ तक नहीं, यहाँ स्मृतियाँ; स्मृतियों के विराट द्वीप की तरह उपस्थित हैं। स्मृतियाँ ही जीवन डायरी के वे भरे हुए पन्ने हैं, जिन्हें हम लौट-लौट कर पढ़ते हैं और चाहते हुए भी उनमें किसी तरह का न बदलाव कर सकते हैं, न कुछ जोड़-घटा सकते हैं।
बैठी हूँ जबसे इस बस में
आँखें यादों का गुच्छा हैं
____________
कबड्डी खेल आऊँ मैं भी जाकर
वही बचपन की टोली चाहिए थी
माँ के प्रति डॉ० भावना का प्रेम अब लगभग जग जाहिर है। पिछले कुछ समय में इनके जीवन में भी माँ और माँ से जुड़ी बहुत-सी चीज़ें जीवन की अन्य लगभग सभी चीज़ों से अधिक मौजूद रही हैं। पुस्तक में माँ के अह्सासों से जुड़ा यह एक शेर ही इतना ख़ास नज़र आता है कि मानस पटल पर अंकित हो उठता है-
मुसीबत में भी तनती जा रही हूँ
मैं अपनी माँ-सी बनती जा रही हूँ
यह शेर केवल डॉ० भावना का शेर नहीं है, हर उस बेटी की अभिव्यक्ति है, जो उम्र के एक विशेष पड़ाव पर आकर ख़ुद में अपनी माँ का अक्स देखने लगती है।
प्रस्तुत संग्रह की एक और विशिष्टता हमारा ध्यान खींचती है, वह है प्रेम की परिपक्व अभिव्यक्ति। हिन्दी कविता में प्रेम के केवल मांसलता या दैहिकता के नहीं बल्कि पौढ़ता के साथ अभिव्यक्त होने की समृद्ध परम्परा रही है। प्रेम की यही प्रौढ़ता हिन्दी की ग़ज़ल में भी उसी प्रभावशीलता के साथ उपस्थित होती है। यहाँ इस संग्रह में भी प्रेम का एक परिपक्व रूप शेरों में आकर पाठक का मन हरता है-
एक दुपहरी लंच की ख़ातिर
घर आओगे मन कहता है
____________
तुम्हें हरियालियों से प्रेम है तो
लो, अपना रंग धानी कर रही हूँ
____________
जीत जाऊँगी हारती बाज़ी
शर्त इतनी है सामने रहना
पुस्तक की समस्त ग़ज़लों में जन सरोकार भी जगह-जगह बिखरे पड़े हैं। यहाँ रचनाकार कभी वंचितों के पक्ष में खड़ा मिलता है तो कहीं विसंगतियों पर प्रहार करता नज़र आता है। अपनी जनपक्षधरता के कारण डॉ० भावना अपने समय की अन्य महिला ग़ज़लकारों से बहुत-बहुत आगे खड़ी मिलती हैं-
कभी सूखे हुए फूलों से उनका दर्द तो पूछो
हमेशा बात करते हो महकती रातरानी की
____________
खटालों को था मतलब दूध से ही
मगर गैया को बछिया चाहिए थी
____________
नज़र बैलेट पे जाकर ही टिकी है
बहस के केन्द्र में बस झोंपड़ी है
प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह की भाषा भारतीय आमजन में प्रचलित बोलचाल की भाषा है, जिसमें मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी हैं और हमारे आसपास के बिम्ब-रूपक भी। गूगल, रेप, चैनल, फोन, अन्तर्जाल, लव जिहाद, बैलेट जैसे नए और लोक प्रचलित शब्द भी हैं तथा सुरसा, बजरंगी, खड़ाऊं, बबुआ, खटाले, रधिया, चौपाइयाँ, बटखड़ा जैसी हिन्दी की पारम्परिक शब्दावली भी। कहा जा सकता है कि यह संग्रह अपने समय के लेखन, अपने समय की ग़ज़लों का संग्रह है।
समीक्ष्य कृति- मेरी माँ में बसी है
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- डॉ० भावना
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2022
बहुत अच्छी समीक्षा के लिए आपको बधाई।
ReplyDeleteडॉ भावना को इस सुंदर कृति के लिए अशेष शुभकामनाएं।वे एक विदुषी हैं। उन्होंने बहुत अच्छा लिखा है।
बहुत धन्यवाद आपका 🙏
Delete