Wednesday, May 17, 2023

अपने समय के विसंगत पर हल्ला बोलती हैं तज कर चुप्पी हल्ला बोल की ग़ज़लें


 

रवि खण्डेलवाल जी हिन्दी के काव्य जगत में बरसों से सक्रिय हैं। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में इनकी रचनाएँ बराबर छपती रही हैं। रेडियो पर भी आप गीत एवं नाटकों के माध्यम से लगातार प्रसारित होते रहे हैं। गीत, ग़ज़ल तथा छन्द मुक्त जैसी कविता की विभिन्न विधाओं पर आपका अधिकार रहा है। एक लम्बे अरसे तक लेखन करने और प्रकाशित-प्रसारित होते रहने के बाद आपके निजी संग्रह अब आने शुरू हुए हैं। कविता संग्रह 'उजास की एक किरण' के बाद इनका दूसरा संग्रह तज कर चुप्पी हल्ला बोल श्वेतवर्णा प्रकाशन से आया है। यह ग़ज़ल विधा का इनका पहला संग्रह है।

संग्रह से गुज़रने पर इनके लेखन के तीन तत्त्वों ने मुझे प्रभावित किया। वे हैं, वर्तमान यथार्थ की बेबाक अभिव्यक्ति, आशावाद तथा अलग तरह की कहन। इनकी ग़ज़लें अपने समकालीन समय के विसंगत को बहुत मज़बूती से अभिव्यक्त करती हैं। ऐसा करते हुए उनमें प्रतिरोध का स्वर बराबर बना रहता है। उल्लेखनीय बात यह है कि अपने समय की कड़वी सच्चाइयों से टकराता इनका रचनाकार ऐसा करते हुए कहीं भी कुण्ठित अथवा हताश नहीं होता। बल्कि वह जनमानस में लगातार आशावाद का संचार करता रहता है, उसे प्रेरित करता रहता है। शीर्षक का संग्रह भी काफ़ी हद तक मेरी इस बात का समर्थन करता है।

अपने समय के परिदृध्य पर ये लगातार नज़र बनाए रखते हैं और इस धुँधले परिदृध्य से निराश दिखाई देते हैं। इनकी निराशा वर्तमान व्यवस्था के छल-छद्म से भी है और आम आदमी की ऊटपटांग हरकतों से भी। रवि खण्डेलवाल जी के रचनाकार के पास भी अन्य संवेदनशील व्यक्ति की भांति वही संवेदनाएँ हैं, जो अपने देश-समाज में सुकून व संपन्नता देखना चाहती हैं। ये भी उन तमाम तत्त्वों से दुखी हैं, जो हमारी आपसी समरसता की भावना को ठेस पहुँचा रहे हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि ये निराशा, ये दुख इनकी ग़ज़लों में लगातार प्रश्न और प्रतिरोध बनकर शेरों में उतरता है-

बोलिए इन रहनुमाओं से तो इतना बोलिए
आदमी के दिल-दिमागों में ज़हर मत घोलिए

ये जो हिंसक वारदातें हो रही हैं हर तरफ
क्या वजह है, बात क्या है, राज़ क्या है, खोलिए

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प्यार, मुहब्बत, नफ़रत के पैमाने बदले हैं
दुश्मन संग-संग यारों के भी माने बदले हैं

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दहशत का ऐसा आलम, कोई भी कुछ न बोले
पूरी की पूरी बस्ती, लगता है बेज़ुबां है

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धर्म के यदि जात के परचम न होते
आदमी को आदमी से प्यार होता

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क्या नहीं जानते रोग से मुक्ति को
आप विष पी रहे हैं, दवाई नहीं

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सरहद के बाहर की हों या अंदर की घातें
रह-रह कर झकझोर रही भारत की बुनियादें

आशा और उम्मीद हर एक दौर में आदमी का एक बड़ा हथियार रहे हैं। हमने पत्थरों के बीच भी अंकुरण होते देखा है। हिन्दी के महान कवि रहीम ने भी समय आने पर काम होने की बात कह उम्मीद और धैर्य के साथ बने रहने की सलाह दी है। सच भी है कि जिसने धैर्य धारण कर लिया, उसने ख़ुद को पर्वत कर लिया यानी अब उसे मुश्किलों के कितने ही चक्रवात नहीं हिला पाएँगे। आशा, धैर्य और उम्मीद की सलाह हमें हमारे परिवेश में हर समय मिली है और शायद इसीलिए मिली है कि हम यह याद रखें कि हर अँधेरी रात के बाद सवेरा होता ही है। रवि खण्डेलवाल जी अपने समय के विसंगत से दुखी और निराश तो होते हैं लेकिन इसी उम्मीद के सहारे ख़ुद को और आम जनमानस को मायूस होने से बचाए रखते हैं। इसके साथ ही ये समस्याओं का हल बताते हुए उन पर हल्ला बोलने का एक ज़रूरी सुझाव भी देते हैं-

ये जो गूँगे दिख रहे हैं गुनगुनाएँगे ज़रूर
पंछियों को डाल पर स्वच्छन्द हो गाने तो दो

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मौन धारण कर नहीं कुछ भी तुझे मिल पाएगा
है अगरचे चाहिए हक़ रार कर, तकरार कर

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आप बढ़कर छीन लें मिल जाएँगे
बैठकर अधिकार पाना है कठिन

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सर झुकाकर ज़ुल्म को सहना नहीं है ज़िंदगी
ज़िंदगी के तौर बदलो और हल्ला बोल दो

कविता में अपनी बात रखने का अंदाज़ बहुत महत्त्वपूर्ण अंग होता है। ग़ज़ल में इसका और ज़्यादा महत्त्व है। हज़ारों-लाखों सृजकों के बीच अपनी बात कहने का ढंग ही एक रचनाकार को ख़ास बनाता है। रवि खण्डेलवाल जी के पास कहीं-कहीं अपनी विशिष्ट शैली के दर्शन होते हैं। इनके पास परंपरागत कहन के इतर अपना एक विशिष्ट अंदाज़ मिलता है। ये किसी भी संवेदना को शेर करते समय बात को घुमाने की बजाय सीधा और साफ़-साफ़ कहना पसंद करते हैं। लेकिन ऐसा ये अपने अंदाज़ में करते हैं और ऐसा करते हुए ये अन्य रचनाकारों से अलग खड़े होते हैं।

आइए ख़ुशियाँ मनाएँ
आँख ने आँसू जना है

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एक सूरज क्या ढल गया यारो
दिन का हुलिया बदल गया यारो

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तुम जिसे दुर्गंध का पर्याय कहते हो
हो रहे पैदा नगीने उस पसीने से

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सत्य को रस्ता दिखाया द्वार का दुत्कार कर
और सीने से लगाया झूठ को मनुहार कर

अपने दौर की विसंगतियों से टकराना, उनके कारणों की पहचान कर सवाल खड़े करना तथा समाज को उनसे सचेत करना रवि खण्डेलवाल जी की ग़ज़लों का हासिल है। इसके साथ ही अपने समकालीन जीवन पर नज़र बनाए रखना भी इनकी ग़ज़लों का सकारात्मक पक्ष है। ये ग़ज़ल में हिंदी भाषा की शब्दावली का भी अच्छा समावेश करने का प्रयास करते हैं। इनकी भाषा बोलचाल की ही भाषा है लेकिन उर्दूपन से मुक्त होती हुई। साथ ही ग़ज़ल के शिल्प विधान का भी ये अच्छी तरह ख़याल रखते हैं, उसे निभाते हैं।






समीक्ष्य पुस्तक- तज कर चुप्पी हल्ला बोल
रचनाकार- रवि खण्डेलवाल
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशन- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2023
मूल्य- 160 रुपये (पेपरबैक)

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