Friday, September 15, 2023

सहज-सरल कहन में अच्छी ग़ज़लें लिए है 'शरद की धूप'

 


 

 

शरद की धूप युवा ग़ज़लकार प्रवीण पारीक 'अंशु' का पहला प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। आप हरियाणा के सिरसा ज़िले के ऐलनाबाद क़स्बे के निवासी हैं। प्रवीण पारीक जी काफ़ी समय से ग़ज़ल लेखन में सक्रीय हैं। यह संग्रह हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित हुआ है।
प्रवीण पारीक का ग़ज़ल लेखन अभी आरंभिक स्थिति में है लेकिन यह आरम्भ अच्छा और सधा हुआ है। इनके ग़ज़ल लेखन में सहजता और सरलता है। विषयों की व्यापकता है। स्व भी है और सर्व भी। भाषा एवं परिवेश के आधार पर यह संग्रह हिंदी की ग़ज़लधर्मिता के बहुत नज़दीक है।

रचनाकार प्रवीण पारीक जी की ग़ज़लों में आशावादिता प्रभावित करती है। एक रचनाकार अपने समय और समाज को तमाम नकारात्मकताओं के बीच सकारात्मक ऊर्जा देता रहे, यह बहुत ज़रूरी है। इधर आज का आम आदमी राजनीति से लेकर अपने आसपास हर तरफ ऐसी अनेकानेक बातों से घिरा हुआ है कि हताशा से वो लगातार दो-चार होता रहता है। ऐसे में ज़रूरी है कि कोई उसकी आँखों के आगे छाती हुई निराशा की धुंध को हटाता रहे, उसे हौसला देता रहे, उसे कुछ कर गुज़रने के लिए बराबर प्रोत्साहित करता रहे। ग़ज़लकार प्रवीण पारीक अपने शेरों के ज़रिए यह काम करते हैं-

तुझे आगे बढ़ने से जो रोकता है
वो डर तेरा अपना बनाया हुआ है
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उसके सपने कब पूरे हो पाते हैं
जिसने अपने जीवन में आराम लिखा

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मुकद्दर का सहारा तो यहाँ नादान लेते हैं
वही कुछ कर गुज़रते हैं जो मन में ठान लेते हैं


प्रवीण पारीक कल्पना लोक में विचरने वाले रचनाकार न होकर अपने समय में मौजूद रहने वाले क़लमकार हैं। पाठकों को इनकी ग़ज़लों में वर्तमान जीवन का यथार्थ हमेशा दिखाई देता है। सत्ता की निरंकुशता, राजनीतिक छल-छद्म, नैतिक रूप से समाज का पतन, मूल्यों का ह्रास, मज़दूरवर्ग की विवशता जैसे महत्त्वपूर्ण विषय इनकी रचनाओं में आकर हमें लगातार सजग करते हैं। इनकी ग़ज़लों की यह एक बड़ी विशेषता है कि उनमें हमेशा एक सामान्य आदमी केंद्र में रहता है। दिए गये शेरों में अंतिम तीन शेर एक ग़ज़ल से हैं, जो पूरी ही ग़ज़ल एक मज़दूर के जीवन पर केंद्रित है। इस ग़ज़ल में हमें हमारे देश के एक साधारण आदमी के जीवन का अधिकतर संघर्ष दिखाई दे जाता है। इनकी रचनात्मकता का यह ज़मीनी जुड़ाव इन्हें प्रभावी रचनाकार बनाता है-

सरकारी फ़रमान निकलने वाला है
साँसों पर जी०एस०टी० लगने वाला है

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बड़े बाबू ने झट से पास कर दी 'लोन' की फ़ाइल
लगा था क्या, फ़क़त थोड़ी मिठाई, चाय की प्याली
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सच्चाई की जब भी गवाही देनी थी
जाने क्यूँ तब सबके मुँह पर ताले थे
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कहने को तो सब कहते हैं, नेकी कर दरिया में डाल
इतना भी अब कौन भला है, कहने भर की बातें हैं

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मुश्किल से दिखता हूँ इतना छोटा हूँ
महलों में जोड़े पत्थर का टुकड़ा हूँ

बोझा ढो कर कंधे टूटे हैं फिर भी
अपने अम्मा-बाबूजी का कंधा हूँ

पत्थर-चूना ढो कर क़िस्मत जोड़ी है
अपने बच्चों की रोटी का टुकड़ा हूँ


एक बहुत ज़रूरी विषय इनकी ग़ज़लों में अलग से उभर कर दिखाई देता है- सामाजिक सौहार्द की भावना। आज के साम्प्रदायिकता से घुटन की हद तक भरे हुए माहौल में एक रचनाकार के जितना सजग होने की ज़रूरत है, प्रवीण पारीक उतने ही सजग दिखते हैं। इनके यहाँ इंसान को इंसान से अलगाते तत्वों के प्रति चिंता और रोष दोनों है तो दूसरी तरफ़ आपस में उलझे हुए आम आदमी के अमानवीय व्यवहार के प्रति हैरानी भी है। ये अपनी ग़ज़लों में निरंतर हमें आगाह करते हैं कि इस आपसी तनाव के परिणाम कभी अच्छे नहीं हो सकते। इनकी चाह है कि समाज का हर तबका एक-दूसरे के लिए भाईचारे और सद्भाव की भावना से भरा हो, सुखी हो। देश और समाज एक हो, संपन्न हो।

ज़रूरत है तो बस इतनी चलो इंसान हो जाएँ
ज़माने ने बहुत कह-सुन लिए भगवान के किस्से


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चौखटें, दीवार, छत को छोड़ दें
तो कहो कितने बचे हैं घर यहाँ

पत्थरों ने शक्ल ली इंसान की
और इंसां हो गये पत्थर यहाँ

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काम जिसका है नफ़रतें बोना
राम क्या है, उसे ख़ुदा क्या है

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तू है नूरे-ख़ुदा, राम का अंश मैं
बेसबब फिर झगड़ने से क्या फ़ायदा


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कुछ नेकी, कुछ दीन-धरम-ईमान ज़रूरी है
जीवन की राहों में ये सामान ज़रूरी है

एह्सासों का शोख़ उजाला भीतर आने दो
दिल की दीवारों में रोशनदान ज़रूरी है


प्रवीण पारीक जी के पास अपने वर्तमान की यथार्थपरक अभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रेम एवं दर्शन जैसे विषय भी मिलते हैं। इनके पास व्यंग्य की तेज़ धार भी है और अनुभवप्रद संदेश भी। कुल मिलाकर इनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल वाली नरमी भी है और कविता वाली सरोकार संपन्नता भी।

जैसे अपनी बात की शुरुआत में ही मैंने कहा कि इनका ग़ज़ल लेखन अभी आरंभिक स्थिति में है तो ज़ाहिर है कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं, जिन पर अभी इन्हें काम करने की दरकार है। यह सच भी है कि कोई भी कितना भी बड़ा रचनाकार एक ही दिन में उस क़द तक नहीं पहुँचता। संपूर्णता की ओर हमेशा एक यात्रा जारी रहती है। इसी यात्रा के दौरान ही हमें अपना अवलोकन भी करना होता है और परिष्कार भी। प्रवीण जी को जिन बिंदुओं पर अभी काम की ज़रूरत है, उन्हें हम कुछ उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं-

जाने क्या-क्या मेरे अंदर
जज़्बातों का एक समुंदर


उपरोक्त मत्ले को देखें तो यहाँ क़ाफ़िया ख़राब हो रहा है। अंदर में तुकांत 'अंदर' तथा समुंदर में 'उंदर' है, जिसे ग़ज़ल में हमक़ाफ़िया स्वीकार नहीं किया गया। इस दोष से बचने के लिए 'अंदर' की जगह 'भीतर' शब्द इस्तेमाल किया जा सकता था।

तारों के बीच चंदा, यूँ गुनगुना रहा है
कलियों को जैसे भँवरा, नग़में सुना रहा है

ये पहाड़ी वादियों में कलकल-से बहते झरने
संतूर मीठी धुन में कोई बजा रहा है

इन शेरों में मत्ले को ग़ज़ल की लय पकड़ने के लिए दिया गया है। मत्ला पढ़ने के बाद अगले शेर के पहले मिस्रे में बिलकुल आरम्भ में लय ख़राब होती हुई मालूम होती है। यहाँ बह्र के हिसाब से 221 यानी मफ़ऊल रुक्न होना चाहिए जबकि 'ये पहाड़ी' 2122 यानी फ़ाइलातुन है। लय बनाए रखने के लिए इसे 'ये पहड़ी वादियों में' पढ़ना पड़ रहा है, जो संभव नहीं है।

अचानक आज ये कैसी नमी है इन हवाओं में
बता भी दे तुम्हारी आँख से आँसू बहा है क्या


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गर न बुलाया तो मत जाना आगे तेरी मर्ज़ी है
मेरा फ़र्ज़ तुम्हें समझाना, आगे तेरी मर्ज़ी है

वो चंचल मदमस्त निगाहें लाख बुलाएँ तुमको मगर
मेरी माने तो मत जाना, आगे तेरी मर्ज़ी है


ये कुछ ऐसे शेर हैं, जिनमें वचन संबंधी दोष आ गये हैं। 'तेरी' के साथ 'तुम्हें' का आना और 'तुम' के साथ 'माने' का आना यहाँ दोष पैदा कर रहे हैं। एक जगह 'या' तथा 'कि' दोनों आसपास आकर कहन ख़राब कर रहे हैं। मिस्रा यूँ है- 'कि या फिर आँख में तेरी कोई तिनका गिरा है क्या'।

हालाँकि अच्छी बात यह है कि पुस्तक की कुल 106 ग़ज़लों में इस तरह के दोष गिनती की कुछ जगहों पर ही है। फिर भी छांदस विधाओं में जितना एह्तियात बरता जाए उतना अच्छा। आशा है 'शरद की धूप' के रचनाकार प्रवीण पारीक 'अंशु' जी भविष्य में और बेह्तर ग़ज़लों के साथ ग़ज़ल परिदृश्य में बने रहेंगे। पुस्तक की छपाई और प्रूफ़ रीडिंग का काम भी अच्छा हुआ है।




समीक्ष्य पुस्तक- शरद की धूप
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- प्रवीण पारीक 'अंशु'
प्रकाशन- मोनिका प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ- 120
मूल्य- 400/- (सज़िल्द)

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