यदि साहित्य जीवन की व्याख्या है तो आलोचना उस व्याख्या की व्याख्या- डॉ. श्यामसुन्दर दास
Monday, October 2, 2023
कहन में पैनी धार लिए हैं चित्रांश खरे की ग़ज़लें
चित्रांश खरे पारम्परिक शायरी का एक नया नाम हैं। इनकी शायरी इश्क़ और इश्किया अहसासों की दुनिया के इर्द-गिर्द अपना आशियाना बनाती है। रिवायती और नज़ाकत भरे लहजे की इनकी शायरी में इनका कहन धारदार मालूम पड़ता है। यानी यह आभास होता है कि शुरुआती दौर से आगे निकलने के बाद जब यह शायर अपने आसपास और जीवन की जद्दोजहद देखना शुरू करेगा तो इसकी शायरी का रंग निखर कर आएगा। कुछ अलग करने, एक अलग मक़ाम तलाशने की छटपटाहट इनके पास देखी जा सकती है। यही छटपटाहट ही इनकी शायरी को एक अलग मेआर पर लेकर जाएगी।
चित्रांश की मौजूदा शायरी में इश्क़ का गाढ़ा रंग देखने को मिलता है। यह रंग वस्ल (मिलन) और हिज़्र (बिछड़न) दोनों पहलुओं का रंग है। इनकी शायरी में अपने मेहबूब को पाने की तड़प है तो उसे हासिल न कर पाने का मलाल भी है। उस पर बेइन्तिहा यकीन भी है और मजबूरियों का ख़याल भी है। उसकी ख़ातिर दुनिया से टकरा जाने का हौसला भी है तो ज़माने भर की उलझनों का अहसास भी है। यानी इनकी शायरी कशमकश की शायरी है।
अपना क़िस्सा भी दिवानों को सुनाया जाता
तुम अगर इश्क़ निभाते तो मज़ा आ जाता
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ये तसव्वुर ही मुहब्बत में कहाँ था मुझको
वो चला जाएगा धड़कन की रवानी लेकर
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तुम्हारे हाथ पर मेहँदी से मेरा नाम लिक्खा है
मुहब्बत का पता देने का ये अंदाज़ अच्छा है
इनकी ग़ज़लों में कहीं-कहीं इनका बात रखने का तरीक़ा बहुत प्रभावी हो उठता है। शब्दों को बरतने का हुनर इनके पास दिखाई देता है। यही हुनर इनकी कहन की धार को पैनी करता है। ये जानते हैं कि कहीं-कहीं लफ़्ज़ों से तलवार का काम भी निकाला जा सकता है-
लफ़्ज़ जब फूल से तलवार हो गये होंगे
और पहले से असरदार हो गये होंगे
इसी तरह धारदार कहन का एक यह शेर भी, जो व्यंग्यात्मक शैली में बात करता है-
मैं बयानों की हक़ीक़त से बहुत वाक़िफ़ हूँ
मुझको जुगनू के उजालों पे हँसी आती है
समाज और सामाजिकता से बहुत अधिक समय तक न इंसान अलग रह सकता है, न कविता। जैसे-जैसे रचनाकार दुनिया में अपने हिस्से के अनुभव बटोरता जाता है, वैसे-वैसे वह दार्शनिकता और यथार्थ से दो-चार होता जाता है। इसी का नतीजा होता है काव्य में समाज की उपस्थिति। चित्रांश की ग़ज़लों में जहाँ कहीं सामाजिक सरोकार देखे गये, वहाँ ये बहुत प्रभाव छोड़ते नज़र आये। यहाँ ये अपने पारम्परिक लहजे से बहुत अलग नज़र आते हैं।
हालत हमारे गाँव की अब तक ख़राब है
पढ़-लिख गये जो लोग तो शहरों में आ गये
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अब गुनाहगार को बरसों सज़ा नहीं मिलती
बेगुनाहों को अदालत बहुत सताती है
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ज़रा-सी फ़िक्र को तब्दील हम भी कर लेते
तो आज मुल्क की किस्मत संवर गयी होती
यह महत्त्वपूर्ण है कि इनकी ग़ज़लें ग़ज़लियत और ग़ज़ल की सॉफ्टनेस को बरक़रार रखे हुए हैं। सधे हुए अंदाज़ में ये प्रभावी सम्प्रेषण के साथ अपने शेर कहते हैं। कविता में सम्प्रेषण का विशेष महत्त्व होता है। इनकी ग़ज़लों की भाषा की बात करें तो हम पाते हैं कि उर्दू-हिन्दी मिश्रित शब्दावली होने के बावजूद ये न उर्दू के बहुत मुश्किल अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं, न हिन्दी के बहुत भारी शब्द। यानी ये जानते हैं कि शायरी आम जनमानस की आम बातचीत की भाषा में ही अपना असर छोडती है। शायद इसीलिए इनकी शायरी असर छोड़ती भी है।
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