Monday, October 2, 2023

अपने समय में रहते हुए कविता रचते हैं मनोज 'अह्सास'


 

मनोज 'अह्सास' संभावनाशील रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में ग़मों से बेकल आह है तो ख़ुशियों में मस्त वाह भी। स्व से जुड़ी अनुभूतियों का गान है तो समाज की पीड़ा का स्वर भी। ये अपने समय में रहते हुए कविता रचते हैं, जो विभिन्न सरोकारों से लैस है। कहन में भी कहीं-कहीं वे अलहदा होते नज़र आते हैं। आसपास के परिवेश के विभिन्न कथ्यों को अपनी शैली में अभिव्यक्त करने का गुण, एक रचनाकार को औरों से अलग खड़ा करता है और यह सामर्थ्य मनोज 'अह्सास' के पास है। जब वे आँखें तरेर कर अपने हक़ की बात करते हैं तो बदलाव की एक सम्भावना झलकती है-

मेरी भूखी निगाहों में शराफ़त ढूँढने वाले
तेरी सोने की थाली में मेरे हक़ के निवाले हैं


वे जब समाज में व्याप्त असमानता का ज़िक्र करते हैं तो तंज़ केवल हमारे सामाजिक ढर्रे तक सीमित नहीं रहता बल्कि उस सर्वशक्तिमान सत्ता तक जाता है, जो समग्र सृष्टि को संचालित करता है-

किसी के हाथ में चुभती है चाँदी
किसी के हाथ में चिमटा नहीं है

इस शेर में तुलना नहीं है, टीस है। यही टीस इस शेर की मज़बूती है।

इन्हें अपने पैरों के नीचे की ज़मीन का अह्सास है। ये बा-ख़ूबी जानते हैं कि वे जिस छत की छाँव तले महफूज़ हैं, उसका आधार क्या है। उस छत के एवज़ में किसने अपनी उम्र धूप के नाम कर दी है-

कैसे आया है मेरे सर पे ये छप्पर देखो
मेरे पापा की हथेली को भी पढ़कर देखो


वे अपनी ग़ज़लों में शब्दों का तिलिस्म नहीं रचते। इनकी ग़ज़लों का कथ्य हमारे आसपास ही बिखरा है, जो ज़मीनी सच लिए हुए है। कोई भी रचनाकार कल्पनाओं के कितने ही वैभवशाली गुम्बद रच ले, लेकिन इमारत की नींव यथार्थ का पत्थर ही होता है और यथार्थ के बिना उस इमारत यानी रचना का कोई वजूद नहीं। यथार्थ के साथ कल्पना का समिश्रण लिए सार्थक सन्देश देती रचना ही देर तक और दूर तक असर करती है।

मनोज एह्सास ग़ज़ल को साधते हुए आम आदमी के दर्द की बात करते हैं। उसकी ज़रूरतों की, उसकी चाह की बात करते हैं-

उस आदमी से पूछिए जीने का फ़लसफ़ा
जिसको सुलगते दर्द में गाने का शौक़ है


'सुलगते दर्द में गाने का शौक़' ही ज़िन्दगी की वास्तविक परिभाषा गढ़ सकता है। जिसने दर्द को नहीं गाया, वह भला ज़िन्दगी की क्या व्याख्या कर पायेगा। जीने और ज़िन्दा रहने के बीच के फ़र्क को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-

ख़ुद के जैसा रह न पाये और ज़िन्दा भी रहे
इससे ज़्यादा चोट क्या है आदमी की ज़ात को


वे अपने लेखन में हौसलों, जज़्बों और ज़िद की बातें करते हैं। बातें क्या करते हैं, इस बहाने वे हारे हुए बाजुओं में जान फूँकते हैं। एक रचनाकार का काम ही निराश मन को आस देना होता है। लाख मुश्किलें हों, अँधेरे हों लेकिन आस बची रहनी चाहिए। यह वह नाव है, जो भयंकर तूफ़ान के बीच दरिया पार करने का दम-ख़म रखती है। इस बाबत देखिए इनके अशआर क्या कहते हैं-

मैं दसरथ माँझी का किस्सा भी इस मिसरे में कहता हूँ
किसी की ज़िद के आगे नूर का रस्ता निकल आया

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ख़ुदा की दुनिया में क्या-क्या नहीं है
हमारी आस को ख़तरा नहीं है

ग़ज़लों के साथ-साथ नज़्म और कविताओं में भी मनोज 'अह्सास' सरोकारों से लैस रहते हैं। वे अपनी कविताओं में स्त्री, पिता, बेटी आदि के अह्सास उकेरते दिखते हैं। समय के साथ रिश्तों में किस प्रकार स्वार्थ का घालमेल हुआ है, दोस्ती के माध्यम से एक कविता में समझाते हैं। इनकी कविताओं में प्रेम की मधुर स्मृतियों का गान है, जो मुग्ध करता है। एक कविता में वे कविता के कथ्य को गूढ़ बना दिए जाने पर अपने विचार रखते हुए समझाते हैं कि काव्य में केवल विद्वता का प्रदर्शन कविता को आम आदमी से दूर ले जाता है। यानी वे कविता के कथ्य को लेकर पूरी तरह सचेत हैं। यह चेतना हर एक रचनाकार की रचनाधर्मिता के लिए ज़रूरी है।

28 ग़ज़लों, 19 नज़्मों एवं कविताओं के साथ प्रस्तुत पुस्तक में ग़ज़ल के व्याकरण पर एक आधारभूत लेख भी शामिल है, जो ग़ज़ल सीखने के लिए उत्सुक युवा रचनाकारों के लिए उपयोगी होगा। मनोज जी इसमें मात्रा गणना, तक्तीअ, बह्र निर्माण के साथ अच्छी ग़ज़ल के लिए कुछ ज़रूरी बातों का उल्लेख करते हैं। साथ ही ग़ज़ल लेखन के लिए उपयोगी व्याकरण की पुस्तकों की जानकारी भी साझा करते हैं।

अपनी पहली पुस्तक के ज़रिये पाठकों तक पहुँचते मनोज 'अह्सास', साहित्यिक हृदयों में अपनी उपस्थिति का अह्सास करवाएँगे, ऐसा विश्वास है। इन्हें शुभकामनाएँ।

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